संस्कार व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी स्कार व्रत भारतीय संस्कृति ही क्या वरन् संपूर्ण संस्कृतियों का व विश्व के प्रत्येक मानव के लिए एक उत्कृष्ट व सर्वोच्च साधनों से संपन्न व्रत है। आचार-विचार की प्रेरणा देने वाले, यथोचित मार्गदर्शन करने वाले तथा कर्म संपादन की मर्यादा स्थिर करने वाले सूक्ष्मसूत्रः जिनकी अमिट छाप होती है, संस्कार कहे जाते हैं। संस्कार प्राकृतिक एवं क्रिया-सापेक्ष होते हैं। जीव जन्म-जन्मांतरों से इन्हें वहन करता आया है। संस्कारों से भूत का ज्ञान होता है, वर्तमान घटित होता है तथा भविष्य का संपूर्ण दृश्य निर्मित होता है।
संस्कार स्थायी चिह्न है। इन्हें दो भागों में विभक्त किया गया है- सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म संस्कार जीव के सूक्ष्म शरीर में होते हैं। स्थूल संस्कार स्थूल शरीर में ही करतलगत होते हैं। स्थूलतर संस्कार के प्रतीक शरीर के नव द्वार (दो नेत्र दो कान, दो नासा छिद्र, मुख, मलमूत्र विसर्जन द्वार) हैं। बिना स्थूल के सूक्ष्म को जानना सहज नहीं है। करतल के स्थूल संस्कारों का मूल सूक्ष्म शरीर में समाश्रित होता है। सूक्ष्म संस्कारों से ही जीव के क्रिया-कलापों का निदर्शन होता है। करतल की बनावट-विस्तार एवं भारीपन-हल्कापन के अतिरिक्त उसमें संचित रेखायें, चिह्नादि सूक्ष्म संस्कारों की अभिव्यक्ति हैं। करतलगत रेखा-जाल जीव के आद्यन्त जीवन का भव्य मानचित्र हैं।
जैसे भवन निर्माण के पूर्व उसका एक मानचित्र तैयार किया जाता है और उसी के अनुसार भवन बनता है, वैसे ही जीव के जीवन क्षेत्र में पदार्पण करने के पूर्व उसका मानचित्र - भाग्य, उसकी हथेली में स्थायित्व को प्राप्त कर लेता है। जीव का जीवन इस रेखाचित्र का प्रतिफल है। 'हानि लाभ जीवन मरन जसु अपजसु विधि हाथ' के अनुसार सब कुछ विधाता के हाथ (अधिकार) में है। ये नियम हथेली में रेखाकार रूप में दिखते हैं। हथेली में विश्व प्रतिष्ठित है। संस्कार को वहन करने वाला जीव है। संस्कार को बनाने, संवारने, पोषण एवं नाश करने वाला कर्म है। जीव का कर्म से अभिन्न संबंध है। जीव, कर्म और संस्कार परस्पर संबद्ध हैं। स्थूल शरीर से कर्म होता है। सूक्ष्म शरीर में संस्कार होते हैं। कारण शरीर में जीव रहता है। जीव कर्त्ता होने से सुख दुख का भोक्ता है।
जीव जब एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है- मृत्यु के बाद जन्मग्रहण करता है तो उसके पूर्व शरीर के संस्कार उसके नये शरीर में स्थानांतरित हो जाते है। जैसे किरायेदार अपने पुराने किराये के आवास को छोड़कर दूसरे मकान में जाता है तो वह पहले वाले घर के सभी सामान अपने साथ लेकर नये भवन में प्रवेश करता है। जब जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर (योनि) में जाता है तो उसका सब सामान (कर्म-संस्कार) उसके साथ ही होता है। नाना योनियों को ग्रहण करता हुआ जीव संस्कारों की गठरी सिर पर रखे हुए रहता है। अतः संस्कारों को सुसंस्कृत करने के लिए कर्म का विशेष महत्त्व है।
