शनि पर जल है, जीवन नहीं पं. सुनील जोषी जुन्नरकर ज्योतिष विज्ञान में शनि ग्रह सबसे अधिक चर्चित एवं विवादित ग्रह माना जाता है। सौरमंडल में गुरु के बाद शनि ग्रह स्थित है जो पूर्णतः गोल न होकर चपटा है।
सूर्य पुत्र शनि की ऊर्जा उसके घटक द्रव्यों को ऊर्जा देने के लिए काफी है। ऐसी स्थिति में यह निस्तेज होकर भी तेजस्वी है। प्रस्तुत लेख में शनि ग्रह की खगोलीय विवेचना की गयी है। जो पाठकों की जिज्ञासा शांत करने के साथ ही उनकी भ्रांतियां दूर करने में भी सक्षम है। सिंधिया रियासत के प्रथम पंचांगकर्ता और राजज्योतिषी थे। सन 1892 में उन्होंने उज्जैन वेध् ाषाला के प्रधान आचार्य का कार्यभार संभाला। (वेधषाला वह होती है जहां ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन एवं अनुसंधान किया जाता है। उज्जैन, ग्वालियर, विदिषा में उस समय सिंधिया राजवंष का ही शासन था।
श्री गणेष दैवज्ञ जुन्नरकर हमारे पूर्वज होने के कारण उनका ज्योतिषीय और खगोलीय ज्ञान हमें वंष परंपरा से प्राप्त हुआ है। मैं उनकी छठवीं पीढ़ी का सदस्य हूं। शनि के संबंध में प्रस्तुत खगोलीय जानकारी उन्हीं के ज्ञान का प्रकाष है। सौरमंडल में गुरु के बाद शनि ग्रह स्थित है, जो भूमि के एक तारे के समान दिखाई देता है।
परंतु उसका रंग काला सा है। शनि के पूर्व-पष्चिम व्यास की अपेक्षा दक्षिणोत्तर व्यास लगभग 12,000 कि.मी. कम है। अर्थात् शनि पूर्णतः गोल न होकर चपटा है। इसके समान चपटा अन्य कोई ग्रह नहीं है। शनि के ंिपड का व्यास 120000 कि.मी. से भी ज्यादा है। जो पृथ्वी के व्यास से 9 गुना अधिक है, इसका पृष्ठ भाग पृथ्वी की अपेक्षा 81 गुना अधिक है और आकार 700 गुना अधिक है, परंतु इसके आकार के हिसाब से वहां द्रव्य नहीं है।
शनि का प्राकृतिक वातावरण: शनि का घनत्व सभी ग्रहों से कम है, वह पृथ्वी के घनत्व का सातवां हिस्सा है। शनि पर द्रव्य पदार्थ पृथ्वी के पानी से भी पतला है क्योंकि वहां उष्णता अधिक है। इस कारण वहां भाप उठती है। उसका वातावरण वायु रूप अवस्था होने के कारण प्रवाही है। शनि का वातावरण प्राणियों के अनुकूल नहीं है, इसलिए शनि पर जीवन का प्रादुर्भाव नहीं हो सका है।
शनि के पृष्ठ भाग पर नाना प्रकार के रंग चमकते हैं, ध्रुव की ओर नीला, अन्य भाग में पीला और मध्य भाग में सफेद रेत का पट्टा तथा बीच-बीच में चमत्कारी बिंदु दिखाई देते हैं। शनि ग्रह पृथ्वी से बिल्कुल भिन्न है, शनि के घटक द्रव्यों का निरालापन उसके वातावरण की जबरदस्त अभ्रे हैं। धूल के कणों और गैस से बनी हुई अभ्रों से शनि का वातावरण व्याप्त है। इन अपारदर्षी अभ्रों के कारण ही उसके स्वयं का जो थोड़ा सा प्रकाष है वह बाहर नहीं आ पाता है इसलिये वह निस्तेज दिखाई देता है।
