ब्रह्म का सगुण अवतार बाह्य दृष्टि से श्री साईं बाबा साढ़े तीन हाथ लम्बे एक सामान्य पुरुष थे, फिर भी प्रत्येक के हृदय में वे विराजमान थे। अंदर से वे आसक्ति-रहित और स्थिर थे, परन्तु बाहर से जन-कल्याण के लिये सदैव चिन्तित रहते थे। अंदर से वे संपूर्ण रुप से निःस्वार्थी थे। भक्तों के निमित्त उनके हृदय में परम शांति विराजमान थी, परंतु बाहर से वे अशान्त प्रतीत होते थे। वे अन्तस से ब्रह्म ज्ञानी, परन्तु बाहर से संसार में उलझे हुए दिखलाई पड़ते थे। वे कभी प्रेमदृष्टि से देखते तो कभी पत्थर मारते, कभी गालियाँ देते और कभी हृदय से लगाते थे। वे गम्भीर, शान्त और सहनशील थे। वे सदैव दृढ़ और आत्मलीन रहते थे और अपने भक्तों का सदैव उचित ध्यान रखते थे। वे सदा एक आसन पर ही विराजमान रहते थे। वे कभी यात्रा को नहीं निकले। उनका दंड एक छोटी सी लकड़ी था, जिसे वे सदैव अपने पास सँभाल कर रखते थे। विचारशून्य होने के कारण वे शान्त थे। उन्होंने कांचन और कीर्ति की कभी चिन्ता नहीं की तथा सदा ही भिक्षावृत्ति द्वारा निर्वाह करते रहे। उनका जीवन ही इस प्रकार का था। ‘अल्लाह मालिक’ सदैव उनके होठों पर रहता था। उनका भक्तों पर विशेष और अटूट प्रेम था। वे आत्म-ज्ञान की खान और परम दिव्य स्वरुप थे।
श्री साईं बाबा का दिव्य स्वरुप इस तरह का था। बाबा का ध्येय और उपदेश सत्रहवीं शताब्दी (1608-1681) में सन्त रामदास प्रकट हुए और उन्होंने यवनों से गायों और ब्राह्मणों की रक्षा करने का कार्य पर्याप्त सीमा तक सफलतापूर्वक किया। परन्तु दो शताब्दियों के व्यतीत हो जाने के बाद हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य बढ़ गया और इसे दूर करने के लिये ही श्री साईं बाबा प्रगट हुए। उनका सभी के लिये यही उपदेश था कि राम (जो हिन्दुओं के भगवान हंै) और रहीम (जो मुसलमानों के खुदा हैं) एक ही हैं और उनमें किंचित मात्र भी भेद नहीं है। फिर तुम उनके अनुयायी क्यों पृथक-पृथक रहकर परस्पर झगड़ते हो। अज्ञानी बालकों ! दोनों जातियाँ एकता साध कर और एक साथ मिलजुलकर रहो। शांत चित्त से रहो और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का ध्येय प्राप्त करो। कलह और विवाद व्यर्थ है। इसलिए न झगड़ो और न परस्पर प्राणघातक ही बनो। सदैव अपने हित तथा कल्याण का विचार करो। श्री हरि तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे। योग, वैराग्य, तप, ज्ञान आदि ईश्वर के समीप पहुँचने के मार्ग हंै। यदि तुम किसी तरह सफल साधक नहीं बन सकते तो तुम्हारा जन्म व्यर्थ है। तुम्हारी कोई कितनी ही निन्दा क्यों न करे, तुम उसका प्रतिकार न करो।
