श्री शौनक जी ने सूतजी से पूछा - सर्वशक्तिमान् व्यास भगवान ने देवर्षि नारद जी के अभिप्राय को सुनकर व चले जाने पर क्या किया? श्री सूतजी ने कहा - ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर शम्याप्रास आश्रम के निकट चारांे ओर से घिरे हुए बेर के वनों से सुशोभित अपने आश्रम में व्यास जी ने बैठकर भक्ति योग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदिपुरूष परमात्मा में स्थिर कर पूर्णेश्वर भगवान् और उनके आश्रम में रहने वाली माया और उससे संबंधित अलौकिक शक्तियों व लीलाओं का दर्शन किया तथा जीव मात्र के कल्याणार्थ भक्तिरस में निमग्न करने वाली परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की। बिना विषाद प्रसाद प्राप्त नहीं होता, बिना भूख स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता तथा बिना श्रम नींद भी नहीं आती। कुरूक्षेत्र में अर्जुन का विषाद-भगवद्गीता, बाल्मीकि का विषाद बाल्मीकि रामायण, सिद्धार्थ गौतम का विषाद - त्यागपरक (धम्म पद) एवम् व्यासजी का विषाद - श्रीमद्भागवत महापुराण की दिव्य रचना का कारण बना। भागवत ग्रंथ के द्वादश स्कंध, परमात्मा श्री कृष्ण के एक-एक अंग के प्रतीक हैं। प्रथम स्कंध-दायां भाग, द्वितीय-बायां भाग, तृतीय-दायां चरण, चतुर्थ-बायां चरण, पंचम-दायीं जंघा, षष्ठ-बायीं जंघा, सप्तम-दायां हाथ, अष्टम-बायां हाथ, नवम-दायां वक्षस्थल, दशम-बायां वक्षस्थल, एकादश-मस्तक और द्वादश स्कंध- भगवान् श्रीकृष्ण का उठा हुआ हाथ अभय व वर मुद्रा का प्रतीक यानी संपूर्णता का द्योतक, समस्त मनोऽभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है।
इसी कारण व्यासजी ने इस भागवत - संहिता को निवृत्तिपरायण पुत्र श्रीशुकदेव जी को पढ़ाया। श्री शुकदेव जी तो अत्यंत निवृत्ति परायण हैं, अपनी आत्मा में ही सर्वदा रमण करते हैं, फिर भी भगवान् की हेतुरहित भक्ति करने वाले श्री शुकदेव जी की मन-बुद्धि-हृदय भगवान् के माधुर्यपूर्ण गुणों के कारण आकर्षित हो गए और विवश होकर इस विशाल ग्रंथ का अध्ययन किया। भागवत ग्रंथ का एक-एक श्लोक प्यारे श्रीकृष्ण का व श्लोक का अर्थ (भाव) प्यारी राधा का स्वरूप दर्शन कराने वाला है। श्रीसूतजी शौनकजी को राजर्षि परीक्षित के जन्म-कर्म आदि का वर्णन करने लगे। तब ऋषियों ने कहा कि भगवान््! हम तो श्रीकृष्ण की कथा सुनना चाहते हैं। आप परीक्षित को क्यों सुना रहे हैं। श्री सूतजी ने उत्तर दिया कि ‘‘कृष्ण कथो दयम्7 1/7/12 इसी में से कृष्ण की कथा निकलती है। बीज देखकर ज्ञान नहीं होगा कि इसमें से वृक्ष निकलेगा और बड़े-बड़े सुंदर फल निकलेंगे, परंतु यह सब बीज से ही निकलते हैं। तो, बात द्वापर युग की है जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों को बहुत से वीर वीरगति को प्राप्त हो गए थे और भीमसेन ने गदा के प्रहार से दुर्योधन की जांघ तोड दी थी, असहनीय पीड़ा व जीवन की अंतिम श्वांसों की ओर अग्रसर अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य मानकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किए।
