मुहूर्त के सभी विचारणीय विषयों में चंद्र बल आवश्यक विषयों में से एक है। यदि अनुकूल स्थितियां उपलब्ध न हों तो सही प्रकार से चुना हुआ लग्न मुहूर्त अशुभ योगों द्वारा उत्पन्न दोषों को दूर करने में सक्षम होता है। अतः किसी भी कार्य के प्रारंभ होने के समय तारा बल देखना उचित है।
आइए जानें तारा बल निश्चित करने की विधि .... जिस प्रकार अंधेरे में रखे हुए पदार्थों को दीपक अपने प्रकाश से दिखा देता है, उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र, पूर्व जन्म में किए हुए शुभाशुभ कर्मों के परिणाम (प्रारब्ध) को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है।
इसलिए ज्योतिष को ‘दैव विमर्शन शास्त्र’ भी कहते हैं। विधाता ने व्यक्ति के ललाट पर सुख-दुःख की जो वर्णावली लिखी है, उसको ज्योतिर्विद होराशास्त्र के ज्ञानरूपी नेत्रों से देखते हैं। अतः ज्योतिष भाग्य जानने का साधन है। ऐसे कथन आचार्य वराहमिहिर के हैं, जो पूर्णतः सत्य है। किंतु आचार्य के इन वचनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है
कि ज्योतिष भूत, वर्तमान और भविष्य में घटित होने वाली शुभाशुभ घटनाओं की मात्र सूचना देता है। जब हम ज्योतिष को सूचना शास्त्र कहते हैं, तो उसकी उपादेयता कम हो जाती है। यदि किसी व्यक्ति का भाग्य खराब है, तो ज्योतिषी सिर्फ बता सकता है कि आपका भाग्य अच्छा नहीं है। किंतु वह दुर्भाग्य को सौभाग्य में नहीं बदल सकता। (जो भाग्य बदलने के दावे करते हैं, उनके दावे झूठे हैं।) क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का फल भोगना पड़ता है, भोग के द्वारा ही कर्म फलों की शांति होती है।
यह शास्त्र सिद्ध है। कार्य की सफलता का अचूक साधन शुभ मुहूर्त: जीवन में चहुं ओर निराशा से घिरे, भाग्यहीन व्यक्ति को ‘शुभ मूहुर्त’ अंधेरे में प्रकाश की किरण के समान है। जबकि भाग्यवान व्यक्ति के लिए शुभ मुहूर्त में कार्य का शुभारंभ करना स्वर्ण में सुगंधि के समान है। किसी भाग्यहीन व्यक्ति को यदि अनिष्ट ग्रह की महादशा चल रही हो, किंतु गोचरीय ग्रह शुभ हों तो ऐसा व्यक्ति किसी कार्य हेतु प्रशस्त शुभ मुहूर्त में यदि किसी कार्य का प्रारंभ करता है, तो उसे सफलता मिलती है।
अतः शुभ मुहूर्त कार्य साधक होता है। विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न ग्रहों का बलाबल देखें उद्वाहे चोत्सवे जीवः, सूर्य भूपाल दर्शने। संग्रामे धरणीपुत्रो, विद्याभ्यासे बुधो बली।। यात्रायां भार्गवः प्राक्तो दीक्षायां शनैश्चरः। चन्द्रमा सर्व कार्येषु प्रशस्ते ग्रह्यते बुधै।। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को विवाह, सामाजिक-धार्मिक उत्सव गुरु के बलवान और शुभ गोचर में करना चाहिए। सूर्य के बली होने पर राजदर्शन (नेताओं, मंत्रियों, अधिकारियों से मुलाकात करना) चाहिए, मंगल के बली होने पर लड़ाई-झगड़ा, आक्रमण, मुकदमा दायर करना, वाद-विवाद करना, एथलेटिक्स, हाॅकी, क्रिकेट आदि खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेना चाहिए। शिक्षा का प्रारंभ, विद्याध्ययन और शास्त्रार्थ बुध के बली होने पर करना चाहिए।