यदि कोई शुभ कर्म करने की इच्छा है तो सदैव दूसरों की भलाई करो। संक्षेप में यही श्री साईं बाबा का उपदेश है कि उपयुक्त कथनानुसार आचरण करने से भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में तुम्हारी प्रगति होगी। गुरु तो अनेक हैं। कुछ गुरु ऐसे हैं, जो द्वार-द्वार हाथ में वीणा और करताल लिये अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करते फिरते हैं। वे शिष्यों के कानों में मंत्र फूँकते और उनकी सम्पत्ति का शोषण करते हैं। वे ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता का केवल ढोंग ही रचते हैं। वे वस्तुतः अपवित्र और अधार्मिक होते हैं। श्री साईं बाबा ने धार्मिक निष्ठा प्रदर्शित करने का विचार भी कभी मन में नहीं किया। दैहिक बुद्धि उन्हें किंचितमात्र भी छू न गई थी। परन्तु उनमें भक्तों के लिए असीम प्रेम था ।
गुरु दो प्रकार के होते हैं: 1. नियत और 2. अनियत । अनियत गुरु के आदेशों से अपने में उत्तम गुणों का विकास होता है तथा चित्त की शुद्धि होकर विवेक की वृद्धि होती है। वे भक्ति-पथ पर लगा देते हैं। परन्तु नियत गुरु की संगति मात्र से द्वैत बुद्धि का ह्रास शीघ्र हो जाता है। गुरु और भी अनेक प्रकार के होते हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की सांसारिक शिक्षायें प्रदान करते हैं। यथार्थ में जो हमें आत्मस्थित बनाकर इस भवसागर से पार उतार दे, वही सद्गुरु है। श्री साईंबाबा इसी कोटि के सद्गुरु थे। उनकी महानता अवर्णनीय है। जो भक्त बाबा के दर्शनार्थ आते, उनके प्रश्न करने के पूर्व ही बाबा उनके समस्त जीवन की त्रिकालिक घटनाओं का पूरा-पूरा विवरण कह देते थे। वे समस्त भूतों में ईश्वर-दर्शन किया करते थे। मित्र और शत्रु उन्हें दोनों एक समान लगते थे। वे निःस्वार्थी तथा दृढ़ थे। भाग्य और दुर्भाग्य का उन पर कोई प्रभाव न था। वे कभी संशयग्रस्त नहीं हुए। देहधारी होकर भी उन्हें देह की किंचितमात्र आसक्ति न थी। देह तो उनके लिए केवल एक आवरण मात्र था। यथार्थ में तो वे नित्य मुक्त थे।
बाबा की विनयशीलता ऐसा कहते हैं कि भगवान् में 6 प्रकार के विशेष गुण होते हैं, यथा: 1. कीर्ति 2. श्री 3. वैराग्य 4. ज्ञान 5. ऐश्वर्य और 6. उदारता श्री साईंबाबा में भी ये सब गुण विद्यमान थे। उन्होंने भक्तों की इच्छा-पूर्ति के निमित्त ही सगुण अवतार धारण किया था। उनकी कृपा (दया) बड़ी ही विचित्र थी। वे भक्तों को स्वयं अपने पास आकर्षित करते थे अन्यथा उन्हें कोई कैसे जान पाता। भक्तों हेतु वे अपने श्रीमुख से ऐसे वचन कहते,जिनका वर्णन करने का सरस्वती भी साहस न कर सकती। बाबा अति विनम्रता से इस प्रकार बोलते दासानुदास, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, तुम्हारे दर्शन मात्र से मुझे सान्त्वना मिली, यह तुम्हारा मेरे ऊपर बड़ा उपकार है कि जो मुझे तुम्हारे चरणों, का दर्शन प्राप्त हुआ । तुम्हारे दर्शन कर मैं अपने को धन्य समझता हूँ। कैसी विनम्रता है ये। दृष्टि से बाबा विषय-पदार्थों का उपभोग करते हुए प्रतीत होते थे,परन्तु उन्हें किंचितमात्र भी उनकी गन्ध न थी और न ही उनके उपभोग का ज्ञान था। वे खाते अवश्य थे, परन्तु उनकी जिह्ना को कोई स्वाद न था। वे नेत्रों से देखते थे, परंतु उस दृश्य में उनकी कोई रुचि न थी। काम के संबंध में वे हनुमान सदृश अखंड ब्रह्मचारी थे। उन्हें किसी पदार्थ में आसक्ति न थी।