यह घटना दुर्योधन को बड़ी ही अप्रिय लगी, क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निंदा ही करते हैं। द्रौपदी अपने कलेजे के टुकड़ों (पुत्रों) का निधन सुनकर करूण क्रन्दन करने लगी। द्रौपदी का विलाप केवल गुरु पुत्र अश्वत्थामा के कल्याण व मरे हुए पुत्रों (बच्चों) को भगवत्कृपा भगवदाभिमुख्य प्राप्ति का साधन मात्र था। द्रौपदी तो भगवान् के संयोग में खुश होती थी और भगवान् के वियोग में रोती थी। द्रौपदी के चरित्र से संसारी जीव को यह शिक्षा अवश्य ही अपने जीवन में ग्रहण कर लेनी चाहिए कि भगवान के संयोग में प्रसन्नता और वियोग में अप्रसन्नता का अनुभव हो, स्वजन संबंधी आदि के संयोग-वियोग से कोई प्रयोजन ही न हो। अश्रु प्रवाहित द्रौपदी के नेत्रों को देखकर अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा कि कल्याणि। मैं तुम्हारे आंसू तब पोछूंगा, जब उस आतातायी ब्राह्मणधाम को पकड़कर ले आऊंगा और सिर गांडीव धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूंगा।’’ तब अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्ण को सारथि बनाकर वीरोचित वेशभूषा धारण कर रथ पर सवार हो गुरुपुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े। प्राण रक्षार्थ अश्वत्थामा पृथ्वी पर जहां तक भाग सकता था, भागा।
रथ के घोड़े थक गए, भयभीत हो गया और यह जानकर कि मैं बिल्कुल अकेला हूं, तब उसने लौटाने का ज्ञान न होने पर भी ब्रह्मास्त्र का ही अर्जुन पर सन्धान कर दिया। सच्चिदानंदस्वरूप अनंतशक्ति संपन्न श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने भी स्पृष्टापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्मायं संदधे (1-7-29) आचमन और भगवान् की परिक्रमा करके ब्रह्मस्त्र के निवारण के लिए ब्रह्मास्त्र का ही संधान कर दिया। ब्राह्मणों के दिव्य तेज से चारों तरफ हाहाकार मच गया। लोकों व लोकों के जीवों का नाश होते देखकर भगवान की आज्ञा से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया। उन्होंने झपटकर क्रूर अश्वत्थामा को बलपूर्वक रस्सी से बांधकर शिविर की ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान् गोविंद ने कुपित होकर कहा - मैनं पार्थार्हसि श्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि। (1-7-35) अर्जुन ! ब्राह्मणधर्म को छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रात में सोये हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। तुमने इसे मारने की प्रतिज्ञा की है। अर्जुन ने भगवान के वचनों को स्वीकार नहीं किया और कहा- माधव ! यह ब्राह्मण है, हमारे गुरु का पुत्र है इसने हमारे बच्चों को मारा तो क्या हुआ, हम विवेक ज्ञान शून्य, रथहीन और भयभीत शत्रु को नहीं मारेंगे। इसके बाद श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन ने शिविर में पहुंचकर अपने मृत पुत्रों के शोक में निमग्न द्रौपदी को अश्वत्थामा को सौंप दिया। नीच मुख किए हुए अपमानित गुरु पुत्र अश्वत्थामा को देखकर कोमल हृदय वाली तथा प्रेम करूणा से परिपूर्ण द्रौपदी ने अश्वत्थामा को नमस्कार किया और अपने कष्ट की भांति अश्वत्थामा की माता पतिव्रता गौतमी के कष्ट का ध्यान कर कहा मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणों नितरां गुरुः ।
(1-7-43) ‘‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हम लोगों के अत्यंत पूजनीय हैं।’’ प्रौपदी की कपटरहित, धर्म और न्यास संगत वाणी को सुनकर भीमसेन को छोड़कर सभी ने समर्थन किया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने सभी की वाणी और प्रतिज्ञाओं को ध्यान में रखकर अर्जुन की ओर देखकर कुछ मुस्कुराते हुए से कहा- पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिए और आतातायी को मार ही डालना चाहिए।’’ सूतजी कहते हैं - अर्जुन भगवान् के हृदय की बात जान गए और अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली। हत्या के दोष से श्रीहीन तो पहले ही हो गया था अब मणि व ब्रह्मतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद रस्सी का बंधन खोलकर अश्वत्थामा को शिविर से बाहर निकाल दिया। पांडवों ने अपने मृत भाई बंधुओं को दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया संपन्न की व गंगातट पर मरे हुए स्वजनों का तर्पणादि कार्य किया। अज्ञात शत्रु महाराज युधिष्ठर सिंहासनारूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्ण ने तीन अश्वमेघ यज्ञ कराकर युधिष्ठिर के पवित्र यश को सौ यज्ञ करने वाले इंद्र के यश की तरह सर्वत्र फैला दिया। भगवान् श्रीकृष्ण पांडवों से विदा लेकर द्वारका जाने के लिए रथ पर सवार हो गए। तभी भय से विह्वल सामने से दौड़ी चली आ रही उत्तरा ने श्रीकृष्ण से कहा- पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते। नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम्। (1-8-9) देवाधिदेव जगीश्वर! आप महायोगी हैं।
आप मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला और कोई नहीं है। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही पांडवों के वंश को निर्वीज करने वाले अश्वत्थामा के द्वारा छोड़े गए ब्रह्मास्त्र का रहस्य जानकर सर्वसमर्थ सर्वाश्चर्यमय प्रभु ने निज अस्त्र सुदर्शन चक्र से अमोघ ब्रह्मास्त्र के तेज को शांत करते हुए उत्तरा के गर्भ की लीला करते हुए ही रक्षा कर दी। जब भगवान् श्रीकृष्ण पुनः द्वारका जाने लगे तभी कुंती ने अपने पुत्रों व द्रौपदी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का स्मरण व विभिन्न आपदाओं विपत्तियों से रक्षा के प्रसंग के स्मरण करते हुए स्तुति की और रथ के स्थान से श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर वापिस लौटा लायी। स्तुति करते समय कुंती ने बड़ी सुंदर, मार्मिक, हृदयग्राही बात कही- विपदः सन्तु नः शश्वन्तत्र तत्र जगत्दुरो। भवतो दर्शनं यत्स्याहपुनर्भवदर्शनम्।। (1-8-25) ‘हे जगद्गुरो। हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियां आती रहें, क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता।
वास्तव में मानव जीवन प्रभु भक्ति व प्रभु दर्शन के लिए ही है, भोग के लिए नहीं। भोग तो किसी भी योनि में प्राप्त हो सकता है, परंतु भगवद्भक्ति मानव योनि में ही प्राप्त होती है। भगवान् श्रीकृष्ण, व्यास आदि महर्षियों ने उनको शोकमुक्त करने के अनेक इतिहास कहे, परंतु फिर भी महाभारत युद्ध में सभी को मारे जाने का अपना ही कारण समझते हुए महाराज युधिष्ठिर का शोक शांत नहीं हुआ। वास्तविकता में तो श्रीकृष्ण के द्वारका न जाने का कारण उनका परमप्रिय भक्त भीष्म पितामह ही थे, उनका हृदय भक्तवर से मिलने को लालायित था, इसी कारण देवकीनंदन श्रीकृष्ण ने धर्मराज के हृदय में भीष्मजी के मिलन की उत्कंठा का भाव जागृत कर दिया। पांडव, श्रीकृष्ण, व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मणों से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर सभी धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु कुरूक्षेत्र में शरशय्या पर आनंद में निमग्न पड़े हुए भीष्म पितामह के पास दिव्य रथों पर सवार होकर पहुंच गए। सभी ने पितामह को प्रणाम किया।