इन कर्मों की रूपरेखा गर्भ से ही प्रारंभ हो जाती है, जैसे - भक्त प्रहलाद, वीर अभिमन्यु आदि। इन कर्मों की रूपरेखा में परिवेश, प्रकृति, आचार्य गुरु, माता-पिता, सुहृद बांधव, संबंधी जनों का विशेष योगदान रहता है। संस्कारों का प्रारंभ अभ्यास से ही होता है। संस्कार डालना पड़ता है जैसे -देवर्षि नारद जी ने भक्त प्रहलाद, ध्रुव,हर्यश्व, शवलाश्व आदि के जीवन में डाला। दोषों का परिशोधन प्रयास पूर्वक ही होता है। ये संस्कार जितनी छोटी आयु में या जितने जल्दी किए जा सकें, उतने ही सफल होते हैं। संस्कारों का कार्य एवं उद्देश्य गुणों का अधिकतम विकास करना है। इसमें माता-पिता सर्वोपरि है। उन्हें अपने बच्चों को संस्कारित करने के लिए निम्न बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए।
1. बड़ों का आचरण अनुकरणीय हो।
2. दैनिकजीवन नियमित व मर्यादित हो।
3. व्यवहार में सद्गुणों का समावेश हो, सिर्फ भौतिक सुख-सुविधा नहीं बल्कि बच्चों को चाहिए-प्रेम, स्नेह, विश्वास, सकारात्मक भावना, संरक्षात्मक वातावरण आत्मीयता, अपनत्व आदि।
4 बच्चों से अधिक अपेक्षा न करें, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए, अच्छा करने के लिए प्रोत्साहन देते रहें।
5 बच्चों के साथ पारिवारिक चर्चाएं करें। दिन में एकत्र होकर सभी सदस्य एक दूसरे से सौहार्द से युक्त वार्तालाप करें, अपनी कहें दूसरे की सुनें।
6. पारिवारिक कार्यक्रम शादी-विवाह, जन्मदिन आदि मनाने में भारतीय पद्धति को प्रोत्साहन दें।
7. घर में दादा-दादी एवं नाना-नानी कहावतों, कहानियों तथा संस्मरणों के माध्यम से सफलता के कई ऐसे सूत्र सिखा देते हैं, जो पुस्तकों में नहीं होते।
अतः बुजुर्गों के सान्निध्य में रखकर उनके ज्ञान का लाभ अवश्य ही प्राप्त कराते रहें। इस प्रकार हर माता-पिता को व्रत लेना होगा कि अपनी संतानों में ऐसे संस्कारों का आधान करें, जो उत्कृष्ट कोटि के हों। घर संस्कारों की जन्मस्थली है। अतः संस्कारित करने का कार्य हमें अपने घर से प्रारंभ करना होगा। संस्कारों का प्रवाह हमेशा बड़ो से छोटों की ओर उसी प्रकार होता है जैसे गंगादि नदियों से छोटे-छोटे नदी-नालों का जन्म होता है। बच्चे उपदेश से नहीं अनुकरण से सीखते हैं। आप बच्चों के समक्ष जैसा आचरण करेंगे वैसा ही उनके जीवन में ही समाहित हो जाता है।
बालक की प्रथम गुरु माता अपने बालक में आदर, स्नेह, विनम्रता, अभिवादन एवं अनुशासन जैसे गुणों का सिंचन अनायास ही कर देती है। परिवार रूपी पाठशाला में बच्चा अच्छे व बुरे का अंतर समझने का प्रयास करता है। जब इस पाठशाला के अध्यापक माता-पिता, दादा-दादी संस्कारी होंगे, तभी बच्चों के लिए आदर्श उपस्थित कर सकते हैं। आजकल परिवार में माता-पिता दोनों की व्यस्तता के कारण बच्चों में धैर्यपूर्वक सुसंस्कारों के सिंचन जैसा महत्वपूर्ण कार्य उपेक्षित हो रहा है। आज अर्थ की प्रधानता बढ़ रही है। कदाचित् माता-पिता भौतिक सुख-साधन उपलब्ध कराकर बच्चों को सुखी और खुश रखने की परिकल्पना करने लगे हैं। इस भ्रांतिमूलक तथ्य को समझना होगा।
