शनिवार व्रत शनिवार व्रत किसी भी शनिवार से प्रारंभ किया जा सकता है। मानव अपने कल्याण के लिए समय का चिंतन न कर शुभता व मंगल हेतु व्रत का पालन करें। शनिवार का व्रत शनि, राहु और केतु ग्रहों की कोप-शांति के लिए किया जाता है। महर्षि याज्ञवक्ल्य ने इन तीनों ग्रहों के स्वरूपों का वर्णन करते हुए ऐसी सम्मति प्रदान की है। शनि व्रत का पालन करने वाले व्यापार वृद्धि, धन, सुख-शांति समृद्धि को तो प्राप्त होते ही हैं, अपितु उनके जीवन में शनि देव की कृपा से मान प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी पुरुषार्थ भी सहजता से सिद्ध हो जाते हैं। शनिवार का व्रत आम जीवन में विशेषतः शनि की साढ़ेसाती, शनि की ढैय्या, शनि की महादशा-अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा से ग्रसित जातक ही करते हैं, परंतु ऐसा बहुत विद्वानों का मानना है कि शनि व्रत सभी को करना चाहिए। श्री शनि देव अपने विशिष्ट गुणों के कारण नवग्रहों में सर्वाधिक चर्चित है। पुराणों के अनुसार शनि भगवान सूर्य के पुत्र हैं।
छाया (सवर्ण) इनकी माता हैं। भारतीय ज्योतिष में शनि को क्रूर ग्रह माना गया है। इनकी दृष्टी में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। इस संदर्भ में ब्रह्मवैवर्तपुराण में कथा इस प्रकार है, 'बचपन' से ही शनिदेव अत्यंत धार्मिक होने के कारण सांसारिक विषयों से सदा दूर रहते थे। व्यस्क होने पर इनकी इच्छा न होने पर भी इनका विवाह कर दिया गया। पत्नी परम सुंदरी, पतिव्रता एवं तेजस्विनी थी। परंतु शनिदेव उनकी ओर कभी आंख उठाकर भी नहीं देखते थे। एक रात जब पत्नी शृंगार करके उनके निकट पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा से आई तब भी शनिदेव ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया तथा वह ईश्वर के चिंतन में निमग्न रहे। अपनी उपेक्षा से क्रुद्ध होकर साध्वी ने पति शनिदेव को शाप दे दिया- 'आप जिस पर भी दृष्टि डालोगे वह नष्ट हो जाएगा' सती का शाप अमोघ होता है।
उसके प्रतिकार की शक्ति किसी में भी नहीं है। इसी से शनि की दृष्टि संहारक बन गई। शास्त्रीय विचारधारा से 'शनि' के अधिदेवता उनके भाई 'यमराज' तथा प्रत्यधिदेवता 'प्रजापति' हैं। लेकिन ज्योतिष के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'लाल किताब' ने भैरव जी को शनि का देवता माना है। कलियुग के नियंत्रक ग्रह होने के कारण आज शनिदेव का स्वतंत्र रूप से पूजन प्रचलित हो गया है। शनि-मंदिरों का निरंतर निर्माण होने से उन्होंने नवग्रहों की सीमा लांघकर जनास्था में संपूर्ण देवत्व ग्रहण कर लिया है। आध्यात्मिक ज्योतिष में शनि को पूर्वजन्म के संचित कर्मों का अधिष्ठाता बताया गया है।
शनि की साढ़ेसाती, ढैय्या अथवा शनि की दशा में हमें पिछले दुष्कर्मों का ही दंड प्राप्त होता है। जिस प्रकार आग में तप कर सोना कुंदन हो जाता है उसी प्रकार शनि बलपूर्वक प्रायश्चित करवा के जीवात्मा को शुद्ध कर देता है। भौतिक दृष्टि में शनि भले ही अतिक्रूर दिखाई पड़े परंतु सच्चे अर्थों में वह हमारी अग्नि-परीक्षा लेकर हमें ईश्वर के समीप ले जाते हैं। सही मायनों में शनि ईश्वरीय शासन के 'दंडाधिकारी' हैं।