उसी समय भरतवंशियों के गौरवपूर्ण भीष्म पितामह के दर्शन की अभिलाषा व ज्ञान प्राप्ति हेतु ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षि, मुनिगण आदि अपनी-अपनी प्रजाओं व शिष्यों सहित पधारे। पितामह ने उन बड़भागी ऋषियों का यथायोग्य सम्मान कर जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की। तब धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा पूछे गए निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप द्विविध धर्म, दान धर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म आदि का अलग-अलग वर्णन किया। द्रौपदी हंसने लगी और कहा दादा जी वस्त्र हरण के समय आपका यह ज्ञान कहां गया था? श्रीसुक्त जी कहने लगे बेटी उस समय मैंने दुर्योधन के दूषित अन्न का सेवन किया था अब मेरा मन निर्मल है। सूतजी शौकजी से कहते हैं कि विभिन्न धर्मों के वर्णन को श्रवण कर युधिष्ठिर मृतक परिजनों आदि के शोक से मुक्त हो गए। तब भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में अपने आप को लीन करते हुए भगवान् की सुंदर स्तुति इस प्रकार की- इति मतिरूपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुंडवे। विभूमि।
स्वसुखमुपगते ववाचिद्विहर्तु प्रकृतिमुपेयुपि यद्वप्रवाहः (1-9-32) प्रभो मृत्यु के समय में यह अपनी बुद्धि जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यंत शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश शिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूं। मानो इस भाव को व्यक्त करते हुए पितामह गोविंद से कहना चाहते हैं कि माधव मेरे जीवन की अंतिम इच्छा है कि मेरी सुपुत्री का विवाह आप जैसे त्रिभुवन-सुंदर एवं श्याम तमाल के समान सांवले वर्ण से युक्त, करोड़ों कामदेव की छवि को भी धूमिल करने वाले आप से संपन्न हो जावे। भगवान श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कुराते हुए- से कहने लगे-पितामह ! आप आजीवन ब्रह्मचारी रहे, फिर यह कन्या का संयोग कैसे बन गया? क्या आपने संसार के समक्ष कुछ कहा और छुपकर पाणि ग्रहण संस्कार कर, कन्या रत्न को जन्म दिया। भीष्म पितामह बोले- गोविंद ! आप सबके आत्मा हो, सब कुछ जानते हुए भी अनजान बन रहे हो। मेरी तो एक ही कन्या है- ‘‘बुद्धि रूपी’’। इस कन्या का संबंध स्वीकार कर लो। मैंने इस कन्या को संसार के लोगों की दृष्टि से आजतक सुरक्षित रखा है, यह कन्या सर्वगुण संपन्न है केवल भक्ति तत्व में ही रमण करने वाली है। देवत्व का सम्मान करती है। इसी कारण यह आपके दिव्य गुणों पर रीझ गयी है और संबंध की प्रगाढ़ता का भाव मेरी वाणी के द्वारा व्यक्त कर रही है। श्यामसुंदर ने पितामह की कन्या का वरण कर लिया। भीष्मजी आश्वस्त हो गए।
पांचों कर्मेन्द्रियों, पांचो ज्ञानेन्द्रियों, ग्यारहवां मन, बुद्धि तथा अंतःकरण चतुष्टाय प्रवृत्ति को भगवान, श्रीकृष्ण के स्वरूप में स्थित कर दिया। श्रीकृष्ण के मधुरातिमधुर मुखारविन्द के दर्शनों का लाभ प्राप्त करते हुए भीष्म ने अपने प्राणों को वहीं विलीन कर दिया और और उनके शरीर का दिव्य तेज भगवान् माधव के विग्रह में समाहित हो गया। इस शुभ अवसर पर देवता व मनुष्य नगाड़े बजाने लगे, आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी तथा सभी अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। धर्मराज श्रीकृष्ण के साथ हस्तिनापुर आए तथा चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को धीरज बंधाया और भगवान वासुदेव की आज्ञा से वंश परंपरागत साम्राज्य पर धर्मपूर्वक शासन करने लगे।