दिव्य अनुष्ठान - दान व्रत
दिव्य अनुष्ठान - दान व्रत

दिव्य अनुष्ठान - दान व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 8497 | जुलाई 2011

दिव्य अनुष्ठान - दान व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी 'दान' का शब्दार्थ है 'देना' और भावार्थ है परोपकार अथवा कल्याण के उद्देश्य से आर्थिक अथवा श्रम संबंधी सहायता करना। दान की महिमा को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता और न ही दान के कारण प्राप्त होने वाले पुण्य-प्रताप की सही-सही व्याखया ही की जा सकती है। दान से प्राप्त होने वाले पुण्य से देवताओं के सिंहासन का अस्तित्व भी प्रकम्पित हो जाता है। तभी तो जब कोई महान् दानवीर दान करने की उदारता के कारण असीम पुण्य-प्रताप से संयुक्त होने लगता है, तो दान के प्रति उसकी सत्यनिष्ठा, आस्था की असीमितता व पराकाष्ठा का प्रकाश करने हेतु ईश्वर को भी अवतार लेकर पृथ्वी पर आना पड़ा है। राजा बली, सत्यव्रती राजा हरिश्चंद्र, दानवीर कर्णादि की दान-परंपरा के यशोगान से हमारे शास्त्र आज भी आलोकित हैं। सनातन धर्म में धर्म के आठ प्रकार हैं- यज्ञ करना (कराना), अध्ययन (अध्यापन), दान, तप, सत्य, धृति (धैर्य), क्षमा और अलोभ। इसमें दान देना (दानव्रत) एक विशिष्ट धर्म कहा गया है और लाख काम छोड़कर दान-देना चाहिए।

इसलिए कहा गया है- शतं विहाय भोक्तव्यं, सहस्त्रं स्नानमाचरेत्। लक्षं विहाय दातव्यं, कोटिं त्यक्त्वा शिवं भजेत्॥ लाख काम छोड़कर दान करने पर जोर दिया गया है क्योंकि दान से यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है। अतः दान देकर यशस्वी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं यशः। विद्यायामर्थ लाभे च मातुरुच्चार एव सः। मरणोपरांत भी दान मित्र का कार्य करता है, दान से अर्जित पुण्य मृत्यु के बाद भी साथ रहता है। यक्ष ने धर्मराज युधिष्ठर से प्रश्न किया था कि 'किस्विन्मित्रं मरिष्यतः' अर्थात् मृत्यु के निकट पहुंचे हुए पुरुष का मित्र कौन है? इस पर महाराज युधिष्ठिर ने कहा- 'दानं मित्रं मरिष्यतः' अर्थात् मरने वाले मनुष्य का मित्र दान है। अतः शास्त्र कहता है कि ''सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से दान करो''। दान व्रत भारतीय संस्कृति ही क्या वरन् सम्पूर्ण संस्कृतियों का एक विलक्षण सार्वदेशिक व सार्वभौमिक व्रत है। यह नित्य व प्रतिक्षण व्रत है। यह देश-काल-पात्र की सीमाओं के बंधन में रहकर किया जाने वाला व देश-काल-पात्र की सीमाओं के बंधन से रहित व्रत है।

इस व्रत का पालन जीवन में, जीव जगत् में उत्पन्न प्रत्येक मनुष्य मात्र को करना श्रेयस्कर है। 'दान' धर्म की धुरी या कर्तव्यपालन का प्राथमिक अंग है क्योंकि विश्व में प्रचलित सभी संप्रदायों, पन्थों तथा मार्गों के सभी पीर-पैगंबरों, ऋषि-मुनियों तथा धर्मोपदेशकों ने दान को प्रमुख स्थान दिया है। सफल जीवन जीने के लिए दान की अनिवार्यता है। सफल जीवन क्या है? सफल जीवन उसी का है, जो मनुष्य जीवन प्राप्त कर अपना कल्याण कर ले। भौतिक दृष्टि से तो जीवन में सांसारिक सुख और समृद्धि की प्राप्ति को ही हम अपना कल्याण मानते हैं, परंतु वास्तविक कल्याण है- सदा सर्वदा के लिए जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होना अर्थात् भगवत् प्राप्ति। अतः इस साधन की प्राप्ति के लिए राजर्षि मनु ने चारों युगों के चार साधन बताए हैं- तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौयुगे॥ सत्युग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में एक मात्र दान मानव के कल्याण का साधन है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- प्रगट चारि यह धर्म के कलिमहुं एक प्रधान।

