पंचांग इतिहास - विकास - गणना विधि
पंचांग इतिहास - विकास - गणना विधि

पंचांग इतिहास - विकास - गणना विधि  

रुपेन्द्र वर्मा
व्यूस : 27427 | अप्रैल 2010

पंचांग : इतिहास-विकास-गणना विधि डॉ. रूपेंद्र वर्मा भारतीय पंचांग के इतिहास की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। क्षेत्रीयकरण के क्रम में ग्रहों, नक्षत्रों आदि की इस युगों पुरानी गणना पद्धति और उसके अनुसार मानव जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले इस सशक्त माध्यम को परिवर्तन के अनेक चरणों से गुजरना पड़ा है और आज देश भर में राष्ट्रीय पंचांग के अतिरिक्त कई क्षेत्रीय पंचांग उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश सबसे पहले लगध के वेदांग ज्योतिष में प्रतिपादित पद्धति से लिए गए हैं। लगध के इस वेदांग ज्योतिष का सूर्य सिद्धांत में मानकीकरण हुआ और आगे चलकर आर्यभट्ट, वराहमिहिर और भास्कर ने इसमें व्यापक सुधार किए। क्षेत्रों की भिन्नता के कारण पंचांगों की गणनाओं में अंतर आता है, किंतु निम्नलिखित तथ्य प्रायः सभी पंचांगों में समान हैं।

भारतीय ज्योतिर्विज्ञान की शास्त्र एवं प्रयोग सिद्ध एक स्वस्थ परंपरा 'पंचांग' के माध् यम से हमारे जीवन को आलोकित करती आ रही है। पंचांग ज्योतिषीय अध्ययन का एक अनिवार्य उपकरण है। इसे तिथि पत्र या पत्रा भी कहते हैं। इसका नाम पंचांग इसलिए है कि इसके पांच मुखय अंग होते हैं - तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। वृहदवकहडाचक्रम, पंचांग प्रकरण, श्लोक 1 में कहा गया है - तिथि वारिश्च नक्षत्रां योग करणमेव च। एतेषां यत्रा विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते॥ प्रत्येक प्रामाणिक पंचांग किसी स्थान विशेष के अक्षांश और रेखांश पर आधारित होता है। उसके मुख पृष्ठ पर अक्षांश रेखांश का स्पष्ट उल्लेख रहता है। जैसे आर्यभट्ट पंचांग का निर्माण ग्रीनविच (लंदन) से 280 38' उत्तरी अक्षांश तथा 770 12' पूर्वी देशांतर के आधार पर होता है। पंचांग दो पद्धतियों पर निर्मित होते हैं - सायन और निरयन। उत्तर भारत के सभी पंचांग निरयन पद्धति पर निर्मित होते हैं, जबकि पाश्चात्य देशों में सायन पद्धति प्रचलित है। तिथि : चंद्र की एक कला को तिथि कहते हैं। कला का मान सूर्य और चंद्र के अंतरांशों पर निकाला जाता है। सूर्य सिद्धांत के मानाध्याय, श्लोक 13 में तिथि का निरूपण इस प्रकार है।