शुक्र की शुभता में यात्रा -गमन और शनि की शुभता में मंत्र दीक्षा ग्रहण करना चाहिए तथा इनके अतिरिक्त समस्त कार्यों का प्रारंभ चंद्रमा के शुभ गोचर और बलवान होने पर करना प्रशस्त है। गोचरीय ग्रहों का बलाबल जन्मस्थ चंद्र राशि से विचारना चाहिए। उपरोक्त श्लोक में ‘चंद्रमा सर्व कार्येषु-प्रशस्ते’ इसलिए कहा गया है। क्योंकि मुहूर्त में चंद्रमा का फल सौ गुना होता है, इसलिए चंद्रमा का बलाबल अवश्य देखना चाहिए, क्योंकि अन्य ग्रह भी चंद्रमा के बलाबल के अनुसार ही शुभ या अशुभ फल देते हैं। अतः चंद्रमा की शुभता के बिना अन्य ग्रह शुभ फल नहीं देते हैं।
(अथर्ववेदीय ज्योतिषम्- 92/22) मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार- शुक्ल पक्ष में यदि चंद्रमा शुभ है तो सूर्य भी शुभ होता है। सूर्य के शुभ होने पर नेष्ट मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ग्रह भी शुभ होते हैं। चंद्र बल तृतीयो दशमः षष्ठः प्रथमः सप्तमः शशी। शुक्लपक्षे द्वितीयस्तु पंचमो नवमः शुभ।। जन्म राशि से (शुक्लपक्ष में) चंद्रमा का गोचर 1, 2, 3, 5, 6, 7, 9, 10 और ग्यारहवें स्थान में शुभ होता है। पं. काशीनाथ भट्टाचार्य ने 11वें चंद्रमा को शुभ नहीं माना है। किंतु 11वां चंद्रमा सभी प्रकार के लाभ और विजय देने वाला होता है। इनके अतिरिक्त शेष भावों (4, 8, 12वें स्थान) का चंद्रमा अशुभ होता है। इसलिए शुभ मुहूर्त में 4, 8, 12 वां चंद्र त्याज्य है। कतिपय आचार्य जन्म राशिस्थ गोचरीय चंद्रमा को यात्रा मुहूर्त में अशुभ मानते हैं।
गुरु द्वारा दृष्ट चंद्रमा को शुभ बल प्राप्त होता है। सूर्यादि ग्रहों का बलाबल: सभी ग्रह 4, 8, 12वें भाव में अशुभ फल देते हैं। अतः मुहूर्त में जन्म राशि से चैथे, आठवें या ग्यारहवें भाव में यदि सूर्य आदि ग्रहों का गोचर हो तो उस मुहूर्त का त्याग करना चाहिए। सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु जन्म राशि से 3, 6, 11वें भाव में शुभ होते हैं। किंतु शत्रु ग्रहों द्वारा वेधित होने पर अशुभ होते हैं। दशवें भाव का सूर्य चतुर्थस्थ ग्रह से वेधित होता है।
पिता पुत्र का वेध नहीं होता इसलिए सूर्य शनि से वेधित नहीं होता है। प्रत्येक ग्रह उच्च, मूल त्रिकोण और स्वराशि में बलवान होता है तथा नीच और शत्रु राशि में निर्बल होता है। मेष राशि का सूर्य, कर्क और धनु राशि का गुरु 4, 8, 12वां भी शुभ मान्य है। देवर्षि नारद के अनुसार- ”शुक्ले चंद्रबलं ग्राह्यं कृष्णे ताराबलं तथा“ अर्थात् शुभ मुहूर्त हेतु शुक्ल पक्ष में चंद्रमा बलवान होना आवश्यक है और कृष्ण पक्ष में ताराबल देखना चाहिए। मुहूर्त में ताराबल का महत्व: मुहूर्त के अधिकांश ग्रंथों में शुक्ल पक्ष को ही शुभ मुहूर्त के लिए ग्राह्य माना है। किंतु अथर्ववेद ज्योतिष में कृष्ण पक्ष को भी शुभ मुहूर्त हेतु ग्रहण किया गया है। उसमें लिखा है
‘ताराषष्टि समन्विता’ अर्थात् मुहूर्त में तारा का 60 गुना बल होता है। प्रजापति ब्रह्मा जी के अनुसार पति के विदेश चले जाने या उसके बीमार हो जाने पर स्त्री घर की अधिकारी होती है। अर्थात् कृष्ण पक्ष में तारा की प्रधानता होने के कारण तारा बल देखना उचित है।
मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार, कृष्ण पक्ष में तारा के बलवान (शुभ) होने पर चंद्रमा भी शुभ होता है और तारा नेष्ट होने पर चंद्रमा नेष्ट होता है। महर्षि भृगु का मत है- प्रत्येक नक्षत्र का शुभ और अशुभ फल जानकर कार्य करने से लाभ होता है। अतः जो अपनी उन्नति चाहे उन्हें उचित है कि वे स्वयं को समृद्ध बनाने वाले नक्षत्रों का ज्ञान अवश्य कर लें। तारा साधन: अपने जन्म नक्षत्र से सीधे क्रम में अभिष्ट नक्षत्र तक गिने (जिस दिन शुभ कार्य प्रारंभ करना हो उस दिन का चंद्र नक्षत्र अभिष्ट नक्षत्र कहा गया है।) प्रथम नक्षत्र (जन्म नक्षत्र) से नवें नक्षत्र तक सम्पत आदि तारा होती है।