नित्य प्रातः ध्यानपूर्वक शनि स्तोत्र का पाठ करने से शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या में शनिकृत पीड़ा शांत हो जाती है। शनिवार के दिन पीपल के पेड़ की जड़ को सींचकर उसके नीचे दीप-दान करने के बाद वृक्ष की सात परिक्रमा करने से भी शनि की बाधा दूर होती है। काले घोड़े की नाल अथवा नाव की कील से बने छल्ले को दाहिने हाथ की मध्यमा में धारण करना हितकारी सिद्ध होता है।
शनि की उपासना-शनि मंत्र के जप से शनि की प्रतिकूल स्थिति में प्रकोप का शमन होने के साथ-साथ सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है अतः शनि की प्रसन्नता के लिए उनके निम्न मंत्र का जप करना शीघ्र फलदायक सिद्ध होगा -क्क ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय नमः । कलियुग से पूर्व मात्र 23000 जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता था परंतु कलियुग में पाप का बल धर्म से चार गुना अधिक होने के कारण उपर्युक्त संखया के चार गुना 92000 जप करने के उपरांत ही मंत्र का शास्त्रोक्त फल प्राप्त होगा। जप के बाद दशांश हवन - दशांश तर्पण - दशांश मार्जन एवं दशांश ब्रह्मण भोजन भी अवश्य करायें। जप रुद्राक्ष की माला पर करना उचित रहेगा।
हवन शमी के समिधा से करें। शनि की शांति हेतु नीलम, लोहा, तेल, उड़द, काला कपड़ा, कुलथी, काली गाय, भैंस, खड़ाऊं (चरणपादुका), काला तिल, सुरमा नीले रंग के पुष्प, कस्तूरी और स्वर्ण आदि के दान का शास्त्रीय विधान है। आप अपनी सामर्थ्य एवं सुविधा के अनुसार वस्तुओं का दान शनिवार को कर सकते हैं। ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी में किसी निर्धन के नंगे पैरों में चप्पल अथवा जूता पहनाना बहुत अच्छा फल देगा। शनि के प्रतिनिधि सेवक (नौकर) का ध्यान रखें। शनि के वाहन कौए को नित्य भोजन से पूर्व ग्रास देने से बड़ी राहत मिलती है।
शनिवार को कड़वे तेल से भरे लोहे के पात्र में अपनी प्रतिबिंब देखकर उसका दान देने से शनिकृत अरिष्ट का निवारण होता है। शनिवार को लोहे का तवा और चिमटा दान करने से भी शनि के कारण हो रहा कष्ट कम हो जाता है। शनि से पीड़ित व्यक्ति शराब बिल्कुल न पीए, अन्यथा कोई भी उपाय फलीभूत नहीं होगा। शनि वायु तत्व का स्वामी है। इसकी विपरीत स्थिति से अहंकार उदित हो जाता है जो कि बाद में विनाश का कारण बन जाता है। प्रतिकूल शनि क्रोधावेश के कारण कलह-कलेश उत्पन्न करता है, अतः व्यक्ति को धैर्य, संयम और विवेक से काम लेना चाहिए। शनि के अशुभ होने पर जल्दबाजी में किए गए फैसले गलत साबित होते हैं। इसलिए उत्तेजना में निर्णय लेने से बचें।
जोखिम लेने पर लाभ के स्थान पर हानि ही हाथ लगती है। वस्तुतः शनि हमारे दुष्कर्मों के लिए ही दंडित करते हैं। शनि की साढ़ेसाती, ढैय्या आदि प्रतिकूल दशा में अपने संचित कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। वे निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह हमें गलत कामों के लिए ही सजा देते हैं। इस प्रकार शनि प्राणियों को सत्कर्म करने हेतु प्रेरित करते हैं। उनकी अदालत में सदैव इंसाफ होता है। जिस शनिवार से व्रत प्रारंभ करना हो, उस दिन दैनिक कृत्यों को पूर्ण कर शास्त्रोक्त विधि से शनि व्रत के पालन हेतु संकल्प अवश्य करें। संकल्प ही सिद्धियों का मूल है।