For Immediate Problem Solving and Queries, Talk to Astrologer Now


अर्काद्विनिसृजः प्राचीं यद्यात्यहरहः शद्गाी। तच्चान्द्रमानमंद्गौस्तु ज्ञेया द्वादद्गाभिस्तिथिः॥ संपूर्ण भचक्र (3600) में 30 तिथियां होती हैं। अतः एक तिथि का मान 360÷30=120 होता है। इनमें 15 तिथियां कृष्ण पक्ष की तथा 15 शुक्ल पक्ष की होती हैं। परंतु चंद्र की गति में तीव्र भिन्नता होने के कारण तिथि के मान में न्यूनाधिकता बनी रहती है। चंद्र अपने परिक्रमा पथ पर एक दिन में लगभग 130 अंश बढ़ता है। सूर्य भी पृथ्वी के संदर्भ में एक दिन में 10 या 60 कला आगे बढ़ता है। इस प्रकार एक दिन में चंद्र की कुल बढ़त 130- 10 = 120 ही रह जाती है। यह बढ़त ही सूर्य और चंद्र की गति का अंतर होती है। अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्र साथ-साथ (एक ही राशि व अंशों में) होते हैं। उनका राश्यांतर शून्य होता है, इसलिए चंद्र दिखाई नहीं देता है। जब दोनों का अंतर शून्य से बढ़ने लगता है तब एक तिथि का आरंभ होने लगता है अर्थात प्रतिपदा तिथि शुरू होती है। जब यह अंतर बढ़ते-बढ़ते 120 अंश का हो जाता है, तब प्रतिपदा तिथि पूर्ण और द्वितीया शुरू हो जाती है। चूंकि प्रतिपदा तिथि को चंद्र सूर्य से केवल 120 अंश ही आगे निकलता है, इसलिए इस तिथि को भी साधारणतः आकाश में चंद्रदर्शन नहीं होते हैं। इसी प्रकार सूर्य-चंद्र के राश्यांतरों से तिथि का निर्धारण होता है। जब चंद्र सूर्य से 1800 (120 ग 15) आगे होता है, तब पूर्णिमा तिथि समाप्त तथा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि आरंभ होती है। पुनः जब सूर्य और चंद्र का अंतर 3600 या शून्य होता है

तब कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि समाप्त होती है। वार : भारतीय ज्योतिष में एक वार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहता है। वार को परिभाषित करते हुए कहा गया है - उदयात् उदयं वारः। वार को प्राचीन गणित ज्योतिष में सावन दिन या अहर्गण के नाम से भी जाना जाता है। वारों का प्रचलित क्रम समस्त विश्व में एक जैसा है। सात वारों के नाम सात ग्रहों के नाम पर रखे गए हैं। वारों का क्रम होराक्रम के आधार पर है और होरा क्रम ब्रह्मांड में सूर्यादि ग्रहों के कक्ष क्रम के अनुसार हैं। नक्षत्र : ज्योतिष शास्त्र में समस्त मेषादि राशि चक्र अर्थात भचक्र (3600) को 27 भागों में बांटा गया है। हर भाग एक नक्षत्र का सूचक है और हर भाग को एक नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त एक और नक्षत्र का समावेश भी किया गया है, जिसे अभिजित नक्षत्र कहते हैं। इस तरह भारतीय ज्योतिष के अनुसार भचक्र में कुल 28 नक्षत्र हैं। सूर्य सिद्धांत के भूगोलाध्याय में श्लोक 25 के अनुसार एक नक्षत्र का मान 3600 झ् 27 अर्थात 13 अंश 20 कला होता है। अभिजित् को मिलाकर 28 नक्षत्र हो जाते हैं।


Book Navratri Maha Hawan & Kanya Pujan from Future Point


किंतु सर्वमान्य मत के अनुसार नक्षत्र कुल 27 ही हैं। कुछ आचार्यों के अनुसार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र की अंतिम 15 तथा श्रवण नक्षत्र की प्रथम 4 घटियां अभिजित नक्षत्र के नाम हैं। इस तरह इस नक्षत्र का मान अभिजित नक्षत्र का मान कुल मिलाकर 19 है। बृहत् संहिता के चंद्रचार के अध्याय 4 श्लोक 7 में चंद्र का नक्षत्रों से योग बताते हुए कहा गया है- षडनागतानिपौष्णाद् द्व ा द श् ा र ा ै द ्र ा च् च म ध् य य ा े ग ी ि न । जेष्ठाद्यानिनवर्क्षाण्यफडुपतिनातीत्य युज्यन्ते॥ इस श्लोक के अनुसार भी 27 नक्षत्रों वाला मत ही सिद्ध होता है। पाश्चात्य ज्योतिष में भी अभिजित को उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण के मध्य माना गया है जिसे वेगा ;टम्ळ।द्ध कहते हैं। ज्योतिष में 27 नक्षत्रों को 12 राशियों में वर्गीकृत किया गया है। प्रत्येक नक्षत्र के चार भाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र का चरण या पाद कहते हैं। प्रत्येक चरण का मान 130 20' ÷ 4 = 3 अंश 20 कला होता है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों में कुल 108 चरण होते हैं। वृहज्जातकम् के राद्गिा प्रभेदाध्याय के श्लोक 4 के अनुसार प्रत्येक राशि में 108 ÷ 12 = 9 चरण होंगे। आधुनिक मत से चंद्र लगभग 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट में पृथ्वी की नाक्षत्रिक ;ैपकमतमंसद्ध परिक्रमा करता है। नक्षत्रों की कुल संखया भी 27 ही है। इस प्रकार चंद्र लगभग 1 दिन (60 घटी) में एक नक्षत्र का भोग करता है। किंतु अपनी गति में न्यूनाधिकता के कारण चंद्र एक नक्षत्र को अपनी न्यूनतम गति से पार करने में लगभग 67 घटी तथा अपनी अधिकतम गति से पार करने में लगभग 52 घटी का समय ले सकता है।

