उपनिषद कालीन जीवन का मूल तत्व था - श्रद्धा। उपनिषद शब्द का शाब्दिक अर्थ है पास बैठना, गुरु के पास बैठकर सुनना। कोई अपने गुरु के पास तब तक नहीं बैठ सकता जब तक उसके हृदय में श्रद्धा न हो। श्रद्धा ही वह मूल तत्व है जो गुरु-शिष्य के बीच हृदय के तारों को जोड़ता है। श्रद्धा को गीता में श्रीकृष्ण ने वैसा स्थान दिया कि इस शब्द की जितनी बार आवृत्ति हुई, शायद ही किसी शब्द की उतनी बार आवृत्ति हुई होगी। बात यत्र-तत्र घूमकर श्रद्धा पर ही टिक जाती है। एक अध्याय सत्रहवां का नाम ही श्रद्धात्रयविभाग योग है। इसमें तीन प्रकार की श्रद्धा की बात कही गई- सात्विक, राजसी और तामसी। श्रीकृष्ण जैसे महायोगी सत्य को तीन दृष्टियों से नहीं देख सकते। तो फिर बात क्या है? वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण जितने ही बड़े महायोगी हैं, उतने ही बड़े मनोवैज्ञानिक। वे मानव प्रकृति के अनुपम चित्रकार हैं। जिसने भी मानव प्रकृति को समझने का प्रयास किया, वह कृष्ण की लीला पर मोहित हो गया और गीता को एक अनुपम कलाकृति मान लिया।
आम धारणा है कि गीता एक शुष्क धार्मिक ग्रंथ है। यह धारणा अपनी जगह पर है; ऐसा इसलिए कि मानव मन पर समाज, संस्कार, व्यक्तिगत पाप - पुण्य की इतनी धूल जमा हो जाती है कि उसका दर्पण मटमैला हो जाता है, उसकी आत्मा मैली चादर को ढोते रहती है। जिस दिन दर्पण स्वच्छ हो जाता है, चादर धवल हो जाती है उस दिन दर्शन के आकाश में कली की चांदनी तैरने लगती है। वस्तुतः गीता में श्रीकृष्ण तीन प्रकार की मानवीय प्रकृति का उल्लेख कर रहे हैं- सात्विक, राजसी और तामसी। इन तीनों प्रकृतियों के लोग अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप सत्य को देखते हंै। जिनकी जैसी प्रकृति होती है उनकी वैसी ही प्रवृत्ति होती है। मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप संसार को देखता है, वैसा ही कर्म करता है और उसी को सच मान लेता है। उसकी श्रद्धा उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति से प्रभावित हो जाती है। इन तीनों प्रवृत्तियों से प्रभावित श्रद्धा उस मधुसूदन को नहीं देखने देता है जिसके लिए यह अंखिया जन्म जन्मांतर से प्यासी रही है।
उसे याज्ञसेनी द्रौपदी ही देख पाती है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं - जब तक मनुष्य इन तीनों प्रवृत्तियों से तटस्थ नहीं होगा तब उसे नदियों पार सजन का डेरा नहीं दिखेगा। श्रीमद्भागवत महापुराण में भरत की कथा है। भरत चक्रवर्ती सम्राट थे, दुष्यंत पुत्र भरत नहीं और न ही श्रीराम के अनुज भरत। उनमें ऐसा प्रभु प्रेम जगा कि उन्होंने अपने राजपाट का त्यागकर वन में जाकर साधना में लीन हो गए। एक दिन एक गर्भवती मृगी का पीछा एक शिकारी कर रहा था, वह डर के मारे नदी में कूद पड़ी। उसका गर्भ किनारे पर गिर पड़ा और वह मृगी मर गई। गर्भ उस अवस्था तक पूर्ण हो चुका था। गर्भ के रूप में जो मृग शावक दिखाई दिया उसे साधक महाराज भरत ने अपनी गोद में उठा लिया। उन्हें उस मृग शावक से इतना लगाव हो गया कि वे दिन रात उसी मृग शावक के मोह में पड़े रहे। इसी मोहग्रस्त अवस्था में भरत की मृत्यु हो जाती है। कहते हैं- अंत मति सो गति। मृग को स्मरण करते हुए भरत के प्राण निकले और उन्हें मृग का ही जीवन मिला।
