तीन दिनों की समाधि और पुनः शरीर में प्राण की वापसी: बाबा की लीलाओं की चर्चा दूर दराज तक फैल गई। ऐसे में बाबा के शिर्डी निवास के लगभग तीन दशक व्यतीत हो गए। बाबा संसार में व्याप्त दुख दर्द से पीड़ित हो गए। वे लोगों के दुख दर्द को दूर करते जा रहे थे लेकिन संसार के दुख का कोई अंत ही नहीं हो रहा था। वे लोगों के कर्म फल के भोग में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे क्योंकि इससे सृष्टि की व्यवस्था असंतुलित हो जाती। अपने ब्रह्म स्वरूप में बाबा संसार की प्रत्येक गतिविधि के नियंता थे लेकिन उनके करुणामय साईं अवतार से संसार की व्यथा देखी नहीं जा रही थी।
लोगों की व्यथा को दूर करते उनकी काया दमा पीड़ित हो गई। पता नहीं, इसमें बाबा की क्या लीला थी? उन्होंने सन् 1886 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा की रात में अपने प्राण को ब्रह्मांड में विसर्जित करने का निर्णय लिया। इससे पूर्व उन्हांेने अपने भक्त म्हाल्सापति को कहा- ‘‘म्हाल्सापति, मैं समाधि ले रहा हंू। यदि मैं 72 घंटे के अंदर अपने इस शरीर में लौटकर नहीं आया तो इस कोने में मेरी समाधि बना देना और उस पर दो ध्वज फहरा देना। इस दौरान तुम मेरे शरीर की रक्षा करते रहोगे। इसके बाद उस रात दस बजे द्व ारकामाई में बाबा ने योगमुद्रा में स्थित होकर अपने प्राण ब्रह्मांड में विसर्जित कर दिए। यह समाचार शिर्डी और आसपास के इलाके में फैल गई। भक्तों की भीड़ द्वारकामाई में जमा होने लगी। चिकित्सा परीक्षण के बाद चिकित्सकों ने बाबा के शरीर को निष्प्राण घोषित कर दिया।
अब शिर्डी गांव के कुछ उतावले लोग बाबा के शरीर की अंत्येष्टि करना चाहते थे लेकिन भगत म्हाल्सापति ने उनका विरोध किया और बाबा के शरीर की रक्षा की। बायजा मां, तात्या, शामा सहित बाबा के अन्य भक्त शोक के गहन सागर में डूब गए। अब तक बाबा शिर्डी की दिनचर्या बन गए थे। इस तरह से बाबा का एकाएक छोड़कर चले जाना भक्तों के लिए असह्य था। वे सभी बाबा के वियोग में बिलखने लगे। आस-पास के भी भक्त आर्तनाद करने लगे। वे बाबा से लौट आने की प्रार्थना करने लगे।
हर किसी को 72 घंटे की प्रतीक्षा थी। लोग बाबा के ब्रह्म स्वरूप से परिचित थे, जानते थे कि बाबा सिर्फ इस शरीर में ही नहीं- वे धरती के कण-कण में विद्यमान हैं। फिर भी लोग बाबा की काया लीला को आराध्य और पूज्य मानने लगे थे और बाबा भी तदनुसार लोगों की मनोकामना को पूर्ण करते जा रहे थे। बिलखते जनसमुदाय के करुण क्रंदन के आगे सर्वज्ञ बाबा की आत्मा ने अपनी काया में लौटने का निर्णय लिया। 72 घंटे पूर्ण होने से पहले बाबा के शरीर में प्राण लौटने के लक्षण दिखने लगे। धीरे-धीरे उनकी सांस चलने लगी। कुछ देर के बाद उस काया में चेतना लौट आयी और बाबा उठकर बैठ गए। मानव इतिहास में संभवतः यह पहली घटना है।
