तप - व्रत
तप - व्रत

तप - व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 5259 | नवेम्बर 2011

तप - व्रत भारतीय संस्कृति ही क्या वरन् वर्तमान में व्याप्त सभी संस्कृतियों का एक उच्चकोटि का आदर्श व्रत है। सेवाव्रत, दानव्रत, दयाव्रत, मौनव्रत, क्षमाव्रत, राष्ट्रव्रत, एकादश शक्ति, वनयात्राव्रत आदि अनेकानेक आचरणों की व्रत संज्ञा व्यवहार में विश्रुत है तथापि महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान नाम से व्यवहरत नियमों के अंतर्गत तपोव्रत का यहां प्रतिपादन किया जा रहा है। तपोव्रत वरणीय तथा करणीय कर्म तो है ही, व्रत एवं कृतकर्म भी है। तपोव्रत द्वारा ही इष्ट सिद्धि व कामनासिद्धि संभव है। स्वयं यज्ञ के देव अग्निदेव देवताओं के पूज्य पुरोहित तो हैं ही, व्रत के निर्विघ्नतापूर्वक निष्पादन के लिए शक्ति प्रदान करने का सामथ्र्य भी रखते हैं। वेदांत कहे जाने वाले उपनिषद् ग्रंथों में परम प्रभु को भी संकल्प रूप से ही सही; तप की अनिवार्यता का यंत्र-तंत्र विवरण मिलता है।

प्रश्नोपनिषद का प्रारंभ ही इस प्रश्न से होता है कि ‘‘भगवान् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति’’ कत्य ऋषि के प्रपौत्र कषंधी ऋषि के इस प्रश्न का उŸार देते हुए महर्षि पिप्पलाद कहते हैं कि ‘प्रजाकामो वै प्रजापतिः स ततपोऽतप्यत (1/4) अर्थात् सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से सृष्टि के स्वामी परमात्मा ने (संकल्प रूप) तप किया, तब सृष्टि उत्पन्न की। तप की महिमा का विस्तार वेद उपनिषद् पुराणादि सभी शास्त्रों व ग्रंथों में वर्णित है। तप का महत्व तपबल में जग सृजइ विधाता! तपबल विष्णु भए परित्राता।। तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।। तपबल बिप्र सदा बरिआरा। विन्ह के कोप न कोइ रखवारा।। अर्थात् तप के बल से ब्रह्मा जगत् को रचते हैं। तप ही के बल से विष्णु संसार का पालन करने वाले बने हैं। तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। अन्ना हजारे का तप मनु शतरूपा, वसुदेव-देवकी, कश्यप-अदिति, अत्रि-अनुसूया तथा धु्रव, प्रह्लाद, मीरा, हिरण्यकशय्प आदि के तप प्रभाव को जगत् जानता है।

वर्तमान की बात करें, तो अन्ना हजारे का तप भी एक उदाहरण है, जिसके तप के आगे सŸाारुढ़ सरकार भी नतमस्तक हो गयी। तप को कभी भी जीवन में धारण किया जा सकता है। ऐतरेयोपनिषद् में लिखा है कि लोकों की रचना करने के उपरांत परमात्मा ने सोचा कि लोकपालों की रचना और करनी चाहिए। यह सोचकर परमात्मा ने जल में से हिरण्यगर्भ पुरुष को निकालकर मूर्तिमान् किया तथा ‘तमभ्यतपत्’ अर्थात उसे लक्ष्य बनाकर तप किया। बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इद; सर्वमसृजत यदिदं किं च।’ अर्थात् परमात्मा ने कामना की कि मैं प्रकट हो जाऊँ और अनेक नाम रूप धारण करके बहुत बन जाऊँ। यह सोचकर परमात्मा ने तप किया और तप करके यह जो कुछ दिखायी दे रहा है इस सबकी रचना की। इतना ही क्यों? श्वेताश्वतरो- पनिषद् में तो यहां तक लिख दिया गया है कि तप के प्रभाव से और परमात्मा की कृपा से ऋषि श्वेताश्वतर ने ब्रह्म को जाना- तपःप्रभावद् देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ। (6 । 21) प्रतीत होता है कि प्रभु की कृपा भी तभी प्राप्त होती है, जब तप का प्रभाव होता है। श्रीमद्भागवत में तो धर्म के चार पादों में तप को सर्वोपरि स्थान दिया गया है- तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः। (1 । 7 । 24) इतना ही नहीं, ब्रह्म की प्रथम सृष्टि ब्रह्मा के द्वारा प्रथम सृष्ट ब्राह्मण समाज का निःश्रेयस करने वाले दो ही तŸव श्रीमद्भागवत में बताये गये हैं- तप और विद्या।

