संसार में जो दो महायुद्ध लड़े गए उनके पीछे धार्मिक कट्टरताओं का हाथ है। स्वयं ईसाई मत की अनेक धाराओं के बीच सदियों तक संघर्ष चलता रहा। इन संघर्षों के कारण राष्ट्रों की नीतियां प्रभावित होती रहीं। उनके बीच आपसी वैमनस्य बढ़ता गया और अंततः व्यापक स्तर पर नरसंहार हुआ। इस प्रकार प्रभु यीशु के मूल संदेश का ही घोर अपमान हुआ। जिस धर्म के मसीहा हंसते हंसते सूली पर चढ़ गए हों, उसके अनुयायी स्वयं को असली ईसाई सिद्ध करने के लिए दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में महायुद्ध करवा दिया। सोवियत क्रांति के समय रूस के निरंकुश शासक जार निकोलस द्वितीय की पत्नी जरिना एक ईसाई पादरी के मोहपाश में फंसी हुई थी। जरिना और उस पादरी के व्यवहार ने क्रांति की आग में घी का काम किया। यह केवल एक ईसाई मत में मतान्तर की बात नहीं है बल्कि इस्लाम में भी लोग शिया और सुन्नी पंथ के बीच टकराहट में फंसे हुए हैं। अपने-अपने मत को श्रेष्ठ साबित करने के लिए खूनी संघर्ष जारी रखे हुए हैं। हिंदू लोग भी बहुत दिनों तक शैव और वैष्णव के संघर्ष में उलझे रहे। एक समय तो इस संघर्ष ने ऐसा रूप ले लिया कि कांचीपुरम नगर के बीच में दीवार डाला गया। एक भाग को शिव कांची कहा गया और दूसरे को विष्णु कांची। दक्षिण मार्गी लोग वाममार्गियों से उलझते रहते थे।
बाबा ने इन सबसे बचने के लिए कहा - ‘सबका मालिक एक’। यह परमेश्वर की ओर से दिया गया एक आप्तवचन है। इसके पालन से इस संसार में शांति स्थापित होगी। दुनिया को अभी एक ही नारा की आवश्यकता है जो अमोघ मंत्र की शक्ति रखता है। उसे ही साईंबाबा के भक्त कहते हैं - सबका मालिक एक। जो अल्लाह और श्रीहरि को दो मानते हैं वे एक ऐसा दृष्टांत दिखा दें कि कभी अल्लाह और श्रीहरि ने युद्ध किया हो। अध्यात्म और कट्टरता एक दूसरे के विरोधी हैं। जो कट्टर होगा, वह आध्यात्मिक नहीं हो सकता। कट्टरता का आधार घृणा है और आध्यात्मिकता का आधार प्रेम। जो सबसे प्रेम करेगा, वही ईश्वर से प्रेम करेगा क्योंकि सबमें वही परमात्मा है। यदि सबको एक ही परमात्मा ने बनाया है तो सबका मालिक एक ही है और सबसे प्रेम करना उस परमात्मा से प्रेम करना है। साईं तो यहां तक कह देते हैं कि किसी मत के खंडन के व्यर्थ वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। शास्त्रार्थ सत्संग की भावना से करें ताकि हम सभी साथ मिलकर सत्य तक पहुंचने का प्रयास करें। ‘श्रद्धा, सबूरी और सबका मालिक एक’ साईं भक्ति के सिंधु के तीन बिंदु हैं। इन तीन बिंदुओं से परमानंद का जो त्रिभुज बनता है उसमें हर कोई प्रवेश कर सकता है; चाहे उसका धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, आस्था कुछ भी क्यों न हो। वह अपनी सांस्कृतिक, मजहबी और राष्ट्रीय पहचान खोए बिना साईं का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है।