जब कोई तीन दिन तक समाधि में रहने के बाद इस काया में लौट आया हो। बाबा अपनी समाधि के बाद लौटकर आ जाने के पश्चात् 32 वर्षों तक अपनी काया में रहे। समकालीन प्रसिद्ध व्यक्तियों का बाबा के संपर्क में आना: इस घटना के बाद बाबा की कीर्ति और यशगाथा का गायन ग्राम-नगर, चहुं दिशा में होने लगा। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत लोग बाबा के दर्शन के लिए शिर्डी आने लगे। बाबा सभी का कल्याण करने लगे। उस समय देश पर अंग्रेजी राज था। अंग्रेज सरकार के प्रशासन में वरिष्ठ पद पर कार्यरत नाना साहेब चंदोरकर बाबा के संपर्क में आए। बंबई के प्रसिद्ध सोलिसिटर हरि कृष्ण दीक्षित को बाबा का सान्निध्य प्राप्त हुआ
वे शिर्डी में ही निवास करने लगे। नागपुर के श्रीमंत गोपालराव बूटी बाबा की सेवा में आ गए। अहमदनगर के धनाढ्य सेठ दामू अण्णा कसार बाबा के भक्त बने। श्री गोविन्दराव रघुनाथ धाबोलकर उपनाम हेमाडपंत को बाबा का अनुपम सान्निध्य मिला। दासगणू महाराज बाबा के परम भक्त बने और अपने कीर्तन के माध्यम से उन्होंने बाबा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाया। हरि विनायक साठे जैसे लोग बाबा के संपर्क में आए। तर्खड और खापर्डे परिवार के लोगों को बाबा की कृपा प्राप्त हुई। यहां तक कि लोकमान्य तिलक भी बाबा के दर्शन के लिए शिर्डी आए। महाराष्ट्र के घरों में बाबा के चित्र की आराधना शुरु हो गई थी। दूर-दूर से लोग अपनी व्यथा लेकर बाबा के पास आते और बाबा सभी के दुख दर्द को सुनते तथा उनका निवारण करते थे सबको करुणा देते थे। लोग बाबा के पास आकर सहज महसूस करते थे।
बाबा किसी के कान में गुरु मंत्र नहीं देते थे। लेकिन सभी उन्हें अपना सच्चिदानंद सद्गुरु मानने लगे। नानावली और अब्दुल बाबा जैसे भक्त बाबा की सेवा में दिन रात लगे रहते थे। शिर्डी गांव के म्हाल्सापति, शामा जी, बायजाबाई, तात्या पाटील, लक्ष्मीबाई शिंदे, बय्याजी अप्पा कोते पाटील जैसे भक्तों पर बाबा की विशेष कृपा थी। शिर्डी के पांच व्यक्ति तो बहुत ही भाग्यशाली थे जिनके घर बाबा नियमित रूप से भिक्षाटन के लिए जाया करते थे। वे भाग्यशाली थे - सखाराम पाटील शैलके, वामनराव गोंदकर, बयाजी अप्पा कोते पाटील, बायजा मां और नंदराम मारवाड़ी। इसके अतिरिक्त अनेक साधु-संत बाबा से मिलने शिर्डी आया करते थे।
बाबा सबका स्वागत करते थे। वे कभी भी अपने पुरुषोŸाम अवतारी स्वरूप को प्रकट नहीं करना चाहते थे लेकिन मणि को कितना भी छिपाना चाहंे, वह छिप नहीं सकता। उसका प्रकाश फैल ही जाता है। बाबा आगंतुकों के लिए स्वयं भोजन तैयार करते थे। एक ही पात्र में वे सबकुछ डाल देते थे। कितने भी लोग भोजन करने वाले हों, सबको उसी एक पात्र से भोजन मिल जाता था। बाबा का बनाया हुआ भोजन बहुत ही स्वादिष्ट होता था। जिस पात्र को बाबा स्पर्श करते थे, वह अक्षय पात्र बन जाता था, बाबा के हाथ में ऐसी अन्नपूर्णा सिद्धि थी।