योग : पंचांग में मुखयतः दो प्रकार के योग होते हैं - आनंदादि तथा विष्कंभादि। योग पंचांग के पांचों अंगों में से एक हैं। जिस प्रकार सूर्य और चंद्र के राश्यांतर से तिथि का निर्धारण होता है, उसी प्रकार सूर्य और चंद्र के राश्यांशों के योग (जोड़) से विष्कंभादि योग का निर्धारण होता है। नक्षत्रों की भांति योग कोई तारा समूह नहीं है बल्कि यह एक वस्तु स्थिति है। आकाश में निरयन आदि बिंदुओं से सूर्य और चंद्र को संयुक्त रूप से 13 अंश 20 कला (800 कलाएं) का पूरा भोग करने में जितना समय लगता है, वह योग कहलाता है। इस प्रकार एक योग का मान नक्षत्र की भांति 800 कला होता है। विष्कंभादि योगों की कुल संखया 27 है। योग का दैनिक भोग मध्यम मान लगभग 60 घटी 13 पल होता है। सूर्य और चंद्र की गतियों की असमानता के कारण मध् यम मान में न्यूनाधिकता बनी रहती है। सुगम ज्योतिष के संज्ञाध्याय के योगप्रकरण के श्लोक 1 एवं वृहद अवकहड़ाचक्रम् के योगप्रकरण के श्लोक 1 में इन योगों को यथा नाम तथा गुण फलदायक कहा गया है। इन योगों में वैधृति एवं व्यतिपात नामक योगों को महापात कहते हैं। जब सायन सूर्य और चंद्र का योग ठीक 1800 या 3600 होता है, उस समय दोनों की संक्रांतियां समान होती हैं।


अपनी कुंडली में सभी दोष की जानकारी पाएं कम्पलीट दोष रिपोर्ट में


1800 अंश के क्रांतिसाम्य को व्यतिपात तथा 3600 अंश के क्रांतिसाम्य को वैधृति कहते हैं। सूर्यसिद्धांत, पाताधिकार, श्लोक 1, 2 एवं 20 में तांत्रिक क्रियाओं के लिए क्रांतिसाम्य अथवा महापात की स्थिति को अत्युत्तम माना गया है। वार और नक्षत्र के संयोग से तात्कालिक आनंदादि योग बनते हैं। नारद पुराण एवं मुहूर्त चिंतामणि ग्रथों में इनकी संखया 28 दर्शाई है। इन्हें स्थिर योग भी कहते हैं। इनकी गणितीय क्रिया नहीं है। ये योग सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक रहते हैं। इन योगों का निर्धारण वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र (अभिजित् सहित) तक की गणना द्वारा होता है। करण : करण तिथि का आधा होता है अर्थात सूर्य और चंद्र में 60 अंश का अंतर होने में जितना समय लगता है, उसे करण कहते हैं। किंतु कुछ पंचांगकार तिथि की संपूर्ण अवधि के दो समान भाग करके स्थूल रूप से करणों का निर्धारण कर देते हैं। एक तिथि में दो करण होते हैं। इनकी कुल संखया 11 है। सुगमज्योतिष, करण प्रकरण, श्लोक 1 में इनके दो भेद माने गए है - चर और स्थिर। बव, बालव, कौलव, तैत्तिल, गर, वणिज एवं विष्टि (भद्रा) चर और शकुनि, चतुष्पद, नाग एवं किंस्तुघ्न स्थिर संज्ञक करण हैं। चूंकि करण की शुरुआत स्थिर करण किंस्तुघ्न से होती है जब भचक्र में सूर्य और चंद्र का राश्यंतर शून्य होता है तब प्रतिपदा तिथि के साथ ही स्थिर करण किंस्तुघ्न शुरू होता है। जब चंद्र अपनी तीव्र गति के कारण सूर्य से 6 अंश आगे पहुंच जाता है,

