पेट के कृमि:एक आम समस्या आचार्य अविनाश सिंह पेट में कई प्रकार के कृमिओं का होना सामान्य बात है। बच्चों से ले कर बूढ़ो तक की आंतों में ये कृमि पाये जाते हैं।
इन कृमियों के कारण सैकड़ों लोग प्रतिवर्ष मौत का शिकार होते हैं और सैकड़ों हीे अन्य रोगों की गिरफ्त में आ जाते हैं। पेट के कीड़ांे का मनुष्य पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण हैं स्वच्छ पीने के पानी का अभाव, दूषित एवं अशुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन तथा शारीरिक स्वच्छता के प्रति उदासीनता।
पेट में कीड़े होने से बुखार, शरीर का पीला पड़ जाना, पेट में दर्द, दिल में धक-धक होना, चक्कर आना, खाना अच्छा न लगना तथा यदा-कदा दस्त होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। पेट के कीड़े कई प्रकार के होते हैं। लेकिन मुख्यतः ये दो प्रकार की श्रेणियों में बंटे हैं- गोल कृमि, या ‘राउंड वर्म’ और फीता कृमि, या ‘टेप वर्म’।
गोल कृमि: ये सबसे अधिक पाये जाने वाले आंत्र कृमि हैं। इन कृमियों में नर और मादा अलग-अलग होते हैं। इनका रंग सफेद या पीलापन लिए होता है। इस कृमि की मादा एक ही दिन में हजारों की संख्या में अंडे देती है। ये अंडे हजारों की संख्या में मल के साथ निकल कर मिटटी, पानी, सब्जियों और अन्य खाद्य एवं पेय पदार्थों को दूषित करते रहते हैं। जब कोई स्वस्थ व्यक्ति इन संक्रमित खाद्य, या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तो ये अंडे उसकी छोटी आंत में पहुंच कर वहां फूट जाते हैं तथा उनसे वहां पर लार्वा पैदा होते हैं। ये लार्वा छोटी आंत में पहुंच जाते हैं। ये कृमि गुदा और स्त्री योनि तक भी पहुंच जाते हैं।
लक्षण: इसमें व्यक्ति की भूख प्रायः घट जाती है। परंतु कभी-कभी व्यक्ति की भूख बहुत अधिक बढ़ जाती है। कई बार इनके कारण आंतो में रुकावट भी उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति को मितली, या वमन आने लगती है। रोगी के पेट में दर्द रहने लगता है तथा मरोड़ के साथ कभी कब्ज हो जाता है, या कभी दस्त आने लगते हैं। नींद में रोगी के मुंह से लार बहती है और बच्चे दांत पीसने लगते हैं। मुंह से बदबू आने लगती है। चेहरे का रंग फीका पीला हो जाता है। शरीर कमजोर और हाथ-पैर दुबले हो जाते हैं। पेट में अफरा, शरीर में अधिक गर्मी प्रतीत होते हैं। रोगी के नाक-मुंह में खुजली होती है। कभी-कभी शरीर पर पित्ती भी उछल जाती है।
धागे वाले कृमि: सबसे अधिक व्यक्तियों में इसी प्रकार के आंत कृमि पाये जाते हैं। इन कृमियों का अधिकतर आक्रमण बच्चों पर ही होता है। ये कृमि बहुत छोटे होते हैं। इसके भी अंडे मल द्वारा धूल, मिटटी, पानी, सब्जियों आदि तक पहुंच जाते हैं, जिनके सेवन मात्र से ये अंडे पेट में पहुंच जाते हैं। लक्षण: इन कृमियों के कारण बच्चों की गुदा द्वार पर, विशेष कर रात्रि के समय, तीव्र खुजली होती है, खुजली के कारण जब बच्चा अपनी अंगुली से गुदा पर खारिश करता है, तो इनके अंडे अंगुली पर चिपक कर उसके मुंह तक पहुंच जाते हैं। इससे बच्चों को नींद नहीं आती। कभी-कभी वे सोते हुए दांत किटकिटाते हैं तथा अपनी नाक को नोचते हैं। इसके कारण उनकी भूख कम हो जाती है। पेट में दर्द रहता है।
अंकुश कृमि: ये कृमि धागे की भांति, बारीक हरियाली लिए, सफेद रंग के होते हैं। ये संक्रमित व्यक्ति की ग्रहण् ाी तथा मध्य आंत में काफी संख्या में पाये जाते हैं। इन कृमियों के अंडे भी मल के साथ शरीर से बाहर आ कर मिट्टी में मिल जाते हैं। जब व्यक्ति नंगे पांव इनके संपर्क में आता है, तो ये पैर की कोमल त्वचा से चिपक कर, त्वचा में प्रवेश कर के, रक्त में मिल कर, फेफड़ों आदि से छोटी आंत में ग्रहणी तक पहुंच जाते हैं।