सैकड़ों लोग एक छोटे से पात्र में निर्मित भोजन से तृप्त होते थे। शिर्डी में सैकड़ों असहाय लोगों को भोजन मिलता था। इस प्रकार उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का एक छोटा सा-गांव शिर्डी उन्नीसवीं सदी के उŸारार्द्ध तक एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित हो गया। गौली बुवा नामक एक संत प्रत्येक वर्ष पंढरपुर जाते और लौटते समय बाबा के दर्शन किया करते थे। वे बाबा की ओर एकटक निहारते रहते थे। बाबा से वे अगाध प्रेम करते थे। वे कहा करते थे - ‘‘ये तो श्री पंढरीनाथ, श्री विट्ठल के अवतार हैं जो अनाथों के नाथ और दीनदयालु हैं।’’ दक्षिण भारत और विशेष रूप से मराठी भाषी क्षेत्र में विट्ठल नाम भगवान कृष्ण का है। अमरुद्दीन के सपने में साईंबाबा और अब्दुल का शिर्डी आगमन: अब्दुल बाबा नान्देड़ के सुलतान नामक व्यक्ति के पुत्र थे। वे फ़कीर अमरुद्दीन की सेवा में थे। एक दिन फ़कीर सो रहे थे।
उन्होंने सपने में देखा कि साईं बाबा उनके सपने में आए हैं और उन्हें दो फल देते हुए कहा - ‘‘अब्दुल को मेरे पास भेज दो।’’ अमरुद्दीन की जब नींद खुली तो देखा कि उसके बिस्तर पर आम के दो फल हैं। उन्होंने अब्दुल को शिर्डी के साईंबाबा के पास भेज दिया। अब्दुल की उम्र उस समय लगभग बीस वर्ष की थी। यह घटना सन् 1889 की है। उनके शिर्डी पहुंचने से पूर्व बाबा द्वारकामाई में लोगों को बता रहे थे - ‘‘आज मेरा कागा आ रह है।’’ शिर्डी पहुंचने के बाद वे बाबा की सेवा में दिन-रात एककर जुट गए। आजीवन बाबा की सेवा करते रहे। बाबा की महासमाधि के बाद भी वे अपनी मृत्यु पर्यंत बाबा के समाधि मंदिर की सेवा में संलग्न रहे। नाना साहेब चंदोरकर को बाबा के दर्शन: अब्दुल बाबा के शिर्डी पहुंचने तक नाना साहेब चंदोरकर किसी सरकारी कार्य से कोपरगांव में ठहरे हुए थे ।
नाना साहेब मुंबई से दर्शनशास्त्र में बी.ए. उŸाीर्ण थे। उन्होंने गीता और ब्रह्म सूत्र का विशेष अध्ययन किया था। उस समय वे अहमदनगर के कलेक्टर के पी. ए. थे और बाद में डिप्टी कलेक्टर के पद तक पहुंचे। चंदोरकर एक सनातनी ब्राह्मण थे। जब साईंबाबा ने उन्हें शिर्डी के कुलकर्णी के माध्यम से मिलने के लिए संदेश भेजा तो उन्होंने कहा कि वह किसी साईंबाबा को नहीं जानते हैं। उन्होंने सोचा कि एक फ़कीर से उनका क्या प्रयोजन। लेकिन जब बाबा ने दुबारा संदेश भेजा तो उनकी इच्छा हुई कि मिल लिया जाए। जब नाना साहेब द्वारकामाई आए उस समय बाबा ने बिना किसी औपचारिक परिचय के उनसे कहा- ‘‘संसार में इतने लोग हैं लेकिन मैं हर किसी को अपने पास बुलाने के लिए आदमी क्यों नहीं भेजता हूं?
