साईं स्वयं भिक्षाटन करते थे और भक्तों से दक्षिणा भी स्वीकार करते थे, उन्होंने ही अपने भक्तों को भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति का आश्वासन दिया। साईं भिक्षाटन में जो कुछ भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोख्य पदार्थ लाते थे उसे अपने निवास द्वारकामाई में स्थित मिट्टी के एक बर्तन में डाल देते थे। उस मिट्टी के पात्र से लेकर पशु- पक्षी भी खाते थे, भक्तगण भी उसी से ग्रहण करते थे और दूर से आए भूखे-प्यासे यात्री भी उसी से ग्रहण करके तृप्ति का अनुभव करते थे। कभी किसी ने बहुत आग्रह कर दिया तो साईं ने स्वयं भी एक-आधा निवाला उससे ले लिया। कोई न तो वहां से खाली हाथ लौटता था और न ही भूखा। साईं के स्पर्श में अन्नपूर्णा सिद्धि थी। साईं के सान्निध्य में सबको तृप्ति, सबको संतोष। वास्तव में उनका अवतार ही मानवता को वैसी तृप्ति देने के लिए हुआ जिसके लिए मानव समाज ने अनंत काल से यात्रा की है। मानव समाज की इस यात्रा की थकान ने इसकी दिशा को ही मोड़ दी। मानव इस मोड़ पर खड़ा हो गया जहां उसे यंत्र में उलझना अधिक सुकून देता है, जहां दिन-रात जागना उसकी विवशता हो गई है। लेकिन क्या वह सुकून पाता है? वह कितने में संतोष करेगा, इसका उसे स्वयं भी ज्ञान नहीं। बाबा नित्य भिक्षाटन के लिए निकलते थे।
लेकिन उन्होंने कभी भी पांच घर से अधिक में भिक्षाटन नहीं किया। वे द्वार पर खड़े होते थे और पुकारते थे- ‘‘ओ माई, एक रोटी दे देना।’’ इतना सुनते ही शिर्डी की गृहस्वामिनियों के अंतस में एक अद्भुत भक्तिभाव का संचार होता था। वे दौड़े-दौड़े द्वार पर आती थीं। उन्हें लगता था कि उनके कई जन्मों के पुण्य के संचय होने से भी यह फकीर उसके द्वार पर नहीं आता, यह तो फकीर की कृपा है जो उन्हें मालामाल करने आ गया। वहां की सरल हृदय नारियों को कभी इस बात का अभिमान नहीं कि उसके अच्छे कर्म हैं, इसलिए साईं उनके द्वार आते हैं। बल्कि वे मन ही मन साईं को धन्यवाद देती थीं कि वे उनके द्वार आ जाते हैं। उनके घर में जो कुछ रहता था उस पर पहले ही से वे साईं का अधिकार मानती थीं। इसके लिए कभी उन्हें कहीं सत्संग नहीं करना पड़ा कि पहले भगवान को भोग लगाना चाहिए फिर स्वयं भोजन करना चाहिए। यह तो उनकी सांसों में बसा हुआ था कि पहले साईं, उसके बाद वे सभी। उनकी हर सांस में साईं बसे हुए थे। हां, उन्हें इतना तो गर्व अवश्य था कि साईं उनके गांव के हैं और ये लोग संसार में सबसे अधिक भाग्यशाली हैं जिनके यहां बाबा ने अपने कदम रखे। इतने गर्व की तो उन्हें छूट थी। जिस घर के सामने वे कहते थे - ‘‘ओ माई, रोटी का एक टुकड़ा देना, तेरे द्वार साईं आया है।’’
इतना सुनते ही गृहस्वामिनी के मन के उल्लास, आत्मा के हुलास, अंतस की वीणा के झंकार, भक्ति के प्रवाह, वैराग्य के प्रसार, कर्म के विस्तार, ध्यान की गहराई, विवेक की सूक्ष्मता और समर्पण की अनन्यता की कोई सीमा नहीं रह जाती थी। ब्रज की गोपांगनाओं को कन्हैया को माखन देने में जो आनंद आता था कदाचित् उससे कम आनंद शिर्डी की इन ललनाओं को नहीं आता था। धन्य भाग्य इनके। शुरू में वे जानती थीं कि यह फकीर किसी रंक को राजा बना सकता है। लेकिन बाद में उस संत को वह अपने घर का सदस्य ही नहीं बल्कि अपने सांसों में महसूस करने लगीं। उसे अपने दुख-दर्द की चिंता रही ही नहीं। सारे साईं के हवाले। इसके बाद शेष गया तो एक अनंत प्रेम जो कदाचित् अनिवर्चनीय है, अकथ्य है। जिसने इसे महसूस किया वही इसके उफान को बता सकता है, वही इसके विरह को व्यक्त कर सकता है। जिस दिन कन्हैया के दर्शन नहीं होते थे, जिस दिन कन्हैया माखन चोरी नहीं करते थे उस दिन ब्रज की ललनाएं उदास हो जाती थीं। उन्हें लगता था कि उनके जीवन का वह दिन व्यर्थ चला गया। संभवतः इसी भाव में डूबकर गोस्वामी जी ने कहा - ‘‘सोई करम धरम जरि जाउ। जहां न राम पद पंकज राउ।’’ ब्रज में कान्हा, अयोध्या में रामलला और शिर्डी में साईं।