शनिदेव के पूजन से पूर्व गणेश गौर्यादि देव पूजनोपरांत शनि देव का पूजन करने से उत्तम लाभ की प्राप्ति होती है। इसदिन शनि के स्तोत्र, शनि चरित्र एवं कथा आदि का श्रवण करें। व्रतकथा : एक समय सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु आदि ग्रहों में परस्पर विवाद हो गया- कि हम सब में बड़ा कौन है? सभी ग्रह अपने आपको बड़ा कहने लगे। देवराज इंद्र ग्रहों का यह प्रश्न सुनकर भयभीत हो गए तथा कहने लगे कि मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि मैं किसी को छोटा बतला सकूं। इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य हैं, वे सबकी समस्याओं का समाधान अत्यंत बुद्धिमानी से करते हैं।
अतः आप सभी उनके पास जाएं। सभी ग्रह देवता स्वर्ग लोक से चलकर विक्रमादित्य की सभा में पहुंचे तथा अपना प्रश्न राजा के सामने रखा। विवाद निपटाने के लिए राजा विक्रमादित्य ने एक उपाय सोचा। राजा ने सोना, चांदी, कांसा, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक तथा लोहा नौ धातुओं के नौ आसन बनवाए तथा सभी आसनों को उनके मूल्य के अनुसार विछाया गया। इसके पश्चात् राजा ने नवग्रहों से कहा कि आप सब अपना-अपना आसन ग्रहण करें। जिसका आसन सबसे आगे वह सबसे बड़ा तथा जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिए। लोहा का आसन सबसे पीछे था जो शनिदेव का आसन था इसलिए शनिदेव ने सोचा कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है।
राजा के इस निर्णय पर शनिदेव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने कहा कि राजा तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता। सूर्य एक राशि पर एक महीना, चंदमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना। बुध और शुक्र एक मास के लगभग बृहस्पति तेरह महीने विचरण करते हैं परंतु मैं एक राशि पर ढाई वर्ष तथा तीन राशियों पर लगातार साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुख दिया है। सुनो राजन्- रामचंद्र जी को साढ़ेसाती आई तो उन्हें बनवास हो गया। रावण पर आई तो राम ने वानरों सहित उसकी लंका पर चढ़ाई कर उसके कुल का सर्वनाश कर दिया। हे राजन् ! तुमने मुझे अपमानित किया है।
अतः अब तुम सावधान रहना। राजा विक्रमादित्य ने कहा - जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा। ऐसा सुनकर सभी ग्रह अपने-अपने स्थान को चले गए। कुछ काल व्यतीत होने पर जब विक्रमादित्य पर साढ़े साती आई तो शनिदेव घोड़ों के सौदागर बनकर सुंदर घोड़ों के साथ राजा विक्रमादित्य की राजधानी में आए। जब राजा ने घोड़ों के सौदागर के आने की खबर सुनी तो उन्होंने अपने अश्वपाल को अच्छी-अच्छी नस्ल के घोड़े खरीदने की सलाह दी। अश्वपाल इतने अच्छे धोड़े देखकर तथा उनका मूल्य सुनकर चकित हो गया तथा तुरंत ही राजा को सूचना दी। राजा विक्रमादित्य ने उन घोड़ों को देखा तथा उन घोड़ों में से एक अच्छी नस्ल के घोड़े को चुनकर सवारी के लिए उस पर चढ़े। राजा के पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा तेजी से भागा। घोड़ा बहुत दूर तक घने जंगल में जाकर राजा को छोड़कर अंतर्ध्यान हो गया।