तुम्हें ही क्यों बुला रहा हूं? तुम नहीं जानते हो लेकिन मैं जानता हूं, तुम्हारे साथ मेरा चार जन्मों का संबंध है।’’ उस समय नाना साहेब को बाबा की बातों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन कालान्तर में उन्हें आभास हो गया कि बाबा साक्षात् विट्ठल अर्थात् श्रीकृष्ण हैं। नाना साहेब को बाबा के अनेक अनुभव और साक्षात्कार हुए। नाना साहेब चंदोरकर और उनके परिवार में बाबा की कृपा: उनकी ज्येष्ठ संतान मैना दीदी के विवाह में बाबा का उपस्थित होना एक अनुपम घटना है। नाना साहेब ने बाबा को विवाह के अवसर पर पध् ाारने का निमंत्रण दिया था। बाबा ने आने का आश्वासन भी दिया था। जब विवाह कार्य संपन्न हो गया, तब बाद में मैना दीदी बाबा से आशीर्वाद लेने के लिए आई तो वह भक्ति के स्वर में बाबा को उलाहना देना चाहती थी लेकिन उनसे पहले ही बाबा ने कहा- ‘‘मैना बिटिया, तुम्हारी शादी में बहुत ही स्वादिष्ट पकवान बने थे।
मैंने बहुत ही रुचि से भोजन किया।’’ सभी को आश्चर्य हुआ कि बाबा को ये सभी बातें कैसे मालूम? बाबा ने उन्हें बताया कि विवाह स्थल पर फ़कीर आया था जिन्हें लोग भगा रहे थे लेकिन मैंने बिटिया उसे खाना खिलाया था। वह फ़कीर कोई और नहीं बल्कि स्वयं बाबा ही थे। एक बार नाना साहेब एक सुनसान स्थल पर प्यास से व्याकुल थे। लग रहा था कि प्यास से व्यथित होकर उनकी मृत्यु हो जाएगी। इधर द्वारकामाई में बाबा लोगों से कह रहे थे कि अरे, मेरे नाना को कोई पानी पिला। लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि द्वारकामाई में तो नाना साहेब कहीं हैं ही नहीं। उस सुनसान स्थल पर एक व्यक्ति ने उन्हें पानी पिलाया और पानी पिलाने के बाद वह व्यक्ति गायब हो गया।
जब नाना साहेब बाबा के दर्शन के लिए द्वारकामाई आए तो बाबा ने उनसे पूछा ‘‘नाना तुम्हारी प्यास बुझी अथवा नहीं।’’ नाना साहेब को आभास हो गया कि सुनसान स्थल पर उन्हें पानी पिलाने वाला अन्य कोई नहीं स्वयं सद्गुरु साईंनाथ ही थे। एक बार नाना साहेब ग्रहण स्नान कर रहे थे। स्नान के बाद उनके सामने एक भिखारी हाथ फैलाकर उनसे दो पैसे मांग रहा था। नाना साहेब को बाबा की बात याद आ गई कि अपने द्वार से हो सके तो किसी को वापस नहीं लौटाना चाहिए और यदि किसी को कुछ नहीं दे सको तो उसका अपमान भी न करो। नाना साहेब ने उस भिक्षुक को दो पैसे दे दिए।
बाद में जब नाना साहेब शिर्डी के द्वारकामाई पहुंचे तो बाबा ने उन्हें वे दो पैसे लौटा दिए। बाबा की सर्वव्यापकता का उन्हें एक बार पुनः आभास हुआ। इस प्रकार मैना दीदी को जब संतान होने वाली थी उस समय उन्हें असह्य पीड़ा होने लगी। बाबा ने इस समय के लिए उन्हें अपनी ऊदी अर्थात् भस्म प्रसाद दिए थे, किंतु उनके पड़ोस में व्यक्ति की जान खतरे में थी तब उन्होंने भस्म की पुडिया उन्हें दे दी थी। अब उनके पास भस्म नहीं था। वे लोग संकट के क्षण में बाबा को पुकारने लगे। उस समय नाना साहेब खान देश के जामनेर में थे। मैना दीदी अपने पिता नाना साहेब के पास ही थी।