शिर्डी में साईं का निवास शिर्डीवासियों के लिए ऐसा ही था जैसे साक्षात् परमेश्वर फकीर के वेश में प्रेम का चोला पहन कर उनके आंगन में थिरक रहा हो। जिस दिन भी इस थिरकन के उन्हें दर्शन नहीं होते थे उस दिन वे आपस में बात करने लगती थीं- ‘‘अरी बायजा, कहीं तूने बाबा को देखा है? अरी लक्ष्मी की मां, बाबा कहीं इधर से तो नहीं गुजरे हैं अरी नूर तुझे बाबा के बारे में कुछ पता है? न जाने बाबा कहां चले गए?’’ न जाने कितने प्रश्न, कितनी आशंकाएं एक साथ। मानो घर का कोई दुलारा बच्चा कहीं खो गया हो। इतने में साईंनाथ कोई पुरानी कफनी पहने हुए कहीं से आ जाते और सबको डांटने लगते- ‘‘अरी, तुमलोग इतनी शोर क्यों मचा रहे हो? किसका क्या खो गया? इतनी अशांति क्यों?’’ सभी चुप रहते। एकटक उस मोहनमूर्ति को देखते रहते जिसके स्नेह मिश्रित डांट के लिए लोगों में वैसी ही तड़प होती थी जैसे मछली जल के लिए तड़पती है। जहां सभी जानते थे कि बाबा ईश्वर हैं, फिर भी इतने प्रेमाकुल हो जाते थे कि बाबा के खो जाने के भय से कांपने लगते थे। जहां प्रभु के लिए लोग बेचैन होते हों वहीं भक्ति की गंगा बहती है। यहीं पर कवि ने गाया - ‘‘अरे मोर कहे बेकार नाचना है घनश्याम बिना। जल जाए जिह्वा पापिनी राम के बिना।’’
ये नारियां मन ही मन बाबा की नजरें उतारती थीं। वे बाबा की आरती तो करती हीं थीं। आरती का एक भाव यह है कि हमारे इष्ट की विपत्ति हमारे ऊपर आ जाए। इसलिए माताएं अपने बच्चों की आरती उतारा करती हैं। वे बाबा की आरती उतारती थीं और बाबा शिर्डी को आपद मुक्त कर देते थे। यह प्यार का सिलसिला बड़ा पुराना है। भक्त भगवान के दुख अपने ऊपर लेने के लिए बेताब और भक्त भगवान को प्रत्येक विपत्ति से मुक्त रखने के लिए बेचैन। विभीषण पर रावण ने शक्ति बाण चलाया लेकिन श्रीराम ने उस बाण को अपने ऊपर ले लिया। यही राम का रामत्व है। शरणागत की रक्षा, सखा की रक्षा प्रभु का पावन कर्तव्य है। वह जानते हैं कि उनका भक्त कितना झेल पाएंगे। साईंनाथ की महासमाधि से दो दिन पूर्व उनके भक्त तात्या पाटील उनसे मिलने आए। तात्या अपनी आखिरी सांसंे लेते हुए जान पड़ते थे, बाबा ने उनकी विपत्ति को अपने ऊपर ले लिया। इसके सत्ताईस वर्ष बाद तक तात्या जीवित रहे।
बाबा ने जिसका एक भी निवाला स्वीकार किया, उसका जीवन धन्य हो गया और उसके वंशज आज सुखी हैं। इस बात के साक्षी आज भी बाबा के समकालीन भक्तों के वंशज हैं। साईं को दक्षिणा में जो कुछ भी मिलता था उसे वे लोगों में बांट देते थे, खासकर जरूरतमंदों को। एक बार बाबा ने एक व्यक्ति से आधा मिनट के लिए बांस की सीढ़ी मांगी। तुरंत सीढ़ी वाले को सीढ़ी लौटाते समय उन्होंने उसे चांदी के तीन सिक्के दिए। लोगों को आश्चर्य लगा। बाबा ने लोगों के मनोभाव को देखते हुए कहा- ‘‘लोगों को उसके परिश्रम से अधिक मेहनताना देना चाहिए।’’ साईंनाथ की लीला साईं नाथ ही जानें। लेकिन बातों ही बातों में उन्होंने बहुत बड़े आदर्श को सिद्धांत के साथ-साथ व्यावहारिक स्वरूप दे गए। हालांकि यह कोई नहीं जानता की बाबा की दृष्टि कहां रहती थी। बय्याजी अप्पा पाटील की गोद में उन्होंने अपनी काया को पूर्ण विराम दिया।