जेन केन विधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥ गोस्वामीजी का यह वचन तैत्तिरीयो- पनिषद् के निम्न प्रसिद्ध वचनों पर ही आधारित है- 'श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयादेयम्'। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।' अर्थात दान श्रद्धापूर्वक करना चाहिए, बिना श्रद्धा के भी करना चाहिए। लेकिन बिना श्रद्धा के करना उचित नहीं (श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया अदेयम्), अपनी सामर्थ्य के अनुसार उदारता पूर्वक देना चाहिए (श्रिया देयम्), विनम्रता पूर्वक देना चाहिए (ह्रिया देयम्)। दान नहीं करेंगे तो परलोक में नहीं मिलेगा- इस भय से देना चाहिए अथवा भगवान् ने मुझे देने योग्य बनाया है, पर दूसरों को न देने पर भगवान् को क्या मुंह दिखाऊंगा- इस भय से देना चाहिए (भिया देयम्), प्रमाद से, भय से या उपेक्षापूर्वक न देकर ज्ञान पूर्वक, विधिपूर्वक, आदरपूर्वक एवं उदारता पूर्वक निःस्वार्थ भाव से देना चाहिए। (संविदा देयम्) चाहे जैसे भी हो, किंतु देना चाहिए। मानव जाति के लिए दान परमावश्यक है। दान के बिना मानव की उन्नति अवरुद्ध हो जाती है। इस प्रसंग में बृहदारण्यकोपनिषद् की एक कथा है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों की उन्नति अवरुद्ध हो गयी।

अतः वे सब पितामह प्रजापति ब्रह्माजी के पास गये और अपना दुःख दूर करने के लिए उनसे प्रार्थना करने लगे। प्रजापति ब्रह्मा ने तीनों को मात्र एक अक्षर का उपदेश दिया- 'द'। स्वर्ग में भोगों के बाहुल्य से भोग ही देवलोक का सुख माना गया है, अतः देवगण कभी वृद्ध न होकर सदा इन्द्रिय- भोग भोगने में लगे रहते हैं, उनकी इस अवस्था पर विचारकर प्रजापति ने देवताओं को 'द' के द्वारा दमन- इन्द्रिय दमन का उपदेश दिया। ब्रह्मा के इस उपदेश से देवगण अपने को कृतकृत्य मानकर उन्हें प्रणामकर वहां से चले गये। असुर स्वभाव से ही हिंसावृत्ति वाले होते हैं, क्रोध और हिंसा इनका नित्य का व्यापार है, अतएव प्रजापिता ने उन्हें इस दुष्कर्म से छुड़ाने के लिए- 'द' के द्वारा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। असुर गण ब्रह्मा की इस आज्ञा को शिरोधार्यकर वहां से चले गये। मनुष्य कर्मयोगी होने के कारण सदा लोभवश कर्म करने और धनोपार्जन में ही लगे रहते हैं। इसलिए प्रजापति ने लोभी मनुष्यों को 'द' के द्वारा उनके कल्याण के लिए दान करने का उपदेश दिया।

मनुष्यगण भी प्रजापति की आज्ञा को स्वीकार कर सफल मनोरथ होकर उन्हें प्रणामकर वहां से चले गये। अतः मानव को अपने अभ्युदय के लिए दान अवश्य देना चाहिए। 'विभवो दानशक्ति महतां तपसां फलम्' विभव और दान देने की सामर्थ्य अर्थात् मानसिक उदारता- ये दोनों महान् तप के ही फल हैं। विभव होना तो सामान्य बात है। यह तो कहीं भी हो सकता है, पर उस विभव को दूसरों के लिए देना- यह मनकी उदारता पर ही निर्भर करता है, यह दान-शक्ति तो जन्म-जन्मांतर के पुण्य से ही प्राप्त होती है। महाराज युधिष्ठर के समय की एक घटना है- उद्दालक नाम के एक ऋषि थे। अक्स्मात् उनके पिता का देहांत हो गया। मुनि ने अपने पिता की अन्त्येष्टि चंदन की लकड़ी की चितापर करने का विचार किया, पर चंदन की लकड़ी उनके पास तो थी नहीं, वे धर्मराज युधिष्ठर के पास पहुंचे और उनसे चंदन की लकड़ी की याचना की। धर्मराज के पास चंदन-काष्ठ की तो कमी नहीं थी, परंतु अनवरत वर्षा होने के कारण संपूर्ण काष्ठ भीग चुका था। गीली लकड़ी से दाह-संस्कार नहीं हो सकता था, अतः उन्हें वहां से निराश लौटना पड़ा।