बाबा ने रामगीर बुआ को भस्म और आरती लकर जामनेर जाने के लिए कहा। रामगीर बुआ ने कहा कि उनके पास केवल पुणताम्बे तक जाने के लिए पैसे हैं। बाबा ने कहा कि वे चिंतामुक्त रहें, पुणताम्बे से आगे जाने के लिए व्यवस्था हो जाएगी। जब रामगीर बुआ पुणताम्बे पहंुचे तब उन्हें एक तांगा वाला मिला जिन्होंने उनसे कहा कि वह नाना साहेब चंदोरकर के यहां से उन्हें जामनेर ले जाने के लिए आए हैं। रामगीर बुआ तांगे पर बैठ गए। उन्हें लग रहा था कि कभी उनकी इस तांगे वाले से भेंट हो चुकी है। जब चंदोरकर जी के यहां वे पहुंचे तो उन्होंने भस्म और आरती दिया। लक्ष्मण गोसाईं ने कहा - ‘‘अच्छा किया कि आपने मेरे लिए तांगा भेज दिया। इसलिए मैं यहां समय पर पहुंच सका। आपके तांगे वाले ने मुझे कुशलतापूर्वक यहां पहुंचा दिया।’’ नाना साहेब ने कहा कि उन्होंने किसी तांगे वाले को पुणताम्बे नहीं भेजा था। बाहर निकलकर जब वे लोग तांगे वाले को देखने गए, उस समय वहां पर कोई नहीं था। नाना साहेब सहित सभी लोगों को बाबा की लीला का आभास हो गया। मैना दीदी ने सकुशल अपनी संतान को जन्म दिया। बाबा की विधिवत पूजा प्रारंभ (सन् 1904): शिर्डी के भक्तगण बाबा को भगवान के रूप में ही पूजते थे। वे बाबा की विधिवत पूजा करके उन्हें चंदन लगाना चाहते थे तो बाबा क्रोधित हो जाते थे। लेकिन सन् 1904 म नाना साहेब चंदोरकर के पुत्र बापू ने अनजाने में बाबा के माथे पर चंदन लगा दिया। तब से बाबा की विधिवत पूजा प्रारंभ हो गई। उस समय बापू की उम्र केवल चार वर्ष की थी।
लोगों ने एक अबोध बालक के हाथ से संपन्न दिव्य कार्य को दैवी विधान का अंग मान लिया। वर्षों से जो भक्तों की इच्छा थी वह पूर्ण हुई। कोते पाटील को सद्गति: बाबा ने शिर्डी निवासियों की प्रत्येक दुखः दर्द में सहायता की। बायजा मां के पति कोते पाटील को बाबा ने एक बार मृत्यु के मुख से बचाया। वे निष्प्राण हो गए थे लेकिन अचानक बाबा के आगमन से जीवित हो गए थे। एक बार अन्य अवसर पर भी उनके प्राण निकल गए थे लेकिन बाबा ने फिर से हस्तक्षेप किया। बाबा अधिक दिनों तक विधि के विधान में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। यदि कोते पाटील को अधिक दिनों तक बचाते रहते तो उनके अगले जन्म पर असर पड़ता। कोते पाटील की थोड़े समय बाद मृत्यु हुई, उनकी मृत्यु के समय बाबा वहां उपस्थित थे। उन्होंने बाबा को प्रणाम करते हुए अपने प्राण त्यागे। तात्या पाटील के प्राणों की रक्षा: शिर्डी की ऐसी पंरपरा बन गई थी जो कोई भी बाहर जाता था, वह बाबा से अनुमति लेकर जाता था।