सूर्य पुत्र शनि: शनि अपने पिता सूर्य से 140 करोड़, 80 लाख कि.मी. दूरी पर स्थित है। इस अत्यधिक दूरी के कारण ही सूर्य का बहुत कम प्रकाष शनि तक पहुंच पाता है। इसलिये वहां अंधेरा ही रहता है। पृथ्वी के चंद्रमा को जितना सूर्य का प्रकाष मिलता है उसकी तुलना में शनि को 90वां हिस्सा ही मिल पाता है।
शनि के 7 चंद्रमा प्रकाषित होने के बावजूद भी पृथ्वी के चंद्रमा से जो प्रकाष हमें मिलता है उसकी तुलना में 16वां भाग ही शनि को उसके चंद्रमाओं से मिल पाता है। इन कारणों से वहां ज्यादातर अंधेरा ही छाया रहता है। शनि की उष्णता उसके घटक द्रव्यों को ऊर्जा देने के लिये काफी है। ऐसी स्थिति में वह निस्तेज होकर भी तेजस्वी है।
शनि केलेण्डर: पृथ्वी के एक सौर मास के बराबर शनि का एक दिन होता है, पृथ्वी के ढाई (2.6) वर्ष के बराबर शनि का एक सौर मास होता है, इतने समय तक शनि एक राषि में भ्रमण करता है। इस दौरान वह कई बार वक्री और मार्गी हो जाता है, इस कारण उसका प्रभाव पिछली और अगली राषियों में भी बराबर बना रहता है। पृथ्वी के साढ़े 29 वर्षों के बराबर शनि का एक सौर वर्ष होता है।
इतने ही वर्षों में शनि सूर्य की सिर्फ एक परिक्रमा पूर्ण कर पाता है। इसकी मंद गति के कारण ही शास्त्रों में इसे ‘मंदसौरी’ कहा गया है। धीरे-धीरे चलने के कारण इसे ‘षनैष्चर’ कहते हैं। शनि की वलय: शनि के पृष्ठ भाग के चारों ओर 16000 कि.मी. का स्थान खाली है शनि के भव्य पिंड के चारों ओर दो छल्ले(घेरे) दिखाई देते हैं। इसे शनि की वलय कहा जाता है, इसे शनि महाराज का रक्षा कवच कहें तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी। इस दोहरी वलय के कारण ही शनि की आकृति पार्थिव षिवलिंग की भांति दिखाई देती है।
यह वलय शनि के विषुव वृत्त के चारों ओर पूर्व पष्चिम में फैली हुई है। शनि की कक्षा अपने विषुव वृत्त से 27 अंष का कोण बनाती है। शनि के विषुव वृत्त पर सूर्य साढ़े 29 वर्ष में दो बार आता है, जब शनि उत्तरी गोलार्द्ध में होता है तब वलय का दक्षिणी भाग और दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है तो वलय का उत्तरी पृष्ठ भाग दिखाई देता है। कृष्ण पक्ष की अंधेरी रात में ही इसे देख पाना संभव है। आंतरिक वलय का व्यास 2,33,000 कि.मी. तथा बाहरी वलय का व्यास 2,81,000 कि.मी. है, इसके बाहर की कला के मध्य बिंदु से 1,33,000 किमी. दूरी पर है।
कैसिनी द्वारा भेजी गई तस्वीरों का अध्ययन करके जेट प्रोपल्षन लेब के प्रमुख डोनाल्ड शेमानस्की ने कहा है कि शनि के वलयों का क्षरण हो रहा है और अगले 10 अरब वर्षों में वलयों का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। ग्रहों की ज्योतिषीय गणना के आधार पर हम कह सकते हैं कि दो अरब चैंतीस करोड़ वर्ष बाद शनि की वलयों के साथ-साथ शनि और संपूर्ण ब्रह्मांड का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांड शून्य में विलीन हो जाएगा। धर्म शास्त्रों में इसे जगत का परमात्मा में लय कहा गया है। प्राचीन भारतीय खगोलविदों के अनुसार शनि की वलय चक्र बढते-बढ़ते शनि की पृष्ठ भाग के चारों ओर फैलती जा रही है। अर्थात शनि पिंड और आंतरिक वलय के बीच 16,000 कि.मी. की दूरी का जो खाली स्थान है, वहां शनि के वलय चक्र बढ रहे हैं। 60 नहीं 8 चंद्रमा: शनि के 8 उपग्रह हैं। जो उसके चारों ओर घूमते हैं।