ये दोनों विनयशील ब्राह्मणों के लिए तो कल्याणप्रद हैं, किंतु दुर्विनीत के पास पहुंचकर ये ही दोनों अनिष्टकारी हो जाते हैं। देवी पार्वती का तप महाकवि कालिदास ने अपने ‘कुमार संभव’ महाकाव्य में भगवती पार्वती के विषय में लिखा है कि जब पार्वती ने पिनाकी शिव द्वारा कामदेव को अपने समक्ष भस्मसात् होते देखा तो उन्होंने तप के द्वारा तपस्वी शिव को अनुकूल बनाने का प्रयास किया। सच भी तो है कि ऐसा प्रेम और ऐसा पति तप के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। ग्रीष्म, वर्षा तथा शीत ऋतु में गौरीशिखर पर उमा का तप वस्तुतः बड़े से बड़े तपस्वियों को भी चकित कर देने वाला है। पार्वती ने ग्रीष्म ऋतु में कठोर तप करते हुए अपने चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर ली। ज्येष्ठ के महीने में बाहर खड़े होकर सूर्य की ओर टकटकी लगाकर देखते रहना और फिर भी चेहरे पर पवित्र मुस्कराहट बनाये रखना यह देवी उमा का ही काम था, अन्य का नहीं- पार्वती के इस प्रकार के ग्रीष्म तप के उपरांत वर्षा कालीन तप का क्रम आता है।

आकाश के सूर्य और पृथ्वी की अग्नि राशि से निकाम तप्त देवी पार्वती ने वर्षा काल के आरंभ में पृथ्वी के साथ गरम सांस तो छोड़ी ही, पार्वती की सखी भी उस समय के तप में उनका साथ न दे सकी। दिन-रात के उस तप की साक्षिणी केवल रात्रियां थीं, जो आवश्यकता पड़ने पर कह सकेंगी कि देवी पार्वती ने कठोर तपः साधना की थी। बिना किसी छाया के एक स्थान पर शिला के ऊपर बैठकर पार्वती ऐसा तप कर रही हैं, जहां झंझावात के साथ मूसलाधार वर्षा हो रही है। बीच-बीच में तड़पती हुई बिजली के रूप में आंखें खोलकर रात्रियां ही उनके महातप की गवाही देने को वहां खड़ी हुई थीं। वर्षाकाल के इस महातप ने शक्ति रूपा पार्वती को न केवल एकाकिनी बना दिया है, अपितु साधना के निकट भी ला दिया है। शीत-ऋतु का भीषण तप देवी पार्वती के पर्वताकार साहस का प्रत्यक्ष परिचय दे गया। जाड़े की हेमन्त- ऋतु, उसमें प्रखर पौष मास की बर्फीली हवा, उसमें भी भीषण रात्रिकाल।

इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी उमा की अविचल लक्ष्य साधना को कोई निष्ठावान् रचनाकार ही चित्रित कर सकता है। पार्वती ने पानी में खड़े रहकर अत्यं बर्फीली हवाओं वाली पौषमास की रात्रियों को रात्रि में अलग-अलग हो जाने वाले चक्रवाक-युगल पर सहानुभूति पूर्वक कृपा करते हुए बिताया। इस प्रकार तीनों ऋतुओं की अत्यंत विपरीत परिस्थितियों को सहते हुए पार्वती का महातप लक्ष्योन्मुख ही नहीं, लक्ष्याभिमुख हो गया। भगवान् स्वयं ब्रह्मचारी का भेष बनाकर गौरीशिखर पर पहुंच गये। अनेक प्रबल तर्कों-वितर्कों के अनंतर उमा की महनीय महŸाा सार्थक हुई। यह कहते हुए कि बड़ों की बुराई करने वाला ही नहीं, बुराई सुनने वाला भी दोषी माना जाता है, पार्वती ने जैसे ही वहां से उठने का प्रयास किया। चंद्रमौलि भगवान् शंकर कह उठे- हे देवि! आज से मैं तपद्वारा खरीदा गया तुम्हारा दास बन गया हूं।