मृग की सेवा करना उचित था लेकिन मृग बन जाना उचित नहीं था। मिष्टान्न खाना एक बात है और मिष्टान्न बन जाना दूसरी बात। इसलिए गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्रिगुणात्मक प्रकृति से तटस्थ रहते हुए सत्य को उपलब्ध होओ। तटस्थ रहते हुए निर्विकार होकर आत्मोपलब्ध होना ही वास्तव में श्रद्धा का विश्राम स्थल है। यह गीता में उल्लिखित श्रद्धा का स्वरूप है। एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात गीता में श्रीकृष्ण ने कहा- ‘‘श्रद्धावान लभेत ज्ञानं।’’ श्रद्धावान व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति होती है। निर्विकार मन में श्रद्धा के बीज अंकुरित होने पर व्यक्ति उस सनातन सत्य को अपने अंदर पा लेता है। जिसके लिए वह अनंत काल से भटक रहा है। ऐसी ही श्रद्धा से उसके अनंत भटकन का अंत होता है। तभी वो गा पाता है। कोरा कागज था ये मन मेरा। लिख दिया नाम उस पर तेरा। उस पर साईं लिखो, राम लिखो, श्याम लिखो, सद्गुरु लिखो, अल्लाह लिखो- कोई फर्क नहीं पड़ता, सब एक हैं- सबका मालिक एक है।
यहीं पर गोस्वामी तुलसीदास अपनी अनुपम कृति श्रीरामचरित मानस के प्रारंभ में ही कहते हैं - भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्।। गोस्वामी जी ने माता भवानी को श्रद्धा स्वरूपा कहा। सचमुच जननी तो श्रद्धास्वरूपा ही होती है। यदि श्रद्धा न हो तो इतने कष्ट सहकर शिशु को जन्म देने के बाद उसकी एक मुस्कान पर वह अपने कष्ट को भूल जाती है। अपने हृदय के अंश को धरती पर लाती है। इसलिए गोस्वामी जी कहते हैं कि श्रद्धा होने पर ही हम अपने अंतस में परमात्मा को देख सकते हैं। जहां भवानी हैं, वहीं शिव होंगे। जहां श्रद्धा है, वहीं विश्वास है। भवानी और शिव के संयोग का फल गणेश हैं। श्रद्धा और विश्वास के मिलन से सृजन होता है। सृजन ही संसार का आधार है। इसलिए गणेश की प्रथम पूजा होती है। सृजन को संसार पूजता है। श्रद्धा आधारित प्रेम से ही सृजन के कोंपल निकलते हैं। ऐसी श्रद्धा जब मनुष्य के अंतःस्थल में हो तभी वह संसार के कण कण से प्रेम करेगा। चराचर जगत से प्रेम करेगा, साईं से करेगा और साईं के श्रीचरणों में अर्पित गुलाब से भी प्रेम करेगा।
ऐसी ही श्रद्धा को साईंबाबा ने अपना गुरुमंत्र कहा। ऐसी श्रद्धा जो बिना किसी के कान में गुरुमंत्र दिए उसके हृदय में उतर जाए और उसे भव सागर से पार उतार दे। आत्मा और परमात्मा के बीच की वेला का अंत हो जाता है। श्रद्धा के सोपान पर मुक्ति मिल जाती है। यह साईं भक्ति का पहला सोपान है। सबूरी बाबा, का दूसरा मंत्र है- सबूरी। सबूरी यानी धैर्य अथवा संतोष। सब्र शब्द घिसते घिसते सबूरी बन गया। संत और साम्राज्यवादी के बीच खड़ा है संतोष। संतोष को अपनाने से व्यक्ति संत बनता है और उसे संत शिरोमणि साईं का सान्निध्य मिलता है। वहीं संतोष के तिरस्कार से व्यक्ति साम्राज्यवादी बनता है। उसमें और पाने की ललक होती है। वह आगे बढ़ता जाता है। अपने आगे बढ़ने में वह भूल जाता है कि शारीरिक स्तर पर ही आगे बढ़ना, भौतिक स्तर पर ही आगे बढ़ना जीवन का लक्ष्य नहीं है। इस तथाकथित प्रगति के पथ पर आंख रहते हुए भी अंधे की तरह बर्ताव करने और होड़ में शामिल होने से आत्मा की अवनति होती है। वह सत्य से दूर चली जाती है, इतना दूर की जहां से लौटने की संभावना क्षीण हो जाती है। सत्य विहीन हृदय में भय का निवास होता है।
इसलिए दुनिया के सभी साम्राज्यवादी अंदर से डरे रहते हैं। वे भय के वशीभूत होकर-फीयर साइकोसिस के तहत कार्य करते हैं। भय के अधीन होकर वे गलती करते रहते हैं। परिणामतः उनका अंत दुखद होता है। अंत में जिस साम्राज्य के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहते हैं, वह साम्राज्य उनके किसी काम का नहीं रह जाता। चाहे हिटलर हो या रावण, प्रत्येक साम्राज्यवादी का अंत दुखद होता है। संतोष के कारण ही राम राजसिंहासन का त्याग करते हैं लेकिन अनुज भरत का नहीं। अनुज भरत संतोष के कारण ही अयोध्या के सिंहासन का त्याग करते हैं लेकिन अपने भ्राता श्रीराम का नहीं। सीता राजमहल को छोड़कर वन में रहना स्वीकार करती हैं। वहीं असंतोष के कारण व्यक्ति रावण बनता है। जो जन्म से रूदन कर रहा हो वही रावण है। एक अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति जन्म से रूदन ही करता है। लेकिन वह भूल जाता है कि जिस वैभव के लिए वह रोता है उसके स्वामी विभीषण उसके पास ही हैं। वैसे विभीषण में ‘वि’ से विशिष्ट, ‘भव’ से संसार और ईषण में ईश्वर शब्द है अर्थात् संसार में रहते हुए जो विशिष्ट पुरुष ईश्वर को न भूले वही विभीषण है। रामायण की लंका माया का प्रतीक है।