तब किंस्तुघ्न करण समाप्त हो जाता है। इस प्रकार सूर्य और चंद्र में 6 अंश के राश्यंतर होने में जो समय लगता है, वह किंस्तुघ्न करण कहलाता है। जैसे ही चंद्र सूर्य से 60 से आगे बढ़ना शुरू करता है, बव नामक चर करण शुरू हो जाता है। जब सूर्य और चंद्र का राश्यंतर 120 हो जाता है, तब बव करण के साथ-साथ प्रतिपदा तिथि भी समाप्त हो जाती है और द्वितीय तिथि के साथ ही चर करण बालव की शुरुआत होती है। यही क्रम आगे भी जारी रहता है। तिथि के पूर्वार्ध का चर करण कैसे ज्ञात करें? नारद पुराण के अनुसार जिस तिथि के पूर्वार्ध का करण ज्ञात करना हो, उससे पूर्व की गति तिथियों को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनें। तदुपरांत प्राप्त संखया में 2 से गुणा करके 7 का भाग दें, जो शेषफल प्राप्त होगा, वह उस तिथि के पूर्वार्ध में बवादि क्रम से गिनने पर अभीष्ट करण होगा। पंचांग प्रयोग से पूर्व क्या करें? अलग-अलग पंचांग कालांगों का दिग्दर्शन अलग-अलग इकाइयों व विधाओं में करते हैं तथा अलग-अलग अक्षांशों और रेखांशों के आधार पर निर्मित होते हैं। अतः पंचांग को उपयोग में लाने से पूर्व निम्नलिखित तथ्यों का पालन करना चाहिए, ताकि गणना में त्रुटि न हो । पंचांग का निर्माण ग्रीनविच से कितने अक्षांश एवं रेखांश पर हुआ है, यह देख लेना चाहिए, ताकि अपने स्थल अथवा जातक के जन्म स्थल से चरांतर एवं देशांतर संस्कार करने में त्रुटि नहीं हो। अक्षांशीय एवं देशांतरीय अंतर के आधार पर अभीष्ट स्थान एवं पंचाग निर्माण के स्थान का शुद्ध समयांतर ज्ञात होता है। देखना चाहिए कि पंचांग की रचना में कौन सा अयनांश प्रयुक्त हुआ है - ग्रहलाघवीय, चित्रपक्षीय या लहरी इत्यादि। उत्तर भारत में चित्रपक्षीय अयनांश प्रयुक्त होता है।


अपनी कुंडली में राजयोगों की जानकारी पाएं बृहत कुंडली रिपोर्ट में


इसे भारत सरकार की मान्यता भी प्राप्त है। इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिए कि पंचांग में दिया गया अयनांश धनून-संस्कार-संस्कृत है अथवा नहीं। जैसे मार्त्तण्ड पंचांग में धनून- संस्कार-संस्कृत चित्रपक्षीय अयनांश प्रयुक्त होता है। इस पर भी विचार करना चाहिए कि पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग और करण के समाप्ति काल तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त किस इकाई में हैं - स्थानीय समय में अथवा मानक समय में। काशी के श्री हृषिकेश तथा श्री महावीर पंचांगों में सूर्योदय, सूर्यास्त तथा तिथि, नक्षत्र, योग और करण का समाप्ति काल स्थानीय समय में दिया गया है, जबकि दिल्ली के विद्यापीठ एवं विश्व विजय पंचांगों में सूर्योदय, सूर्यास्त और तिथि, नक्षत्र, योग तथा करण का समाप्तिकाल भारतीय मानक समय में दिया गया है। यदि पंचांग में दर्शाए गए प्रतिदिन के सूर्योदय एवं सूर्यास्त काल का योग 12 घंटे होता हो, तो समझना चाहिए कि पंचांग में स्थानीय समय प्रयुक्त हुआ है। दूसरी पहचान यह है कि दिनमान (घटी-पल) में 5 का भाग देने पर स्थानीय समय में (घंटे-मिनट में)े सूर्यास्तकाल प्राप्त होता है। पंचांग में दिनमान का सूर्योदय एवं सूर्यास्त द्वारा प्रमाणीकरण होना चाहिए। पंचांग में सूर्योदय या सूर्यास्त किसी भी इकाई में हो, दिनमान अपरिवर्तित रहता है। सूर्यास्त में से सूर्योदय घटाकर शेष घंटे-मिनट में ढाई गुना करने पर दिनमान प्राप्त होता है। यह दिनमान (घटी-पल) पंचांग में दिए गए दिनमान के तुल्य होना चाहिए। पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग और करण के सूर्योदय से समाप्तिकाल (घंटा-मिनट) इनके घटी-पलात्मक मान के तुल्य होना चाहिए। जैसे विद्यापीठ पंचांग के अनुसार 14 जून 1999 को दिल्ली में मृगशिरा नक्षत्र का मान 19 घटी 57 पल तथा मानक समय में समाप्तिकाल 13 घंटा 26 मिनट है, जबकि इस दिन दिल्ली में सूर्योदय (स्टैण्डर्ड) 5 बजकर 27 मिनट पर होता है।