वे शुद्ध चैतन्य स्वरुप थे, जहाँ समस्त इच्छाएँ, अहंकार और अन्य चेष्टाएँ विश्राम पाती थीं। संक्षेप में वे निःस्वार्थ, मुक्त और पूर्ण ब्रह्म थे। इस कथन को समझने के हेतु एक रोचक कथा का उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है: शिरडी में नानावल्ली नाम का एक विचित्र और अनोखा व्यक्ति था। वह बाबा के सब कार्यों की देखभाल किया करता था। एक समय जब बाबा गादी पर विराजमान थे, वह उनके पास पहुँचा। वह स्वयं ही गादी पर बैठना चाहता था इसलिये उसने बाबा को वहाँ से हटने को कहा। बाबा ने तुरन्त गादी छोड़ दी और तब नानावल्ली वहाँ विराजमान हो गया। थोड़े ही समय वहाँ बैठकर वह उठा और बाबा को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा। बाबा पुनः आसन पर बैठ गये। यह देखकर नानावल्ली उनके चरणों पर गिर पड़ा और भाग गया। इस प्रकार अनायास ही आज्ञा दिये जाने और वहाँ से उठाये जाने के कारण बाबा में किंचितमात्र भी अप्रसन्नता की झलक न थी। यद्यपि बाह्य दृष्टि से श्री साईंबाबा का आचरण सामान्य पुरुषों के सदृश ही था,परन्तु उनके कार्यों से उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता और चतुराई स्पष्ट ही प्रतीत होती थी। उनके समस्त कर्म भक्तों की भलाई के निमित्त ही होते थे। उन्होने कभी भी अपने भक्तों को किसी आसन या प्राणायाम के नियमों अथवा किसी उपासना का आदेश कभी नहीं दिया और न उनके कानों में कोई मन्त्र ही फूँका।
बाबा का विचित्र बिस्तर श्री नाना साहेब डेंगले एक चार हाथ लम्बा और एक हथेली चैड़ा लकड़ी का तख्ता श्री साईंबाबा के शयन हेतु लाये। तख्ता कहीं नीचे रख कर उस पर सोते, ऐसा न कर बाबा ने पुरानी चिन्दियों से मस्जिद की बल्ली से उसे झूले के समान बाँधकर उस पर शयन करना प्रारम्भ कर दिया । चिन्दियों के बिल्कुल पतली और कमजोर होने के कारण लोगों को उसका झूला बनाना एक पहेली-सा बन गया। चिन्दियाँ तो केवल तख्ते का भी भार वहन नहीं कर सकती थी। फिर वे बाबा के शरीर का भार किस प्रकार सहन कर सकेंगी। जिस प्रकार भी हो, यह तो राम ही जानें, परन्तु यह तो बाबा की एक लीला थी, जो फटी चिन्दियाँ तख्ते तथा बाबा का भार सँभाल रही थी। तख्ते के चारों कोनों पर दीपक रात्रि भर जला करते थे। बाबा को तख्ते पर बैठे या शयन करते हुए देखना दुर्लभ दृश्य था। सब आश्चर्यचकित थे कि बाबा किस प्रकार तख्ते पर चढ़ते होंगे और किस प्रकार नीचे उतरते होंगे। कौतूहलवश लोग इस रहस्योद्घाटन हेतु दृष्टि लगाये रहते थे, परंतु यह समझने में कोई भी सफल न हो सका और इस रहस्य को जानने के लिये भीड़ उत्तरोत्तर ही बढ़ने लगी। इस कारण बाबा ने एक दिन तख्ता तोड़कर बाहर फेंक दिया। यद्यपि बाबा को अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त थी, परन्तु उन्होंने कभी भी उनका प्रयोग नहीं किया और न कभी उनकी ऐसी इच्छा ही हुई। वे तो स्वतः ही स्वाभाविक रुप से पू्र्णता प्राप्त होने के कारण उनके पास आ गई थीं।