पांच अंगों का संयोग : पंचांग डॉ. अशोक शर्मा पंचांग शब्द दो शब्दों की संधि से बना है- पंच तथा अंग जिसका शाब्दिक अर्थ होता है पांच अंगों वाला। ये पांच अंग हैं तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण। हर भारतीय पंचाग में इन पांचों अंगों का समावेश होता है। भारतीय पंचांग की गणना अत्यंत सूक्ष्म होती है। भारतीय गणित के अनुसार पंचांग की गणना के मुखय पांच भाग हैं - सौर, चांद्र, सायन, नाक्षत्र तथा बार्हस्पत्य। सौर : सौर की गणना निम्नानुसार तीन भागों में की जाती है। जिस कालावधि में सूर्य मेष से मीन राशियों तक का सफर करता है, उसे सौर वर्ष कहते हैं।
जितने दिनों तक सूर्य एक राशि में भ्रमण करता है, उसे सौर मास कहते हैं। जिस काल खंड में प्रत्येक अंश का भोग सूर्य करता है, उसे सौर दिन कहते हैं। चांद्र : एक पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा की अवधि को चांद्र मास कहते हैं। नर्मदा नदी के दक्षिण तट के हिस्से में मास की अमावस्या से अगली अमावस्या तक गणना की जाती है। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय की अवधि को सायन दिन कहा जाता है। नाक्षत्र : नाक्षत्र का मान 60 घड़ी के तुल्य होता है। बार्हस्पस्त्य : एक वर्ष की अवधि जिसमें 365 दिन, 15 घड़ी, 30 पल तथा 22.5 विपल होते हैं। बार्हस्पत्य को पुनः पांच भागों में बांटा गया है - तिथि, नक्षत्र, वार, योग तथा करण। यही पंचांग के मूल अंग हैं।
पंचांग को तिथि पत्रक, जंत्री, मितिपटल आदि भी कहा जाता है। तिथि : तिथि की गणना का आकलन चंद्र की गति से किया जाता है। चंद्र का एक कला या लगभग 120 के औसतन गति से सूर्य से आगे निकल जाना ही तिथि कहलाती है। नक्षत्र : राशिचक्र को, जिसे क्रांतिवृत्त भी कहा जाता है, 27 भागों में बांटा गया है, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है। सवा दो नक्षत्र की एक राशि होती है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों की 12 राशियां होती हैं।
वार : वार सात होते हैं - रवि, सोम, मंगल, बुध गुरु शुक्र तथा शनि। भारतीय पंचांगों में प्राचीन काल की अवधारणानुसार वार सूर्योदय से आरंभ होता है और अगले सूर्योदय तक रहता है। योग : योग का अर्थ है दो या दो से अधिक संखयाओं का जोड़। योग की कुल संखया 27 है जिन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कुछ योग श्रेष्ठ होते हैं, तो कुछ शुभ, कुछ सामान्य, तो कुछ अतिनेष्ट। करण : करण को पंचांग का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है।
करणों की संखया ग्यारह होती है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज तथा विष्टि चर और शकुनि, चतुष्पद, नाग तथा किस्तुघ्न स्थिर करण होते हैं। विष्टि करण को भद्रा कहा जाता है जिसमें अच्छे से अच्छा मुहूर्त भी दुष्प्रभावी हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार भद्रा में शुभ कार्य वर्जित है किंतु इसका उपयोग तंत्र के षटकर्मों में और विशेष परिस्थितियों में न्यायालय संबंधी तथा चुनाव कार्यों में विशेष रूप से किया जाता है।