इस माया नगरी में रावण रोता रहता है और विभीषण ईश्वर साधना में लीन रहता है। असंतोष से वशीभूत होकर रावण विभीषण का त्याग करता है और उसका दुखद अंत होता है। असंतोष व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है और संतोष उन्नति की ओर। भगवान बुद्ध राजकुमार थे। उन्होंने अपनी युवावस्था में साम्राज्य के यथार्थ को समझ लिया था, उन्होंने जान लिया था कि दूसरे पर शासन करने से आत्मा स्वयं बंधन के अधीन हो जाती है। शासन के लिए जिन साम, दाम, दंड, भेद की आवश्यकता होती है वे देहाभिमान से प्रेरित विचार हैं। उसके रहते हुए चादर मैली ही रहेगी। उस मैली चादर को ओढ़कर आत्मा परमात्मा से नहीं मिल सकती। इसलिए राजकुमार सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु का त्याग किया और बोध की नगरी में प्रवेश। बोध की नगरी में साधना करने से व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। इसी बुद्ध के आगे करोड़ांे लोगों ने अपना मस्तक नवाया, राजपुरूषों ने उनके चरणों में अपना मुकुट रख दिया। अशोक का जब अपनी साम्राज्यवादी नीति से मोह भंग हुआ तब उसने बुद्धत्व की शरण ली। उसे लगा कि जीवन में हलचल का अंत होना चाहिए। संतोष के बिना शांति संभव नहीं।
सम्राट अशोक ने जब संतोष धारण किया तब कलिंग युद्ध का अंत हुआ और उसने युद्ध विजय को विश्राम दिया। संतोष का ही दूसरा नाम है - बुद्धत्व। असंतोष का मुख्य कारण विकारों का होना है। षड्विकार- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर। ये आपस में संबंधित हैं। इनके आपस के संबंध पर गीता में बहुत ही स्पष्ट सूत्र है। ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते।। क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्समृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुंद्धिनाशो बुद्धि नाशात्प्रणश्यति।। विषय यानी माया के चिंतन से काम उत्पन्न होता है। काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से स्मृति नष्ट होती है और स्मृति नष्ट होने से बुद्धि नष्ट होती है। बुद्धि नष्ट होने से जीवात्मा का पतन होता है। वस्तुतः षड्विकार ही पाप का मूल है और षड्विकार के मूल में असंतोष। असंतोष के कारण इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। इच्छाओं के कारण व्यक्ति अनंत भटकन में पड़ता है।
इस संसार में भौतिक उत्पादन के बिना रहा नहीं जा सकता। यदि सात्विक रूप से धनार्जन किया जाए और अपने अंतस को भूले बिना उस धन से सत्कर्म किया जाए अर्थात मर्यादित जीवन जीते हुए धनार्जन किया जाए तो वह धन संसार के लिए लाभकारी होता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं ‘‘कर से करम करहुं विधि नाना। मन राखहुं जहां कृपा निधाना।।’’ विभिन्न प्रकार के कर्मों को करते हुए मन कृपानिधान पर भी टिका रह सकता है जब हृदय में सबूरी हो। इसलिए हमारे पुरखों ने कहा- संतोषम् परम् सुखम् अर्थात संतोष में परमानंद है। सभी धर्मों में संतोष को महत्व दिया गया है। जिसको सब्र रहेगा उसी को संतोष होगा। इसी सबूरी को बाबा ने मूल मंत्र बना दिया। श्रद्धा और सबूरी के साथ रहने से व्यक्ति परमानंद को प्राप्त कर सकेगा।