सद्गति प्रदान करता है उच्चस्थ केतु
सद्गति प्रदान करता है उच्चस्थ केतु

सद्गति प्रदान करता है उच्चस्थ केतु  

सुनील जोशी जुन्नकर
व्यूस : 7371 | फ़रवरी 2011

छाया ग्रह केतु परम पुण्यदायी और मोक्ष कारक है। जिस ग्रह के साथ केतु बैठता है उसी के अनुसार कार्य करता है। सामान्यतः यह मंगल के समान कार्य करता है। केतु की अच्छी स्थिति के बिना मोक्ष प्राप्ति संभव नहीं है। कारकांश कुंडली से राजयोग: जिस प्रकार लग्नेश व पंचमेश के संबंध से राजयोग देखा जाता है, उसी प्रकार आत्मकारक और पुत्र कारक से राजयोग देखना चाहिए।

Û ‘आत्मकारक और पुत्रकारक दोनों लग्न या पंचम भाव में बैठे हों अथवा परस्पर दृष्ट हों अथवा उनमें किसी प्रकार का संबंध हो और अपने उच्च नवांश या स्व की राशि में स्थित हो तथा शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो महाराज योग होता है।

Û भाग्येश और आत्मकारक लग्न, पंचम या सप्तम में हो तो हाथी घोड़े और धन से युक्त राज्य देते हैं।

Û कारक से 2, 4, 5 भाव में शुभ ग्रह हो तो निश्चय ही राजयोग प्रदान करते हैं।

Û राजयोगों जन्मलग्नं पश्यंदुच्चग्रहों यदि। षष्ठाष्टमेगते नीचे लग्नं पश्यति योगकृत।। (बृ.पा.हो. 21/28) अपनी उच्चराशि में स्थित ग्रह लग्न को देखता हो तो राजयोग होता है। छठे, आठवें भाव में अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह यदि लग्न को देखे तो वह राजयोग कारक होता है। अथवा षष्ठेश या अष्टमेश तीसरे या ग्यारहवें भाव में बैठकर लग्न को देखते हों तो राजयोग प्रदान करते हैं।

सारांश यह है कि जन्मलग्न या कारकांश लग्न को देखने वाले ग्रह भी राजयोग कारक होते हैं। राहु-केतु के कारकत्व: दो ग्रहों के अंश समान होने पर सूर्य से राहु पर्यंत आठ ग्रहों में आत्मादि कारकों का विचार करना चाहिए। अतः आत्मादि कारकों में केतु को सम्मिलित नहीं किया गया है। महर्षि पाराशर जी ने केतु को घाव-फोड़ा आदि रोग, चर्म रोग, अत्यंत शूल (दर्द), भूख से कष्ट आदि का कारक बताया है। व्रणरोग चर्मातिशूलस्फुट क्षुधार्तिकारकः केतुः (बृ.पा.हो. 12/09) कहते हैं कि अंतरिक्ष में केतु की धर्म- ध्वजा सूर्य से भी अधिक ऊंची है, जो ब्रह्मलोक को स्पर्श करती है। इसलिए केतु का झण्डा आध्यात्मिक पराकाष्ठा का प्रतीक है।

केतु वेदान्त दर्शन, महान तपस्या, वैराग्य, ब्रह्मज्ञान आदि शक्तियों के उत्थान का प्रतीक है। ‘केतौ कैवल्यम’ महर्षि जैमिनी ने केतु को मोक्ष का स्थिर कारक माना है। यदि केतु कारकांश लग्न से द्वाद्वश भाव में स्थित हो तो मनुष्य को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

धनु राशि का केतु विशेष मोक्षप्रद:

Û महर्षि जैमिनी के अनुसार कारकांश लग्न से द्वादश भाव में मीन या कर्क राशि में केतु हो तो विशेष मोक्षप्रद योग होता है।

Û बृहद पाराशर होराशास्त्रम के अनुसार कारकांश से बारहवें भाव में मेष या धनु राशि में केतु स्थित हो तथा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो व्यक्ति को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह मत अधिक उपयुक्त है। सद्गति में कौन देवता सहायक: व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में कौन से देवी-देवता सहायक होंगे। किस देवी-देवता के सहारे साधक की जीवन नैया भवसागर से पार उतरेगी। अपने अनुकूल देवी-देवता को पहचान कर उसकी भक्ति-आराधना करनी चाहिए क्योंकि आपके अनुकूल देवी-देवता ही आपकी सद्गति में सहायक होता है तथा वह स्वर्ग लोक और मोक्ष आदि की प्राप्ति कराता है।


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Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु सूर्य से युत हो तो जातक गौरा-पार्वती की भक्ति करने वाला शाक्त होता है।

Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव मंे केतु चंद्रमा से युत हो तो सूर्य का उपासक होता है। Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु शुक्र से युत हो तो लक्ष्मी का उपासक और धनी होता है।

Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव में केतु मंगल से युत हो तो स्कंद (कार्तिकेय) का भक्त, बुध या शनि से युत हो तो भगवान विष्णु का उपासक, गुरु से युत हो तो शिव का उपासक होता है।

Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव में राहु हो तो तामसी दुर्गा (कालिका, चामुण्डा) का और भूत-प्रेतादि का सेवक होता है तथा केतु (अकेला) हो तो गणेश या स्कंद का उपासक होता है।

Û कारकांश लग्न से बारहवें भाव में शनि या शुक्र पाप ग्रह की राशि में हो तो क्षुद्र देवता (छोटे देवता) का उपासक होता है। तत्व ज्ञाता का मरणान्त कृत्य: ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरम्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमांगतिम्।। भगवान विष्णु कहते हैं- हे गरुड़! एकाक्षर ब्रह्म ऊँकार का जप तथा मेरा स्मरण करते-करते जो जीव शरीर का त्याग करता है वह परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।’’ यह अकस्मात् संभव नहीं हो सकता, इसके लिए पहले से ही हमें ध्यान योग में अभ्यस्त होना पड़ेगा। अतः अपने मस्तक में हमंे ऊँ का ध्यान करना चाहिए। सूर्य की रश्मियां जीवात्मा को ब्रह्मलोक ले जाती है- छान्दोग्योपनिषद् (8/6/2) में बताया गयाहै

कि सूर्य की रश्मियां मृत्युलोक व सूर्यलोक दोनों जगह गमन करती है। वे सूर्य मण्डल से निकलती हुई शरीर की नाड़ियों में व्याप्त हो रही है तथा नाड़ियों से निकलती हुई सूर्य में फैली हुई हैं। जब तक शरीर रहता है तब तक हर जगह और हर समय सूर्य रश्मियां शरीर की नाड़ियों में व्याप्त रहती हैं। अत ब्रह्मवेŸाा ज्ञानी पुरुष का किसी भी समय (दिन-रात, शुक्ल-कृष्ण पक्ष, उŸारायन या दक्षिणायन) में निधन होने पर, सूक्ष्म शरीर सहित जीवात्मा का, नाड़ियों द्वारा तत्काल सूर्य की रश्मियों से संबंध होता है। सूर्य की रश्मियां उसे सूर्य मार्ग (देवयान मार्ग) ब्रह्मलोक में ले जाती हैं। ऐसा ब्रह्म विद्या व तत्व ज्ञान के प्रभाव से होता है। जो ब्रह्मविद्या के रहस्य को जानते हैं तथा वन में रहकर श्रद्धापूर्वक सत्य की उपासना करते हैं,

वे अर्चि (अग्नि) को प्राप्त होेते हैं। अर्चि से दिन को, दिन से शुक्ल पक्ष को, शुक्ल पक्ष से उŸारायण के छः महीने को, उŸारायण के छः महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से सूर्य को, सूर्य से ब्रह्मलोक को जाते हैं। यह देवयान मार्ग है- इस अर्चिआदि देवयान मार्ग का ही गीता (8/24) में उल्लेख उŸारायण मार्ग से किया गया है। अग्निज्र्योतिरहः शुक्लः षणमासा उŸारायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। पुण्यात्मा को स्वर्ग प्राप्ति: तत्वज्ञों/ब्रह्मवेŸााओं को मोक्ष और धार्मिकों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आसक्त भाव से किये गये यज्ञ, दान, जप और परोपकार आदि शुभ कर्मों का फल स्वर्ग प्राप्ति है। छान्दोग्यो पनिषद् (5/10/3) के अनुसार जो यहां (गांव या शहर में) रहकर इच्छापूर्वक दानादि सकाम पुण्यकर्म करते हैं

वे धूम्र मार्ग से जाते हैं। धूम्र मार्ग से गये हुए पुण्यकर्मा पुरुष धूम्र रात्रि से कृष्णपक्ष को, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन के छः महीनांे को, वहां से चंद्रलोक को और चंद्रलोक से पितृलोक को तथा पितृलोक से स्वर्गलोक को जाते हंै। स्वर्गलोक में रहकर स्वर्ग के सुखों को भोगते हंै। बहुत समय पश्चात पुण्य कर्मों का फल क्षीण होने पर पुनः पृथ्वी लोक में मनुष्य योनी में जन्म लेते हैं। यहां रात्रि, कृष्णपक्ष व दक्षिणायन आदि काल नहीं है, इनका संबंध तो पितृयान मार्ग में पड़ने वाले कालाभिमानी देवताओं से है। इनका कार्य पुण्यात्मा पुरुष की सहायता करना है।


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