एक बार एक धनी व्यक्ति था जो अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल संपत्ति, घोड़े, भूमि और अनेक दास दासियां थी। जब साईं बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुंची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि ‘‘मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिए अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है?’’ उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ‘‘ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, संतान और द्रव्योपार्जन में ही फंसा रहता है।
तुम्हंे ब्रह्मज्ञान कौन प्रदान करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का दान नहीं देता?’’ अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक तांगा लेकर शिरडी के लिए निकल पड़े और सीधे बाबा के पास पहुंच गए। साईंबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना की कि ‘‘आप यहां आने वाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रह्मदर्शन करा देते हैं, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से आया हूं। मंै इस यात्रा से अत्यधिक थक गया हूं। यदि मुझे ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो जाए तो मेरा यह कष्ट उठाना सफल हो जाए।’’ बाबा बोले, ‘‘मेरे प्रिय मित्र ! इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हे शीघ्र ही ब्रह्मदर्शन करा दूंगा।
मेरे सब व्यवहार तो नगद ही हैं और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद, आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति हेतु मेरे समीप आते हैं। ऐसा तो कोई विरला ही आता है, जो ब्रह्मज्ञान का पिपासु हो। भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहां आने वालों का कोई अभाव नहीं, परंतु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ है। मै सोचता हूं कि यह क्षण मेरे लिए बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहां पधारकर मुझे ब्रह्मज्ञान देने के लिए जोर दे रहे हैं। मैं सहर्ष आपको ब्रह्मदर्शन करा दूंगा। यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रह्म-दर्शन कराने हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में ला दिया, जिससे कुछ समय के लिए वे अपना प्रश्न भूल गए।
बाबा ने एक बालक को बुलाया और नंदू मारवाड़ी के यहां से पांच रूपए उधार लाने को भेजा। लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू के घर पर तो ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहां भेजा। इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला। सब को ज्ञात है कि बाबा स्वयं सगुण ब्रह्म के अवतार थे। यहां प्रश्न यह है कि इस पांच रूपए सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी? और उस ऋण को प्राप्त करने के लिए इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया? उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे की नन्दूजी घर पर नहीं हैं।
यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्रह्मजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियां थीं और यदि वे सचमुच ही ब्रह्मज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शांत न बैठते। जब बाबा व्यग्रता पूर्वक पांच रुपए उधार लाने के लिए बालक को यहां वहां दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते। महानुभाव जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर ऋण अवश्य चुकाएंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहे और पांच रुपए उधार देने तक का साहस न कर सके। उन्होंने न रुपए दिए और न ही शांत बैठे बल्कि अधीर होकर बाबा से बोले कि ‘‘अरे बाबा ! कृपया मुझे शीघ्र ब्रह्मज्ञान दो।’’ बाबा ने उत्तर दिया कि ‘‘मेरे प्यारे मित्र! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया? मैं तुम्हे ब्रह्मदर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था। संक्षेप में तात्पर्य यह है कि ‘‘ब्रह्म दर्शन के लिए पांच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता है।
1. पांच प्राण
2. पांच इन्द्रियां
3. मन
4. बुद्धि तथा
5. अहंकार।
आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना।’’ जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नहीं हो जाता, तब तक तुम ब्रह्म के सत्यस्वरूप को नहीं जान सकते। तुलसीदास जी कहते हैं- ‘‘जहां राम तहं काम नहीं, जहां काम नहिं राम। तुलसी कबहूं होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।’’ जहां लोभ है, वहां ब्रह्म के चिंतन या ध्यान की गुंजाइश ही नहीं है। फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूं, परंतु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है। बाबा द्वारा दिये गये इस ज्ञान-भोज को प्राप्त कर वह धनी महाशय संतोषपूर्वक अपने घर को लौट गए।
ऐसे संत अनेक हैं, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं में एकांतवास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं। श्री साईं बाबा इस प्रकृति के न थे। यद्यपि उनका कोई घर द्वार, स्त्री और संतान, समीप या दूर के संबंधी नहीं थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे। वे केवल चार-पांच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीम वृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे। इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिए, इसकी भी वे शिक्षा देते थे। ऐसे साधु या संत प्रायः विरले ही होते हैं, श्री सांई बाबा इनमें अग्रणी थे, इसलिए हेमाडपंत कहते हैं:- ‘‘वह देश धन्य है, वह कुटुंब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य हैं, जहां साईं बाबा के रूप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुद्ध रत्न उपरत्न हुआ।