तब मृगशिरा नक्षत्र का समाप्तिकाल = 13 घंटा 26 मिनट (मानक समय) सूर्योदय काल = (-) 5 घंटा 27 मिनट (मानक समय) शेष 7 घंटा 59 मिनट इसलिए मृगशिरा नक्षत्र का सूर्योदय से घटी-पलात्मक मान = 7 घंटा 59 ÷ 5/2 मिनट = 19 घटी 57 पल 30 विपल।

अतः इस पंचांग में दर्शाए गए तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के घटी-पलात्मक मान शुद्ध हैं। नवलगढ़ के अक्षांश और रेखांश पर बने श्री सरस्वती पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग व करण को घटी-पल तथा घंटा-मिनट (मानक समय) में भिन्न प्रकार से व्यक्त किया गया है। इसमें तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के घटी-पलात्मक मान सूर्योदय से इनके समाप्तिकाल (घंटा-मिनट) के ढाई गुना के बराबर प्राप्त नहीं होते हैं। इस पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के घटी पलात्मक मान नवलगढ़ के मध्यर्कोदय के लिखे गए हैं। घटी पल में ढाई का भाग देकर भागफल (घंटा-मिनट) के 6 घंटे 29 मिनट में जोड़ने पर तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण का सूर्योदय से समाप्ति काल भारतीय मानक समय में प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए सरस्वती पंचांग में दिनांक 6 सितंबर 1994 को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र का मान 16 घटी 4 पल तथा मानक समय में 12 बजकर 53 मिनट दिया गया है,

जबकि इस दिन नवलगढ़ में सूर्योदय 6 बजकर 13 मिनट पर होता है। तब पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का घटी पलात्मक मान = 16 घटी 4 पल ÷ 5/2 = 6 घंटा 25 मिनट 36 सेकंड। इसमें 6 घंटे 29 मिनट जोड़ने पर पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र का समाप्तिकाल (मानक समय में) 12 बजकर 54 मिनट प्राप्त होता है, जो लगभग पंचांग में दर्शाए गए मान के तुल्य है। इसी प्रकार तिथि, योग एवं करण के समाप्तिकाल मानक समय में ज्ञात कर सकते हैं। पंचांग में यह देखना चाहिए कि सूर्योदयास्तकाल में किरण वक्री भवन संस्कार किया गया है अथवा नहीं। सूर्योदयास्तकाल में किरण वक्री भवन संस्कार करने से वास्तविक क्षितिज वृत्त के उदयास्तकाल में सूक्ष्मांतर आ जाता है, जिससे इष्ट बनाने में तथा धार्मिक निर्णयों में त्रुटि होना संभव है। परंतु सूर्योदयास्त काल में घड़ी का मिलान करना हो, तो पंचांग में दर्शाए गए सूर्योदय में 2 मिनट किरण वक्री भवन संस्कार घटाने तथा सूर्यास्त में 2 मिनट जोड़ने पर घटी यंत्र से मिलना चाहिए। किरण वक्री भवन संस्कार के कारण दिनमान भी लगभग 10 पल बढ़ जाता है। पंचांग प्रयोग से पूर्व देखें कि चंद्र संचार मानक समय में दिया गया है