तात्या पाटील को एक बार अत्यावश्यक कार्य से कोपरगांव जाना था। वह बाबा से अनुमति लेने के लिए द्वारकामाई आए लेकिन बाबा ने उन्हंे मना कर दिया। वे बाबा की आज्ञा का उल्लंघन करके शिर्डी से निकल पड़े। जब वे शिर्डी गांव के बाहर थोड़े ही दूर गए होंगे तब उनका तांगा पलट गया। घोड़े की मृत्यु हो गई किंतु तात्या बच गए। उन्हें अपनी भूल का आभास हुआ। उन्होंने बाबा को धन्यवाद दिया कि उन्होंने उन्हंे मृत्यु के मुख से बचाया। बाबा सदैव उन्हें अपने अनुज की भांति स्नेह देते रहते थे। उन्होंने ग्यारह वर्ष तक बाबा के साथ द्वारकामाई में विश्राम किया। पिता के देहांत होने के बाद बाबा उन्हें अपने घर में सोने के लिए भेज दिया करते थे। बाद में तात्या जी का विवाह हो गया। लेकिन वे अपने गृह कार्य में कभी भी बाबा को नहीं भूले थे।
उनकी दिनचर्या बाबा के ईर्द गिर्द घूमती थी। सन् 1909 में जब बाबा एकांतर रात्रि में चावड़ी अर्थात् गांव के चैपाल में सोने लगे तो उन्हें भक्तगण राजसी सम्मान के साथ द्वारकामाई से चावड़ी तक ले जाते थे। बाबा तब तक चावड़ी नहीं जाते थे जब तक तात्या जी उन्हें हाथ पकड़ कर नहीं ले जाते थे। बाबा की कृपा से म्हाल्सापति के घर संतान और उनके प्राणों की रक्षा: म्हाल्सापति बाबा के साथ नित्य द्वारकामाई में ही सोते थे। लेकिन बाबा ने एकबार उनसे कहा कि वे अब द्वारकामाई न सोयें और अपने घर चले जाएं। म्हाल्सापति को लगा कि साईंनाथ उनसे नाराज हैं। लेकिन उनकी आज्ञा मानने के सिवा म्हाल्सापति के पास कोई अन्य सहारा भी नहीं था। वे अपने घर में विश्राम करने लगे लेकिन मन तो द्वारकामाई में ही रहता था। व्यक्ति विभिन्न प्रकार के सद्कर्म में रहते हुए भी प्रभु को नहीं भूलता है तो उस पर प्रभु की कृपा बनी रहती है। कुछ माह के बाद म्हाल्सापति के घर संतान का जन्म हुआ। तब जाकर उन्हें बाबा की लीला का ज्ञान हुआ कि बाबा ने उन्हें किस लिए द्वारकामाई से घर भेज दिया था। म्हाल्सापति के मन में संतान की प्रबल इच्छा थी। उनके घर संतान न होने से वे दुखी रहते थे। बाबा सर्वज्ञ हैं।
उनकी कृपा से म्हाल्सापति के घर संतान का जन्म हुआ। पुनः म्हाल्सापति नियमित रूप से द्वारकामाई में बाबा के साथ विश्राम करने लगे। म्हाल्सापति अपने कुल देवता खंडोबा की पालकी लेकर जेजुरी जाते थे। खंडोबा को शिव का अवतार माना जाता है। जेजुरी जाने और वापस आने में एक माह से अधिक का समय लग जाता था। एक बार इस यात्रा के दौरान हैजा का प्रकोप फैल गया। म्हाल्सापति कहीं भी रहें उनका ध्यान बाबा के श्रीचरणों में ही लगा रहता था। उनको भी दस्त शुरु हो गया। उनकी हालत बिगड़ने लगी। उन्होंने बाबा को स्मरण किया और वे स्वस्थ हो गए। जेजुरी के रास्ते में ही उनका लुटेरे पीछा कर रहे थे उनके साथ गांव के अन्य लोग भी थे। उन लोगों ने बाबा को स्मरण किया। आवाज से लगा कि जिधर से आवाज आ रही है
उधर बस्ती अवश्य होगी। फिर वे सभी सकुशल बस्ती तक पहुंच गए। उस बस्ती के लोगों को आश्चर्य हुआ कि रात में डाकुओं के प्रकोप से वे सभी सकुशल यहां तक कैसे पहुंच गए। म्हाल्सापति ने बस्ती वालों से कहा कि एक कुŸो ने उन लोगों की मदद की। इस पर बस्ती के लोगों ने कहा कि एक फ़कीर बाबा सुबह से ही कुŸो के साथ नदी के किनारे घूम रहे थे। तब उन लोगों को पता चला कि यह साईंनाथ की ही लीला थी जिसके सहारे उन लोगों की रक्षा हो सकी।