भगवान् का ऐसा कहना था कि पार्वती का संपूर्ण तपस्या के समय का कष्ट एकदम दूर हो गया। ठीक ही तो है- फल पाने के पश्चात् क्लेश शरीर में नवता का ही संचार करता है, दुर्बलता का नहीं। भगवती पार्वती के तीनों ऋतुओं के तप ने बहुवचन का रूप धारण करके भगवान् चंद्रमौलि से भी स्वमुख से ‘क्रीतस्तपोभिः’ यह बहुवचनान्त पद ही कहलाया है, एकवचनान्त नहीं। इस प्रकार निभ्र्रान्त रूप से कहा जा सकता है कि ‘व्रत’ शब्द यद्यपि विविध क्षेत्रीय कर्तव्य कर्मों का द्योतन करता है, तथापि यह शब्द मूलतः तप की ही ध्वनि संक्रमित करता है। तप भगवान् की ओर उन्मुख होने तथा भगवान् संबंध होने का प्रमुख साधन है। तप के द्वारा इष्टसिद्धि सुनिश्चित है। उपरोक्त का चिंतन करते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि तप के द्वारा ही मानव, ऋषि, मुनि, सजा, दानव, प्रेमी भक्त महानता को प्राप्त हुए। जिन्होंने तप के द्वारा प्राप्त वस्तु का संरक्षण किया, लोककल्याण में लगाया उनकी कीर्ति तथा जिन्होंने तप द्वारा वस्तु का भोग किया, अनाचरण किया, अमर्यादित कार्य किए उनकी अपकीर्ति जगत् विदित है। अतः तप से प्राप्त सिद्धियों का सदुपयोग ही उŸाम है। नवंबर मास के प्रमुख व्रत त्योहार सूर्य षष्ठी (1 नवंबर): सूर्य षष्ठी के दिन भक्त जन भगवान सूर्य के निमित्त व्रत पूजा आदि करते हैं, इस दिन पवित्र नदी, सरोवरों में स्नान करक भगवान सूर्य का पूजन करने से महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है। लोकाचार के अनुसार कुछ प्रांतों में यह पर्व छठ के रूप में भी मनाया जाता है।

देव प्रवोधनी एकादशी (6 नवंबर): कार्तिक शुक्ल एकादशी को हरि प्रबोधिनी नाम से जाना जाता है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी पर्यन्त तक भगवान विष्णु नारायण क्षीर सागर में शेषनाग की शय्या पर चार मास तक शयन करते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि क समय हरि को जगाने के लिए स्तोत्र पाठ, हरि संकीर्तन, भजन, भगवत्कथा श्रवण, गायन, घंटा, शंख, मृदंग, वीणा वादन, नृत्य आदि से भगवान को जगाना चाहिए। इस दिन व्रत दान करने से विशेष पुण्यफल की प्राप्ति होती है। वैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत (9 नवंबर): कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी ‘‘वैकुण्ठ चतुर्दशी’’ नाम से प्रसिद्ध है। पौराणिक कथा अनुसार काशी के मणिकर्णिका घाट पर भगवान विष्णु भगवान शंकर की पूजा करने के लिए आए। उन्होंने सहस्र कमलों से भगवान शिव की पूजा करने का संकल्प किया। पूजा करते-करते एक कमल की कमी पड़ गई। भगवान कमल नयन विष्णु ने अपनी एक आंख निकाल कर हजारवें कमल के रूप में शिव को अर्पित कर दी।

भगवान शंकर ने विष्णु की अनन्य भक्ति को देखकर उन्हें संसार के उपकार के लिए सुदर्शन चक्र प्रदान किया तथा कहा कि जो लोग ब्राह्ममुहूर्त में इस दिन मेरी पूजा करेंगे उन्हें वैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। इसके अतिरिक्त इस दिन निःसंतान दंपति अगर संपूर्ण रात्रि पर्यंत किसी सिद्ध शिव मंदिर, तीर्थ आदि मंे खड़े होकर हाथों में दीपक जलाएं तो उन्हें भगवान की कृपा से संतान की प्राप्ति होगी। कार्तिक पूर्णिमा (10 नवंबर): कार्तिक पूर्णिमा के दिन कार्तिक स्नान की समाप्ति होती है।

इस दिन पवित्र तीर्थों में गंगा स्नान, दान, यज्ञ, व्रत आदि करने से महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त इस दिन सिख धर्म संप्रदाय में श्री गुरुनानक देव का पवित्र जन्म दिवस भी बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है।



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