इसके अनंतर वे इसी कार्य के निमित्त राजा कर्ण के पास पहुंचे। राजा कर्ण के पास भी ठीक वही परिस्थिति थी, अनवरत वर्षा के कारण संपूर्ण काष्ठ गीले हो चुके थे, परंतु मुनि को पितृदाह के लिए चंदन की सूखी लकड़ी की आवश्यकता थी। कर्ण ने तत्काल यह निर्णय लिया कि उनका राजसिंहासन चंदन की लकड़ी से बना हुआ है, जो एकदम सूखा है, अतः उन्होंने यह आदेश दिया कि चंदन से बने मेरे सिंहासन को तुरंत खोल दिया जाय तथा इसको काटकर चिता के लिए इसकी लकड़ी मुनि उद्दालक को दे दी जाय। इस प्रकार उन मुनि उद्दालक के पिता का दाह-संस्कार चंदन की चिता पर संभव हो सका। चंदन के काष्ठ का सिंहासन महाराज युधिष्ठिर के पास था, पर यह सामयिक ज्ञान- मौके की सूझ और मन की उदारता इस रूप में उन्हें प्राप्त न हुई, जिसके कारण वे इस दान से वंचित रह गये और यह श्रेय कर्ण को ही प्राप्त हो सका। इसीलिए कर्ण दानवीर कहलाये। दान के लिए स्थान, काल एवं पात्र का विचार भी अवश्य ही उसी प्रकार करना चाहिए जिस प्रकार विशेष बीजों को बोने के लिए किसान भूमि, ऋतु आदि का चयन करता है।

शास्त्रों में सात्त्विक, राजस, तामस दान के लक्षण बताए गये हैं जिनमें सात्त्विक दान सर्वश्रेष्ठ दान है। दान धर्म के चार विभाग हैं- नित्य दान, नैमित्तिक दान, काम्य दान तथा विमल दान- जिसमें प्रत्येक दान एक से बढ़कर एक है। विमल दान सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का दान है जिसमें कहा गया है कि भगवान् की प्रीति प्राप्त करने के लिए निष्काम भाव से, बिना किसी लौकिक स्वार्थ के, ब्रह्म ज्ञानी अथवा सत्पात्र को दिया जाने वाला दान विमल दान कहलाता है। देश-काल-पात्र को ध्यान में रखकर अथवा नित्यप्रति किया गया यह दान अत्यधिक कल्याणकारी होता है। सर्वश्रेष्ठ दान यही है।

दान के अनेक रूप हैं-

1.मधुर वचनों का दान,

2. प्रेम का दान,

3. आश्वासन दान,

4. आजीविका दान,

5. छायादान,

6. श्रमदान,

7. शरीर के अंगों का दान,

8. समय दान,

9. क्षमादान,

10. सम्मान दान,

11. विद्यादान,

12. पुण्य दान,

13. जपदान,

14. भक्ति दान

15, आशिष दान,

16. आश्रय दान,

17. भूमिदान,

18. स्वर्ण दान,

19. कन्यादान

20. आरोग्य दान.

21. वस्त्र दान

22. गृहदान,

23. तुलादान,

24. पिण्डदान

25. गोदान आदि-आदि।

दान देते समय देय वस्तु के देवता का ध्यान भी अवश्य रखना चाहिए। कुछ वस्तुओं के देवताओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है- जीवन अनित्य होने से तत्क्षण दान देना चाहिए। प्रतिज्ञा करके न देने से व दान का हरण कर लेने से जन्म भर का जो पुण्य संचित किया गया रहता है, वह सब नष्ट हो जाता है। रात्रि में दान करने से बचें, यह केवल सामान्य दान के लिए नियम है। उभयतोमुखी गौ का दान करते समय समय का विचार न करें। अपमान पूर्वक दान न करें। दान देकर चर्चा न करें। अपवित्र अवस्था में दान न करें। दान देते समय दाता का मुख पूर्व की ओर तथा दान ग्रहण करने वाले का मुख उत्तर में होना चाहिए। इससे दाता और प्रतिग्रहीता दोनों की आयु की वृद्धि होती है। दान में देने वाले को अपने नाम तथा गोत्र का उच्चारण करना चाहिए किंतु कन्यादान में पिता, पितामह, प्रपितामह- इस प्रकार तीन पीढ़ियों का नाम गोत्रोच्चार करना चाहिए। दान महत्ता में बड़ा ही मार्मिक रहस्य छिपा है।

वास्तव में प्रत्येक सत्कार्य दान है। यदि हम किसी को अपनी मुस्कराहट से आनंदित करते हैं तो ऐसा करना भी दान है। यदि हम अपने संगी-साथी को अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति को सत्कर्म की प्रेरणा देते हैं या उसके हित में सत्परामर्श देते हैं तो यह भी दान है। अतः दान से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। दान व्रत का जीवन में सभी को पालन करना चाहिए। दान के द्वारा प्राणी अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त होता हुआ मानव जीवन का कल्याण कर लेता है।



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