संसार के आधुनिक संतों में ‘‘शिरडी के साईं बाबा’’ का चरित्र अद्भुत है। उनमें अलौकिक शक्तियों का अनन्त कोष था। साईं बाबा के माता-पिता कौन थे? उनका जन्म कब और कहां हुआ था? इस संबंध में किसी को भी ठीक से कुछ ज्ञात नहीं है। इस संदर्भ में काफी खोजबीन की गई और स्वयं साईं बाबा से भी पूछा गया लेकिन कोई भी संतोषजनक उत्तर या कोई सूत्र हाथ नहीं लग सका। साईं बाबा वेशभूषा से तो यवन (मुसलमान) लगते थे, लेकिन वास्तविकता में वे हिंदू ब्राह्मण थे। स्वयं साईं बाबा ने अपने अंतरंग भक्त म्हालसापति को बतलाया था कि मेरा जन्म पाथर्डी (पाथरी) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मेरे माता-पिता ने मुझे बाल्यावस्था में ही एक फकीर को सौंप दिया था। उस समय वहां पाथर्डी से कुछ लोग आए हुए थे तब बाबा ने पाथर्डी के अपने परिचितों की कुशलक्षेम पूछी थी। इसी तरह पूना की एक प्रसिद्ध विदूषी महिला श्रीमती काशीबाई कानेटकर ने साईं लीला पत्रिका, भाग-2 (1934) के पृष्ठ 79 पर अनुभव नंबर 5 में प्रकाशित किया कि बाबा के चमत्कारों को सुनकर वे लोग अपनी ब्रह्मवादी संस्था की पद्धति के अनुसार विवेचना कर रहे थे कि साईं बाबा ब्रह्मवादी हैं या वाममार्गी हैं।
इसी सिलसिले में एक बार जब श्रीमती कानेटकर शिरडी गईं तो साईं बाबा के बारे में उनके दिमाग में अनेक विचार उठ रहे थे। जैसे ही उन्होने मस्जिद की सीढ़ियों पर पैर रखा, बाबा उठकर सामने आ गए और अपने हृदय की ओर संकेत करके कानेटकर की ओर घूरते हुये बोले कि यह ब्राह्मण है, शुद्ध ब्राह्मण है। इसे वाममार्ग से क्या लेना-देना? इस मस्जिद में कोई भी यवन प्रवेश करने का दुस्साहस नहीं कर सकता और न ही वह ऐसा करे। फिर उन्होंने अपने हृदय की ओर संकेत कर कहा कि यह ब्राह्मण लाखों मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर सकता है और उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति करा सकता है। यह ब्राह्मण की मस्जिद है। मैं यहां किसी वाममार्गी की छाया भी नहीं पड़ने दूंगा। साईं बाबा का आचरण साम्प्रदायिकता से परे था। वह हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्म ग्रंथों से उद्धरण देते थे और दोनों की व्याख्या करते थे। उनके पास आने वाले भक्त सभी धर्मों के होते थे। वह उनकी धार्मिक परंपरा के अनुसार ही शिक्षा-दीक्षा देते थे। अतः हिंदू-मुसलमान उनका समान रूप से आदर करते थे।
साईं बाबा को किसी ने कभी भी पढ़ते-लिखते नहीं देखा था; लेकिन शास्त्रों के जटिल से जटिल प्रश्नों का समाधान वे बड़ी सरलता से कर देते थे। उनकी व्याख्याएं सुनकर बड़े-बड़े पंडित मौलवी आश्चर्यचकित रह जाते थे। साईं बाबा हिंदू और मुसलमान दोनों के धार्मिक पर्व बड़े उत्साह से मनाते थे। यद्यपि वह मस्जिद में रहते थे, लेकिन हिंदू संतांे की तरह धूनी जलाए रखते थे। हिंदुओं का हिंदू शास्त्रों के अनुसार मार्ग दर्शन करते थे और मुसलमानों को मुस्लिम साधना का बोध कराते थे। जब तरूण साईं बाबा शिरडी आए तो एक नीम के पेड़ के नीचे रहने लगे। उस समय ये किसी से अधिक बात नहीं करते थे। धार्मिक वृत्ति के लोग जो खाने-पीने को दे देते थे, उसी से संतोष कर लेते थे। कुछ समय बाद ये एक हिंदू मंदिर में गए तो मंदिर के संरक्षक ने उनको मुसलमान फकीर समझ कर कह दिया कि यहां कैसे रहोगे किसी मस्जिद में जाकर रहो। शिरडी में एक टूटी-फूटी मस्जिद थी। युवा साईं वहीं रहने लगे। प्रारंभ में उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया; क्योंकि वे किसी से विशेष संपर्क नहीं रखते थे। वे जहां रहते थे, वहां निरंतर आग (धूनी) जला करती थी।