इसके पश्चात राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में भटकते रहे। भूख प्यास से व्याकुल राजा ने एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को पानी पिलाया। राजा ने प्रसन्न होकर अपनी अंगुली से एक अंगूठी निकालकर ग्वाले को दी तथा स्वयं शहर की ओर चल दिये। राजा शहर में जाकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गए तथा उन्होंने उसे अपना नाम वीका बताया। सेठ ने उसे एक कुलीन व्यक्ति समझकर जलादि पिलाया, भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बहुत बिक्री हुई। सेठ उसे भाग्यवान पुरुष समझकर अपने घर भोजन के लिए ले गया। भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्यजनक घटना देखी, जिस खूंटी पर हार लटक रहा था वह खूंटी हार को निगल रही थी।
भोजन के पश्चात् जब सेठ कमरे में आया तो उसे खूंटी पर हार नहीं मिला। उसने सोचा कि वीका के अतिरिक्त कमरे में कोई नहीं आया अतः उसने ही हार चोरी किया है। परंतु वीका ने हार की चोरी से मना कर दिया। तब कुछ व्यक्ति उसे पकड़ कर नगर फौजदार के पास ले गए। फौजदार ने उसे राजा के सामने उपस्थित किया तथा कहा कि यह व्यक्ति भला प्रतीत होता है किंतु सेठ इस पर चोरी का आरोप लगा रहा है। राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ-पैर कटवाकर चौरंगिया किया जाए। राजा की आज्ञा का तुरंत पालन हुआ तथा वीका के हाथ पैर काट दिये गए।
कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली ने राजा को देखा तथा दयावश वह उसे अपने घर ले गया। तेली ने उसे कोल्हू पर बैठा दिया। वीका उस पर बैठा हुआ अपनी जबान से बैलों को हांकता रहता था। इस काल में राजा की शनि की दशा समाप्त हो गई। वर्षा ऋतु के समय चौरंगिया राजा विक्रमादित्य मल्हार राग गाने लगा। यह राग सुनकर शहर के राजा की प्रिय पुत्री मन भावनी उसकी वाणी पर मुग्ध हो गई। राजकन्या ने अपनी दासी से मल्हार राग गाने वाले की खबर लाने के लिए भेज दिया।
दासी सारे शहर में घूमती रही। जब वह तेली के घर के पक्ष से निकली तो उसने देखा कि राजा चौरंगिया मल्हार राग गा रहा है। दासी ने लौटकर राजकुमारी को सब वृतान्त कह सुनाया। उसी समय राजकुमारी मनभावनी ने अपने मन में यह प्रण कर लिया कि चाहे कुछ भी हो मैं इसी चौरंगिया के साथ विवाह करूंगी। प्रातःकाल होते ही दासी ने जब राजकुमारी मनभावनी को जगाया तो वह अनशन व्रत लेकर बिस्तर पर पड़ी रही। राजकुमारी की अनशन की बात दासी ने जाकर रानी को बताई। रानी ऐसा सुनकर राजकुमारी के पास आई और पुत्री से कारण पूछा। राजकुमारी बोली -माता मैंने यह प्रण लिया है
कि तेली के घर जो चौरंगिया है मैं उससे विवाह करूंगी। माता ने सुनकर आश्चर्य व्यक्त किया और कहा कि क्या तू पागल हुई है? तेरा विवाह तो किसी बड़े राजा से होगा। राजकुमारी बोली- हे माता! यह मेरा अटल प्रण है जिसे मैं नहीं तोडूंगी। चिंतित हो रानी ने यह बात राजा को बताई। राजा ने पुत्री को समझाया- हे पुत्री ! ये कैसी जिद है तुम्हारी? तुम्हारा विवाह तो किसी बड़े राजा से होगा। तुम्हें ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिए। परंतु राजकुमारी भी अपने प्रण पर अडिग थी। उसने कहा-पिताजी प्राण दे सकती हूं पर अपना प्रण नहीं तोड़ सकती। यह सुनकर राजा ने कहा- यदि तेरे भाग्य में ऐसा लिखा है तो यही सही । राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर जो चौरंगिया रहता है मैं अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करूंगा।
तेली ने आश्चर्य से कहा-महाराज आप ये क्या कह रहे हैं?