कुछ लोग अद्वैतवाद की मूल भावना को भूलकर उसको बाह्य तौर पर समझने लगते हैं। ऐसे लोग कहते हैं कि साईंबाबा तो धरती के कण-कण में हैं, फिर शिर्डी या किसी विशेष मंदिर में जाने की आवश्यकता क्या है? इस संबंध में आदि शंकराचार्य का मत ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं- भाव अद्वैतम् करणीयम् व्यवहार अद्वैतम् च करणीयम्। अर्थात् भाव के स्तर पर अद्वैतवादी होना अच्छा है कि जो कुछ है ब्रह्म है, उसके सिवा कुछ नहीं - सबमें ब्रह्म ही है। लेकिन व्यवहार में अद्वैतवादी होना उचित नहीं। यदि सचमुच में धरती के कण-कण में किसी को ब्रह्म के दर्शन होने लगें तो उसके लिए किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं लेकिन आलस्य अथवा प्रमाद से ग्रस्त होकर श्रेष्ठ जन, गुरुजन और इष्ट की सेवा से जी चुराने के लिए अद्वैतवादी होना उचित नहीं। व्यवहार में अद्वैतवादी होने से विश्व व्यवस्था शिथिल पड़ जाएगी, लोग अकर्मण्य हो जाएंगे। महान पुरुष और महान साधक अपने गुरु, इष्ट और श्रेष्ठजन की सेवा अधिक तल्लीनता से करें क्योंकि उनका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। श्रीमन् शंकराचार्य यहां तक कहते हैं- ‘‘तुम संपूर्ण संसार के साथ अद्वैतवादी हो सकते हो लेकिन अपने गुरु के साथ नहीं। साईंबाबा तो गुरुओं के भी गुरु हैं। बाबा सद्गुरु हैं। उन्होंने किसी के कान में मंत्र नहीं दिए।
कदाचित् प्रभु की इच्छा साईंभक्ति को गुरुओं की परंपरा से मुक्त रखने की रही होगी। किसी पंथ या भक्ति मार्ग में गुरु की आवश्यकता तभी होती है जब आचार्य यानी उस मार्ग के प्रवर्तक की मृत्यु हो जाती है। बाबा कहते रहते हैं- ‘मुझे सदा जीवित ही जानो।’ इस संबंध में आए दिन होने वाले भक्तानुभव भी साक्षी हैं कि बाबा प्रत्यक्ष रूप से जनकल्याण कर रहे हैं, लोगों को मुक्ति दे रहे हैं। साईं भक्ति के आचार्य भी बाबा ही हैं और सदा विद्यमान रहने वाले सद्गुरु भी वहीं हैं। बाबा के उपदेश ही हमारे लिए गुरु उपदेश है। हालांकि बाबा की महासमाधि के बाद कई लोगों ने उनका स्थान लेने का प्रयास किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। बाबा के मार्ग में भक्त और भगवान के बीच कोई नहीं है। यहां पर भगवान स्वयं सद्गुरु हैं। हां यदि किसी ने पहले किसी को अपना गुरु बना लिया है तो उनको संपूर्ण आदर दें, इससे साईं बाबा उनसे प्रसन्न ही रहेंगे। केवल परिपाटी या परंपरा बनने से परहेज है। जैसे मध्यकाल में पादरी लोग भोली भाली जनता को गुमराह करने के लिए स्वर्ग का टिकट दिया करते थे, वैसा नहीं होना चाहिए। सद्गुरु साईंनाथ स्वयं आपका मार्गदर्शन करेंगे। केवल उनकी शरण में चले जाइए, वे प्रेरणा देते रहेंगे कि इससे आगे क्या करना चाहिए। जितना व्यक्ति को स्वयं की चिंता है उससे कहीं अधिक उसकी चिंता बाबा करते हैं।
व्यक्ति को अपने भविष्य की चिंता है लेकिन बाबा इसके हजारों साल पिछले और अगले जन्मों तथा उसके लेखा-जोखा को देख रहे हैं। साईं की नजर कई ब्रह्मांडों के आर-पार के संसार को देख रही है। उन नजरों में सब कुछ है। बाबा उपवास आदि रखने से मना करते थे। वे कहा करते थे व्यक्ति जब उपवास मंे रहता है तो उसका मन अशांत रहता है। अशांत मन से ब्रह्म को नहीं पाया जा सकता है। उपवास का अर्थ है ईश्वर के समीप रहना। उप का अर्थ है निकट और वास का अर्थ है रहना। ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना ही वास्तविक उपवास है। अन्न त्याग तो उपवास का विकृत रूप है। कहा गया है कि ‘कलौ अन्नगत प्राणः’ अर्थात् कलयुग में अन्न में ही प्राण है। अन्न के बिना शरीर में प्राण तत्व क्षीण हो जाएंगे। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भोग में लिप्त हो जाया जाए, ‘उदरधर्मम् सर्वधर्म प्रधानम्’ न घोषित कर दिया जाए। पेट ही सर्वोपरि है ऐसा भी न माना जाए। न अधिक भोग करें और न ही अनावश्यक संयम करें। संतुलित जीवन जीएं। बाबा के नाम पर उपवास आदि कर्मकांड को न फैलाया जाए। साथ ही यथासंभव सबके पोषण का ध्यान रखा जाए क्योंकि धरती के प्रत्येक जीव को भोजन मिलना चाहिए और प्रत्येक मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त वस्त्र और आवास मिलना चाहिए। इसके लिए ब्रह्म भाव से जीव की सेवा करनी चाहिए - अन्न, वस्त्र आदि से सेवा सराहनीय है।
लेकिन मनुष्योपयोगी अन्न आदि की जमाखोरी अथवा गलत तरीके से धन संग्रह करके अपने पाप को कम करने के भाव से किए जाने वाले भंडारे से साईं प्रसन्न नहीं हो सकते। यदि घोर पाप के बावजूद किसी ने सचमुच पश्चात्ताप किया है और उसका हृदय परिवर्तित हो गया है तो उस पर साईं की कृपा अवश्य होगी। उसका दिया हुआ पत्र-पुष्प साईं अवश्य स्वीकार करेंगे। जो वास्तव में परिवर्तित हो गया, उसका सचमुच पुनर्जन्म हो गया। किसी को जो भी वस्तु दें, वह श्रद्धा पूर्वक दें। किसी याचक को न दे सकें तो उसका अपमान भी न करें। किसी की निंदा न करें क्योंकि ंिनंदा से मन में विकार उत्पन्न होते हैं। बाबा की भक्ति में कोई विशेष बंधन नहीं, कोई विशेष कर्मकांड नहीं। लोग अपनी निष्ठा के अनुरूप बाबा की सेवा करें। यदि भक्त को सुविधा होती है कि वे भोजन करके बाबा के मंदिर जाएं तो जा सकते हैं अथवा किसी को वैसे ही जाने से सुविधा होती है, वैसे ही जाएं। लेकिन स्वयं को अशांत करके भक्ति न करें अथवा बाबा के नाम पर स्वयं को भोग में लिप्त न करें। बुद्ध वाक्य को ध्यान में रखें - ‘वीणा के तार को इतना न कसो कि वह टूट जाए और उसे उतना न ढीला छोड़ो की वह बजने न पाए।’ हां, यदि व्यक्ति बाबा को अर्पित करने के बाद ही भोजन करे तो बाबा को प्रसन्नता होती है। बाबा कहते हैं- ‘‘जो मुझे अर्पित किए बिना कुछ भी नहीं खाता, उसका तो मैं दास हो जाता हूं।’’
जहां बाबा की प्रतिमा अथवा चित्र है तो वहां उनके आगे भोग लगाकर भोजन करना श्रेयस्कर होगा अन्यथा जहां यह उपलब्ध नहीं है, वहां मन ही मन साईं को अर्पित करके भोजन किया जा सकता है। बाबा के चित्र के आगे धूप-दीप दिखाने से स्वयं का जीवन प्रकाशमय होता है जीवन में सुगंध फैलता है। वास्तव में हम जब किसी प्रतिमा को दीप दिखाते हैं तो उस दीप के आलोक में हम स्वयं के जीवन को आलोकित करते हैं। बाबा अपने चित्र तथा प्रतिमा में सदैव प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं। इसके सैकड़ों प्रमाण मिल चुके हैं। मंदिरों की अपनी मर्यादा होती है। वहां पर बाबा को स्नान, भोग, आरती बहुत ही मर्यादापूर्वक कराया जाता ये। ये सभी विधान इस भाव से पूरे किए जाते हैं जैसे कि बाबा प्रत्यक्ष रूप से सब कुछ ग्रहण कर रहे हों। बाबा साक्षात् सब कुछ ग्रहण करते हैं। इस संबंध में कई भक्तानुभव हैं। संक्षेप में, सभी प्रकार के चातुर्य का त्याग कर जो बाबा की शरण में चला जाता है, बाबा उसकी सब प्रकार से रक्षा करते हैं- उसके इस लोक को तो आनंदमय बना ही देते हैं, उसका परलोक भी संवार देते हैं; उसे मुक्त कर देते हैं।