लक्षण: इससे उत्पन्न रोग का मुख्य लक्षण रक्त की भारी कमी हो जाना है, जिससे शरीर और चेहरा पीला पड़ जाता है। भूख घट जाती है तथा कमजोरी बढ़ती है। आमाशय में पेप्टिक अल्सर की तरह का दर्द रहने लगता है। वमन भी होती है। इससे कभी-कभी मल के साथ रक्त भी आता है।
स्ट्रोगइ लोइडोसिस स्टार कोरलिसः यह कृमि अत्यंत सूक्ष्म है, जो मनुष्य की छोटी आंत की ग्रहणी तथा मध्य आंत में हजारों की संख्या में पाये जाते हैं।
लक्षण: कृमि का लार्वा त्वचा के जिस स्थान पर प्रवेश करता है, उसपर तीव्र खुजली होती है और वह स्थान लाल हो कर सूज जाता है। इसके कारण रोगी को वमन, भूख की कमी, हल्का ज्वर, दमा जैसा श्वास और रुक-रुक कर खांसी होने लगती है। आमाशय में दर्द, अफरा तथा कभी कब्ज और कभी अतिसार की शिकायतें रहने लगती हैं। बच्चों का पेट फूल जाता है। इन कृमियों से फेफड़ों में संक्रमण के कारण कभी-कभी निमोनिया भी हो जाता है, जिससे रोगी की मृत्यु भी हो जाती है।
फीता कृमि: आम तौर से फीता कृमि कम व्यक्तियों में ही देखा गया है। जो लोग मांसाहारी हंै और गाय, या सुअर के मांस का उपयोग करते हैं, उन्हीं में ये कृमि पाये जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह कृमि इन दो पशुओं के शरीर में अपने जीवन का मुख्य काल व्यतीत करते हैं। इनके मांस को खाने वाले व्यक्तियों के पेट में ये कृमि आसानी से स्थानांतरित हो जाते हैं। ये कृमि, व्यक्ति की आंत की दीवार में अपना सिर गड़ाये रख कर, उसका रक्त चूसते रहते हैं। यह आंत कृमि, फीते के समान, बहुत लंबे तथा भूरे-सफेद रंग के होते हैं। इन कृमियों का शरीर, कद्दू के बीजों की तरह, चैरस खंडों के आपस में मिलने से जंजीर के रूप में होता है। इन कृमियों के शरीर मंे आहार नहीं होता। इसलिए ये अपने लिए पोषक तत्व ऊपरी सतह से ही प्राप्त करते हैं।
लक्षण: इन कृमियों की उपस्थिति के बावजूद कभी-कभी व्यक्ति में कोई लक्षण प्रकट नहीं होता और व्यक्ति इनकी उपस्थिति से अज्ञान बना रहता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों के शरीर से कभी-कभी मल के साथ इस कृमि के खंड अवश्य निकलते रहते हंै, जिनसे इन कृमियों की पहचान की जा सकती है। इनके कारण व्यक्ति की भूख बहुत बढ़ जाती है। कभी-कभी पेट में तीव्र दर्द भी होने लगता है। मल ढीला आने लगता है। गुदा और नाक में खुजली होने लगती है। व्यक्ति के पोषक तत्व समाप्त होने लगते हैं। व्यक्ति दुबला और कमजोर होता जाता है। सिर दर्द रहने लगता है। पाचन कमजोर हो जाता है।
आयुर्वेदिक उपचार: वायबिडंग, सौंठ, पीपल और काली मिर्च, समान भाग में ले कर, चूर्ण बना लें और गर्म पानी के साथ कुछ दिन खाने से पेट के कीड़ों का नाश होता है। अजवायन के चूर्ण को गुड़ में मिला कर गोली बना लें। दिन में 3 बार खाने से पेट के कीड़े नष्ट हो जाते हैं। सुबह खाली पेट गुड़ खा कर 15-20 मिनट बाद अजवायन का चूर्ण पानी के साथ लें। इससे आंतों के सभी प्रकार के कीड़े समाप्त हो जाते हैं। पीपल का चूर्ण, नींबू के रस के साथ थोड़ा शहद मिला कर, चाटें। नीम की कोमल पत्तियां, पुदीना, करेले के पत्ते, लहसुन, इन सबको मिला कर रस निकालें और प्रतिदिन 2 चम्मच पीएं। पलाश के बीज का काढ़ा शहद में मिला कर पीने और इसके बीज की चटनी बना कर शहद में मिला कर चाटने से भी आंत के कीड़े नष्ट होते हैं। धतूरे के पत्ते, अरंड के पत्ते, मेंहदी के पत्ते, प्याज, इन्हें पीस कर गुदा पर लेप करें। सोंठ, पीपर, पीपरामूल, चव्य, चिजक, तालीस पत्र, दालचीनी, जीरा, सौंठ, अम्लवेत, अनारदाना, पांचों नमक, बराबर मात्रा में चूर्ण कर, भोजन के बाद 2 माशे लें। 2, या 3 लाल टमाटर को काट कर सेंधा नमक और काली मिर्च मिला कर, खाली पेट शाम के वक्त कुछ दिन खाएं। याद रखें, इसे खाने के 2 घंटे पहले और 2 घंटे बाद कुछ और न खाएं। विभिन्न लग्नों में यह रोग:
मेष लग्न: राहु षष्ठ भाव में हो और लग्नेश पर दृष्टि रखे, बुध पर केतु की दृष्टि, या युति हो, बुध अस्त न हो और शुक्र से युक्त हो, तो पेट के कीड़ों से जातक पीड़ित रहता है।
वृष लग्न: अकारक गुरु षष्ठ भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो, षष्ठेश और लग्नेश शुक्र सूर्य से अस्त हो, बुध और मंगल की युति, या एक दूसरे पर दृष्टि हो, तो जातक के पेट में कीड़े पाये जाते हैं।
मिथुन लग्न: अकारक मंगल षष्ठ भाव में चंद्र से युक्त, या दृष्ट हो, केतु षष्ठ, या द्वितीय भाव को देखे, या मंगल और चंद्र को पूर्ण दृष्टि से देखे, तो पेट में कीड़े होने से जातक पीड़ित होता है।
कर्क लग्न: षष्ठेश गुरु द्वितीय भाव में, द्वितीयेश सूर्य षष्ठ भाव में बुध से युक्त हो और बुध अस्त नहीं हो, लग्नेश चंद्र केतु से युक्त हो कर अष्टम् भाव में हो, तो जातक के पेट में कीड़े पाये जाते हैं।
सिंह लग्न: शनि द्वितीय भाव में, बुध राहु से युक्त, या दृष्ट, षष्ठ भाव में लग्नेश, सूर्य पंचम भाव में अष्टमेश से युक्त हो और चंद्र-शुक्र अष्टम भाव में हों, तो जातक का, पेट के कीड़ों से, स्वास्थ्य खराब होता है।
कन्या लग्न: मंगल षष्ठ भाव में, षष्ठेश शनि द्वितीय, या अष्टम भाव में, शुक्र द्वितीय भाव में केतु से युक्त हो और गुरु से दृष्ट हो, चंद्र बुध युक्त राहु से दृष्ट हो, तो जातक का स्वास्थ्य, पेट के कीड़ों के कारण, खराब रहता है।
तुला लग्न: गुरु द्वितीय भाव में चंद्र से युक्त हो, लग्नेश शुक्र षष्ठ भाव में मंगल से युक्त हो और केतु से दृष्ट, या युक्त हो, सप्तम भाव में सूर्य-बुध हों और बुध अस्त हो, तो जातक को पेट के कीड़ों का सामना करना पड़ता है।
वृश्चिक लग्न: बुध षष्ठ भाव में गुरु से युक्त हो और द्वितीय भाव में मंगल राहु से दृष्ट, या युक्त हो, सूर्य सप्तम भाव में हो और शुक्र अष्टम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तो पेट मंे कीड़े होते हैं।
धनु लग्न: षष्ठेश शुक्र द्वितीय भाव में चंद्र से युक्त हो, द्वितीयेश शनि षष्ठ भाव में राहु से युक्त हो, बुध द्वादश भाव में लग्नेश से युक्त हो, तो जातक के पेट में कीड़ो का जोर बना रहता है।
मकर लग्न: लग्नेश और द्वितीयेश शनि षष्ठ भाव में गुरु से युक्त, बुध मंगल से युक्त, या दृष्ट द्वितीय भाव में, शुक्र चतुर्थ भाव में हो, चंद्र राहु से युक्त अष्टम भाव में हो, तो जातक के पेट में कीड़े बनते हैं।
कुंभ लग्न: लग्नेश शनि षष्ठ भाव में द्वितीयेश से युक्त हो, षष्ठेश चंद्र द्वि तीय भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो, अष्टमेश बुध मंगल से युक्त हो कर द्वादश भाव में हो, सूर्य लग्न में हो और शुक्र अस्त हो, तो पेट में कीड़े होने की संभावना होती है।
मीन लग्न: अकारक शुक्र द्वितीय भाव में राहु और बुध से युक्त हो और मंगल षष्ठ भाव में लग्नेश गुरु से युक्त हो तथा शनि से दृष्ट हो, तो जातक को पेट के कीड़ों से जूझना पड़ता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। संबंधित ग्रह की दशा, अंतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोग उत्पन्न होता है। जबतक संबंधित ग्रह प्रभावी रहेगा, तब तक रोग देगा। उसके उपरांत रोग से राहत मिलेगी।