इनमें से 7 उपग्रहों की कक्षा वलयांतर्गत ही है। इन 7 प्रकाषित चंद्रों के कारण ही शनि को सप्तम नेत्रों वाला गहा गया है। ये उपग्रह ही उसके चंद्रमा है। शनि के अंदर का चंदमा शनि से मात्र 1,92,000 कि.मी. की दूरी पर है जबकि पृथ्वी का चंद्रमा पृथ्वी से इसकी अपेक्षा दोगुनी दूरी पर स्थित है। वलय पर स्थित 7 चंद्रमाओं में से एक चंद्रमा बुध से भी बड़ा है। हो सकता है कि वह मंगल के बराबर हो।
वैज्ञानिकों ने इसका नाम ‘टाइटन’ रख दिया है। करोड़ों वर्षों की अवधि में शनि के इन चंद्रमाओं के योग से ही वलय बन गई है। ये चंद्रमा परस्पर निकट होने से अलग-अलग दृष्यमान नहीं होते। वैसे प्रत्येक चंद्रमा स्वतंत्र रूप से शनि के चारों ओर घूमते हैं। शनि के चारों ओर वलय में चमकते हुए चंद्रमा ऐसे लगते हैं, जैसे मानों शनि महाराज ने अपने कंठ में चमकते हुए सफेद मोतियों का हार पहन लिया हो।
यह चंद्र हार ही उन्हें सभी ग्रहों से अनूठा बनाता है। शनि के चंद्रमा पृथ्वी से अधिक दूरी पर होने के कारण बारीक तारे के समान नजर आते हैं। इन चंद्रों की कक्षा के मध्य 28 अंष का कोण है, इस कारण ग्रहण आदि कदाचित ही होते हैं। शनि ग्रह की परिस्थिति प्राणियों के रहने योग्य नहीं है, किंतु शनि के चंद्रमाओं पर किसी भी प्रकार के सूक्ष्म जीवों का वास है और शनि उनका पोषण करने में समर्थ है।
शनि के चंद्रों का प्राकृतिक वातावरण सूखा व ठंडा है तथा जीवन के अनुकूल है। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की पहले मान्यता थी कि शनि के 42 चंद्रमा हैं किंतु आजकल वैज्ञानिक कह रहे हैं, कि शनि पर 60 चंद्रमा है। इस बयान से चंद्र के संबंध में वैज्ञानिकों की अनिष्चितता जाहिर होती है। जबकि भारतीय खगोलविदों ने शनि के सिर्फ 8 चंद्रमा बताये थे। किसी भी ग्रह के चंद्रमा न तो नष्ट होते हैं और न ही बढ़ते हैं, यदि ऐसा संभव होता तो पृथ्वी के भी एक दो चंद्रमा और भी उत्पन्न हो चुके होते। 8 और 60 में 52 चंद्रमाओं का अंतर है, यह अंतर बहुत बड़ा है।
हमारे निष्कर्ष के अनुसार यह बाकी तेईस शनि के चंद्रमा नहीं बल्कि कोई खंडग्रह या क्षु्रद्रग्रह होंगे, जिन्हें वैज्ञानिक भ्रमवष शनि ग्रह के चंद्रमा मान बैठे हैं। अभी महीने पहले जब शनि पृथ्वी के करीब आया था। उस समय उसके सिर्फ 4 चंद्रमा ही देखे गए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि बाकि 4 चंद्रमा शनि पिंड के पीछे होने के कारण हमें दिखाई नहीं दिए। अतः यह सिद्ध हुआ कि शनि के 8 ही चंद्रमा है।