कहां राजकुमारी और कहां एक चौरंगिया। राजा ने कहा- ये सब भाग्य का खेल है। तुम जाकर विवाह की तैयारियां करो। राजा ने शुभ मुहूर्त देखकर राजकुमारी का विवाह चौरंगिया के साथ कर दिया। रात को जब विक्रमादित्य महल में सो रहे थे तो शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- हे राजा ! मुझे छोटा बतलाकर तुमने कितने कष्ट उठाए। राजा ने शनिदेव से कहा प्रभु मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर दो। शनिदेव राजा से प्रसन्न हो गए तथा उन्होंने राजा को क्षमा कर दिया और राजा को उसके हाथ -पैर वापिस कर दिए। तब राजा ने हाथ जोड़कर शनिदेव से विनय की - हे शनिदेव ! मेरी आपसे विनती है
कि आपने जैसे कष्ट मुझे दिए ऐसे किसी को कभी नहीं देना। शनिदेव ने प्रसन्न होकर कहा- राजन्! तुम्हारी विनती मुझे स्वीकार है। जो व्यक्ति नित्य प्रति मेरा ध्यान करेगा। मेरी कथा सुनेगा, कहेगा उसे मेरी दशा में कभी कोई दुख नहीं होगा तथा जो भी मनुष्य प्रतिदिन मेरा ध्यान कर चीटियों को आटा डालेगा उसके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। प्रातःकाल जब राजकुमारी मनभावनी की आंख खुली तो उसने चौरंगिया को हाथ-पैर सहित देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने विक्रमादित्य को जगाया और इसका कारण पूछा। तब राजा ने सारा वृतांत राजकुमारी को कह सुनाया। यह सुनकर राजकुमारी अति प्रसन्न हुई। प्रातः काल मनभावनी की सखियों ने पिछली रात्रि का हाल-चाल पूछा तो उसने रात्रि की घटना का तथा उसके हाथ-पैर सही हो जाने का सारा वृतांत कह सुनाया। जब उस सेठ को यह घटना पता चली तो वह विक्रमादित्य के पास आया और उसने राजा से क्षमा मांगी और कहा- हे महाराज ! मैंने आप पर चोरी का झूठा आरोप लगाया। मुझे क्षमा कर दीजिये।
राजा ने कहा-यह सब मेरे भाग्य तथा शनिदेव जी के कोप के कारण हुआ, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था। तब सेठ ने कहा- हे महाराज् ! यदि आपने वास्तव में मुझे क्षमा कर दिया है तो फिर मेरे घर चलकर भोजन ग्रहण करें, तभी मुझे शांति प्राप्त होगी। राजा ने कहा-जैसा आप उचित समझें। व्यंजन बनवाए और जब राजा विक्रमादित्य को आमंत्रित किया। जब राजा तथा राजकुमारी भोजन कर रहे थे, तो सबने एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी। जो खूंटी पहले हार निगल चुकी थी वही खूंटी हार उगल रही थी। भोजन की समाप्ति पर सेठ ने हाथ जोड़कर राजा से कहा-महाराज मेरी श्रीकंवरी नाम की एक कन्या है।
आप उसे पत्नी के रूप में वरण करें। राजा विक्रमादित्य ने सेठ की बात स्वीकार कर ली और सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा से कर दिया और बहुत सी भेंट राजा को दी, इस प्रकार आनंदपूर्वक कुछ समय तक सेठ के राज्य में रहने के पश्चात राजा विक्रमादित्य ने अपने श्वसुर राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। कुछ दिन बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या श्रीकंवरी तथा दोनों जगह से दहेज में प्राप्त अनेक दास-दासी, रथ और पालकियों सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चल पड़े। जब वे शहर के निकट पहुंचे और उज्जैनवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो उज्जैन की प्रजा आगवानी के लिए आई। प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे। सारे नगर में भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने अपने पूरे राज्य में घोषणा करवाई कि शनि देवता सब ग्रहों में सर्वोपरि हैं।
मैंने इनको छोटा बतलाया इसी से मुझको यह दुख प्राप्त हुआ। इस प्रकार सारे राज्य में सदा शनिदेव की पूजा और कथा होने लगी। राजा और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही। जो कोई शनिदेव की इस कथा को पढ़ता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुख दूर हो जाते हैं। व्रत करने वाले को शनिदेव की कथा को अवश्य पढ़ना चाहिए।