यदि नक्षत्र 9 संख्या से अधिक हो तो उसमें 9 का भाग देने पर जो शेष अंक प्राप्त हो उसी शेषांक के तुल्य तारा होती है। इस प्रकार तीन-तीन नक्षत्रों के नौ वर्ग बनते हैं। जिनके नाम क्रमशः जन्म, सम्पत, विपत, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मैत्र, अति मैत्र संज्ञक होते हैं। विवाह नक्षत्र गुण मेलापक में वर से कन्या की और कन्या से वर की प्रथम तारा (जन्म तारा) शुभ मानी जाती है तथा इसके तीन गुण (अंक) दिये जाते हैं
किंतु हमारे मत से यह उचित नहीं है। विवाह आदि शुभ कार्यों में त्याज्य दोष: अमावस्या, रिक्ता तिथि (4, 9, 14) वारवेला, जन्म नक्षत्र, क्रूर वार (रवि, मंगल, शनि) तथा गंडान्त लग्न, तिथि और नक्षत्र शुभ कार्यों में यत्नपूर्वक त्याज्य करने चाहिए तथा इसके अलावा भद्रा, क्रकच योग, तिथियान्त की दो घटी, यमघंटक योग, दग्धा तिथि, नक्षत्रान्त की तीन घटी और कुलिक योग विवाहादि शुभ कार्यों में त्याज्य है। इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारे दोष है, जिनका मुहूर्त शास्त्रों में उल्लेख मिलता है।
यदि समस्त दोषों का विचार किया जाये तो हमें ऐसा मुहूर्त ढूढना मुश्किल होगा, जिस मुहूर्त में कोई दोष न हो। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन कोई न कोई दोष अवश्य आता है। ऐसी स्थिति में दोष समूहों का नाश करने वाले अर्थात् कुयोगों का परिहार करने वाले, मुहूर्त सिद्धि प्रदायक योगों पर ध्यान देना आवश्यक है तभी आप किसी व्यक्ति को शुभ मुहूर्त बता पाएंगे अन्यथा नहीं। दोष संघ नाशक रवियोग: भद्रा, व्यतिपात, वैधृति, जन्म नक्षत्र आदि विविध दोष दोपहर बाद सूर्योदय से 12 घटी उपरांत न्यून रह जाते हैं।
इस प्रकार शुभ चंद्र बल भी क्रकच योग, मृत्यु योग, दग्धा तिथि, रिक्ता तिथि आदि यात्रा दोषों को स्वतः ही दूर कर देता है। ‘सूर्यभात् चन्द्रक्र्षे रवियोगाः स्युर्दोषसङ्घविनाशकाः।’ सूर्य-चंद्र जनित नक्षत्र दिवस को (रवियोग को) शास्त्रकारों ने दोषसंघ नाशक माना है। यह मुहूर्त शोधन में अति उपयोगी सिद्ध होता है। रवियोग ज्ञात करने की विधि इस प्रकार है- गोचरीय सूर्य जिस नक्षत्र में हो उस नक्षत्र से (अभिष्ट दिन) 4, 6, 9, 10, 13 या 20वें नक्षत्र पर चंद्रमा का गोचर होने से कुयोग नाशक रवियोग होता है।
रवियोग की अवधि चंद्रमा के नक्षत्र भोगकाल के समान होती है, चंद्र राशि के समान नहीं। निर्णय सागर आदि पंचांगों में रवि योग दिये रहते हैं। सफलतादायक सर्वार्थसिद्धि योग: वार एवं विशेष नक्षत्रों के योग से सर्वार्थसिद्धि योग बनते हैं। सर्वार्थसिद्धि योग में प्रायः समस्त शुभ कार्यों की सिद्ध होती है।
हस्तादित्य, चंद्रमृग भौमश्विनी, बुध-अनुराधा, गुरु-पुष्य, शुक्र-रेवती, शनि-रोहिणी योग बहुत शक्तिशाली और शुभ होते हैं, इन्हें अमृतसिद्धि योग कहते हैं। सर्वार्थ और अमृत सिद्धि ये दोनों ही योग, दोष नाशक और शुद्धि प्रदायक है। सर्वार्थसिद्धि योग तालिका रविवार-अश्विनी, पुष्य, तीनों उत्तरा, हस्त, मूल सोमवार- रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, श्रवण मंगलवार- अश्विनी, कृतिका, आश्लेषा, उत्तराभाद्रपद बुधवार-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा गुरुवार - अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, रेवती शुक्रवार- अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, रेवती शनिवार - रोहिणी, स्वाति, श्रवण। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार गुरु-पुष्य में विवाह, शनि-रोहिणी में यात्रा और मंगल-अश्विनी सिद्धि योग में गृह प्रवेश वर्जित है।