प्रातः दो चार घरों से भिक्षा मांगने चले जाते थे। उनकी एक विचित्र आदत थी। वे दुकानदारों से तेल मांग कर लाते थे और मस्जिद में रोजाना दीपावली की तरह दीपक जलाते थे। एक दिन दुकानदारों को मजाक सूझा। उन्होंने आपस में निश्चय किया कि आज इस युवा फकीर को तेल नहीं दिया जाए, देखें क्या करता है? जब तरूण साईं तेल मांगने गये तो सभी ने तेल देने से इन्कार कर दिया। युवा साईं निर्विकार भाव से मस्जिद चले आए। कुछ दुकानदार जिज्ञासावश उनके पीछे-पीछे आए। मस्जिद आकर तरूण साईं ने एक बर्तन में पानी लिया और सब दीपकों में डाल दिया और दीपकों को जला दिया। देखने वालों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, क्योंकि सभी दीपक पूर्ण प्रकाश के साथ जलने लगे। संभवतः उस तरूण साईं का शिरडी में यह पहला चमत्कार था। इसी से नगर के लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ और लोग उनका अलौकिक शक्ति संपन्न संत के रूप में आदर करने लगे। यह सभी जानते हैं कि बाबा सबसे दक्षिणा लेते थे। दक्षिणा की जो राशि इकट्ठी होती थी उसमें से कुछ राशि को भक्तों में बांट देते थे, बांटने के पश्चात जो राशि बच जाती थी उससे वे लकड़ियां खरीद लेते थे, जिससे धूनी को सदैव प्रज्ज्वलित रखते थे।
धूनी की जो भस्म होती थी वह ‘‘उदी’’ कहलाती थी। वही उदी वे भक्तों में मुक्त भाव से वितरित किया करते थे। वह उदी बड़ी चमत्कारी होती थी। उसका प्रभाव श्री साईं बाबा की कृपा से बड़ा चमत्कारी होता था। बाबा द्वारा उदी वितरण के पीछे भी एक रहस्य था। वे ऐसा करके अपने भक्तों को शिक्षा देना चाहते थे कि यह पंच भौतिक शरीर नाशवान है। एक दिन यह भस्मीभूत हो जाएगा। यह संसार मिथ्या है। एक ब्रह्म ही सत्य है। संसार के रिश्ते-नाते संसार तक ही सीमित हैं। संसार के आगे की यात्रा जीव अकेला ही करेगा। उदी द्वारा वे सत्यासत्य का लोगों को ज्ञान कराना चाहते थे। बाबा की उदी जहां वैराग्य का प्रतीक थी तो दक्षिणा त्याग का प्रतीक था। वे समझाना चाहते थे कि वैराग्य और त्याग के बिना इस मायामय संसार को पार करना बड़ा कठिन है। जब भक्त बाबा से विदा लेने जाते थे तो बाबा उदी उनके मस्तक पर लगा कर उन्हें आशीर्वाद देते थे। जब वे प्रसन्न चित्त होते थे तब मधुर स्वर में यह भजन गाते थे। रमते राम आओजी आओजी। उदिया की गोनियां आओजी। उदी के प्रभाव से भक्तों को न केवल आध्यात्मिक वरन सांसारिक लाभ भी होता था। उदी से संबंधित चमत्कारों की अनेकों वास्तविक घटनाएं हैं जिन्हें लिखने हेतु एक पुस्तक का अलग से लेखन करना होगा।
साईं बाबा के पास मस्जिद में एक पुरानी ईंट थी जिस पर बाबा हाथ टेककर बैठते थे और रात्रि में उसका सिरहाना लगाकर शयन करते। वह ईंट बाबा की महा समाधि लेने के पूर्व खंडित हो गई। यह एक प्रकार का अपशकुन था। बाबा को जब ईंट टूटने की जानकारी हुई तो वे दुखी होकर बोले यह ईंट फूटी नहीं, मेरा भाग्य ही टूट फूटकर छिन्न-भिन्न हो गया। यह मेरी जीवन संगिनी थी। इसको पास रखकर मैं चिंतन किया करता था। यह मुझे प्राणों की तरह प्रिय थी। आज इसने मेरा साथ छोड़ दिया। यह वाकया बाबा के निर्वाण काल के दो वर्ष पूर्व हुआ था तभी बाबा ने संकेत दिया था जिसे कोई समझ नहीं पाया था। इसके अतिरिक्त बाबा ने कई संदेश और दिये थे जैसे संत रामचंद्र व तात्या की मृत्यु को टालना इत्यादि। श्री साईं बाबा के जीवन की अनेक ऐसी सच्ची घटनाएं हैं जिन्हें लिखने के लिए अलग से ग्रंथ रचना करनी पड़ेगी। इस छोटे से लेख में यह संभव नहीं है। श्री साईं बाबा समय के सद्गुरु थे। उनका सान्निध्य व कृपा प्राप्त कर अनेकानेक भक्तों ने अपना कल्याण किया है। ऐसे सद्गुरु श्री साईं नाथ महाराज ने 15 अक्तूबर 1918 को दोपहर 2 बजकर 30 मिनट पर महासमाधि ली, इस दिन विजयादशमी का पावन पर्व भी था।