अच्छा संस्कार रूपी धन ही बच्चों के पास छोड़ने का मानस बनाना होगा एवं इसके लिए माता-पिता स्वयं को योग्य एवं सुसंस्कृत बनावें। उन्हें विवेकवती, ज्ञान-विज्ञान संयुक्त बुद्धि को जाग्रत कर अध्यात्म पथ पर आरूढ़ होना होगा। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विशद वर्णन हुआ है, ये सभी मनुस्मृति आदि ग्रंथों में वर्णित हैं। ये संस्कार कब-कब और किस-किस, प्रकार आयोजित हों, वहां यह भी बताया गया है। इसमें सोलह संस्कार प्रमुख हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, या चूड़ाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अन्त्येष्टि संस्कार। 'हिन्दू धर्म कोश' ने वानप्रस्थ एवं संन्यास को संस्कार न मानकर विद्यारम्भ तथा कर्णवेध दो अन्य संस्कार बताए हैं। परंतु यह कहना ही सर्वश्रेष्ठ होगा कि प्रत्येक संस्कार अपने आप में उत्कृष्ट व गुणयुक्त संस्कार है, जिसका ठीक से पालन करने में आत्मोन्नति तथा इहलौकिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति निश्चित ही है।
संस्कारों से संबद्ध मंत्रों, कृत्यों एवं परंपराओं का विवेचन करने पर विद्वत् जनों, मनीषियों, ऋषियों, महर्षियों आदि को निम्नलिखित उद्देश्य प्रतीत हुए हैं-
1. प्रतिकूल प्रभावों की परिसमाप्ति
2. अभिलषित प्रभावों का आकृष्ट करना।
3. शक्ति, समृद्धि वृद्धि आदि की प्राप्ति
4. जीवन में होने वाले सुख-दुख की इच्छाओं को व्यक्त करना।
5. गर्भ तथा बीजसंबंधी दोषों को दूर करना।
6. धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त करना।
7. पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की प्राप्ति। आचार्य शंख के अनुसार संस्कारों से संस्कृत तथा अष्ट गुणों से युक्त व्यक्ति ब्रह्मलोक पहुंचकर ब्रह्मपद को प्राप्त करता है और फिर वह कभी च्युत नहीं होता।
8. चारित्रिक विकास।
(9) व्यक्तित्व निर्माण
(10) समस्त शारीरिक क्रियाओं को आध्यात्मिक लक्ष्य से परिपूरित कराना।
संस्कारों के आयोजनों का एक निश्चित विधि-विधान है, उसे जानने के लिए जिज्ञासुओं को गृह्य सूत्रों, धर्मसूत्रों तथा मन्वादि स्मृतियों का अवलोकन करना चाहिए। इस प्रकार 'संस्कार जगाओ - संस्कृति बचाओं' के सूत्र को अपनाकर मानव जीवन का कल्याण करें, दुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता को सिद्ध करें। यह तभी हो सकता है जब बड़े बुजुर्ग, माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि दृढ़ संकल्प के साथ अपने बालगोपालों में भारतीय संस्कृति के प्रतिपादित उत्कृष्ट कोटि के संस्कारों का आधान करें। भावी पीढ़ी को मनसा-वाचा - कर्मणा सशक्त बनाने हेतु उनमें शक्ति, भक्ति और मुक्ति का संगम कराना है।
प्रत्येक व्यक्ति अपना बाह्य व अंतः आंगन स्वच्छ रखना सीख ले और दूसरों की भी प्रेरणा दे तो पूरा समाज, राष्ट्र व विश्व स्वच्छ एवं प्रकाशवान हो जायेगा। आवश्यकता है प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता एवं संस्कारों के प्रति सजगता की। संस्कारव्रत सभी के लिए पालनीय व अनुकरणीय है।