करियर से जुड़ी किसी भी समस्या का ज्योतिषीय उपाय पाएं हमारे करियर एक्सपर्ट ज्योतिषी से।


या घटी-पलात्मक मान में। वाणीभूषण पंचांग में तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण का मान घटी-पल तथा मानक समय (घण्टा-मिनट) में जबकि विद्यापीठ और दिवाकर पंचांगों में चंद्र संचार को मानक समय (घंटा-मिनट) में व्यक्त किया गया है। वहीं निर्णय सागर एवं विश्व पंचांग में चंद्र संचार घटी-पल में दर्शाया गया है। यह भी देख चाहिए कि पंचांग में ग्रह स्पष्ट किस दिन के और कितने बजे के दिए गए हैं? जैसे निर्णय सागर पंचांग में अष्टमी, पूर्णिमा एवं अमावस्या के सूर्योदय कालीन ग्रह स्पष्ट होते हैं। विद्यापीठ पंचांग में प्रातः 6 बजकर 21 मिनट के प्रतिदिन के ग्रहस्पष्ट होते हैं। आर्यभट्ट तथा श्री मार्त्तण्ड पंचांगों में प्रातः 5 बजकर 30 मिनट की दैनिक ग्रह स्पष्ट सारणी होती है। शतक मार्त्तण्ड पंचांग में 1980 से पूर्व ग्रहों की स्थिति सायं 5 बजकर 30 मिनट की दी गई है। उज्जैन की जीवाजी वेधशाला की एफेमरीज में दोपहर 12 के सायन ग्रह स्पष्ट दर्शाए गए हैं। इस पर भी विचार करना चाहिए कि पंचांग में राहु स्पष्ट दिया गया है या मध्यम। मध्यम राहु एवं स्पष्ट राहु में अधिकतम 1 अंश का अंतर होता है। केतु राहु से 180 अंश की दूरी पर रहता है।

यह भी देख लें कि बेलांतर सारणी ऋणात्मक तथा धनात्मक चिह्नों के अनुसार सही है या नहीं और बेलांतर संस्कार करने के पंचांग में क्या निर्देश दिए गए हैं। विद्यापीठ पंचांग में दी गई बेलांतर सारणी के अनुसार 26 दिसंबर से 14 अप्रैल तक तथा 15 जून से 31 अगस्त तक बेलांतर ऋण (-) और 15 अप्रैल से 14 जून तक तथा 1 सितंबर से 25 दिसंबर तक बेलांतर धन (+) होता है। पंचांग में दी गई लग्न सारणी किस अक्षांश एवं किस अयनांश पर बनी हुई है इसका विचार करना भी आवश्यक होता है। उत्तर भारत के अनेक पंचांगों में भिन्न-भिन्न अक्षांशों एवं अयनांशों पर बनी लग्न सारणियां दी गई हैं। उदाहरण के लिए निर्णय सागर पंचांग (शक 2058) में उत्तरी अक्षांश 17.50 अंश से 28.50 अंश तक की आठ लग्न सारणियां दी गई हैं। ये लग्न सारणियां 24 अंश अयनांश पर बनी हुई हैं। पंचांग में सिद्धांतीय वर्ष प्रवेश सारणी दी गई है

अथवा नवीन वेधोपलब्ध वर्ष प्रवेश सारणी इस पर भी विचार करना चाहिए, क्योंकि दोनों सारणियों में सूक्ष्मांतर होता है। इस पर विचार करना जरूरी होता है कि पंचांग की लस्टर पंक्ति में व्यक्त भद्रा, पंचक एवं सर्वार्थसिद्धादि योगों का समाप्तिकाल भारतीय मानक समय (घंटा-मिनट) में है अथवा घटी-पल में। उक्त तथ्यों के अतिरिक्त और भी अनेकानेक तथ्य हैं, जिनका पंचांग विचार के समय विश्लेषण करना आवश्यक होता है, अन्यथा से मुहूर्त, लग्नादि की गणना के त्रुटिपूर्ण होने की संभावना रहती है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.