पुष्यसिद्धयन्तिसर्वाणि: जिस प्रकार सभी चैपायों में सिंह बलवान होता है, उसी प्रकार नक्षत्रों में पुष्य नक्षत्र बलवान है। तारा या चंद्र अशुभ होने पर भी पुष्य नक्षत्र में किये गये कार्य सफल होते हैं। जन्म तारा अशुभ होती है- शीघ्रबोध के लेखक पं. काशीनाथ भट्टाचार्य आदि ज्योतिषियों के अनुसार जन्म तारा (1) शुभ होती है। जबकि अथर्ववेदिय ज्योतिषम् के अनुसार यह अशुभ होती है। ‘ताराः शुभप्रदाः सर्वास्त्रिपंचसप्तवर्जिताः।’ अर्थात् 3, 5, 7वीं तारा अशुभ होने के कारण त्याज्य हैं।
इनके अतिरिक्त सभी तारायें शुभ होती हैं। (शीघ्रबोध - 2/200) नव नक्षत्रके वर्गे प्रथम तृतीयं तु वर्जयेत्। पंचमं सप्तमं चैव शेषैः कार्याणि कारयेत्।। (अ.ज्यो-110/10) नीचे कहे गये नक्षत्रों के नौ वर्गों में से प्रथम, तृतीय, पंचम एवं सप्तम वर्ग के नक्षत्रों को छोड़कर शेष वर्गों के नक्षत्रों में शुभ कार्य प्रारंभ करना चाहिए। इस श्लोक प्रथम तारा को भी शुभ कार्य में वर्जित किया गया है।
शुभाशुभ तारा बोधक चक्र जन्म नक्षत्र से नक्षत्र वर्ग तारा संज्ञा तारा फल अभिष्ट नक्षत्र (शेषांक) 1, 10, 19 1 जन्म अशुभ 2, 11, 20 2 सम्पत शुभ 3, 12, 21 3 विपत अशुभ 4, 13, 22 4 क्षेम शुभ 5,14,23 5 प्रत्यरि अशुभ 6,15,24 6 साधक शुभ 7,16,25 7 वध अशुभ 8,17,26 8 मैत्र शुभ 9,18,27 9 अतिमैत्र शुभ पापैर्विद्धेयुते हीने चन्द्रतारा बलेऽपि च। पुष्यसिद्धयन्ति सर्वाणि कर्माणि मंगलानी च।। यदि चंद्रमा और तारा बलहीन हो या पापयुक्त/पापविद्ध हो तब भी पुष्य नक्षत्र में किए गए समस्त मांगलिक कार्य सफल होते हैं।
एक स्थान पर कहा गया है-‘पुष्यस्त्वंसर्वधिष्णायानम्।’ अर्थात पुष्य के सान्निध्य में अनिष्ट से अनिष्ट दोष भी नष्ट होकर हमारे अनुकूल हो जाता है और कार्य सिद्धि देता है। गुरुवार को पुष्य नक्षत्र के संयोग से सर्वार्थ सिद्धि और अमृत सिद्धि योग बनता है। किंतु यदि गुरु पुष्य योग नवमी तिथि में हो तो वह विषयोग बन जाता है। इस कारण नवमी तिथि को गुरु-पुष्य का त्याग करना चाहिए। मुहूर्त में ध्यान रखने योग्य बातें- ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक कार्य के शुभारंभ हेतु तिथि, वार, नक्षत्र आधारित मुहूर्त दिए हुए हैं।
इनमें से तिथि का सिर्फ एक गुण होने के कारण तिथि की उपेक्षा की जा सकती है किंतु वार और नक्षत्र के संयोग की नहीं। कोई शुभ मुहूर्त किसी व्यक्ति के लिए तभी शुभ बैठेगा जब उस मुहूर्त के समय उसको चंद्र या तारा बल प्राप्त हो रहा हो। सबल और शुभ चंद्र यदि गोचरीय गुरु द्वारा दृष्ट हो तो ऐसा मुहूर्त अनेक दोषों का नाशक और कार्य सिद्धिदायक होता है।
शुभ लग्न में कार्य प्रारंभ करना चाहिए, लग्न शुद्धि न होने पर गोधूलि लग्न या अभिजित मुहूर्त में कार्य का शुभरंभ करें। क्योंकि अभिजित सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। ”अभिजित्सर्वकामाय सर्वकामार्थसाधकः।“