एक दिन ब्राह्मण देवता दुखी होकर वन में प्यास से दुखी हो तालाब पर आए, जल पीकर थके हारे वहीं बैठ गये। संन्यासी महात्मा का आगमन, ब्राह्मण देव का कातर भाव व उद्विग्न मन से उन्हें प्रणाम करना एवं संन्यासी के द्वारा ब्राह्मण के रुदन का कारण जानने को प्रष्न करना।
ब्राह्मण ने कहा- स्वामी संतान हीनता के कारण मैं अपने प्राण त्यागने हेतु यहां आया हूं। यतिवर के हृदय में दया भाव आया और समाधिस्थ हो ब्राह्मण के सम्पूर्ण वृतान्त को जानकर कहा- हे ब्राह्मण देव! सप्त जन्म तक तुम्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सकता अतः परिवार की आषा त्याग दो।
ब्राह्मण ने कहा- महात्माजी! या तो बलपूर्वक मुझे पुत्र दीजिए, नहीं तो मैं अभी इसी क्षण आपके समक्ष प्राणों का त्याग करता हूं।
ऐसा हठ देखकर महात्मा जी ने एक फल देकर कहा- इसे तुम अपनी पत्नी को खिला देना, इससे एक दिव्य गुणों से परिपूर्ण पुत्र होगा।
पत्नी को एक वर्ष तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय अन्न खाने का नियम लेना होगा। ब्राह्मण ने फल अपनी स्त्री को दे दिया एवं सम्पूर्ण नियम बता दिए। प्रसव पीड़ा के अनेक कष्टों का अनुभव करते हुए धुन्धुली ने फल नहीं खाया। स्वामी से झूठ कह दिया- हां मैंने फल खा लिया। अचानक बहिन का घर आना और अपने बच्चे को उसे दे देने का आष्वासन देना तथा परीक्षा हेतु फल को गाय को खिला देना।
अनुकूल समय पर बहिन को षिषु की प्राप्ति एवं उसे धुन्धुली को छुपकर देना। आत्मदेव को शुभ सूचना प्राप्त हुई। प्रसन्न मन से दान-पुण्यादि कृत्य सम्पन्न किए। धुन्धुली ने बालक का नाम धुन्धुकारी रख दिया। तीन माह बाद गाय को मनुष्याकार गाय के कान वाला बालक प्राप्त हुआ जो सर्वांग सुंदर था अतः उसका नाम ‘गोकर्ण’ रख दिया। धुन्धुकारी महाखल, कामी तथा गोकर्ण पण्डित और ज्ञानी हुआ। धुन्धुकारी के द्वारा माता-पिता की सम्पूर्ण सम्पŸिा का दुराचारों में नष्ट करना, पिता को गोकर्ण द्वारा ज्ञान