सदाचार-जीवन का सर्वाधिक शक्तिशाली कारक: सदाचार अथवा गुणी जीवन मनुष्य का अमर भाग है। सदाचार का जीवन जियो और तुम्हें अमरत्व हो जाएगा। कोई भी व्यक्ति ईश्वर तक उस समय तक नहीं पहुंच सकता जब तक कि वह नम्रता और सदाचार के वस्त्र पहनकर ईश्वर को प्रेम नहीं करता, उसका आदर नहीं करता और उसकी पूजा नहीं करता। सदाचार जीवन का सर्वाधिक शक्तिशाली कारक है। यह तुम्हें ईश्वर तक ले जाने वाले रथ के पहिए की धुरी है। सभी गुणों यथा प्रेम और नम्रता, पवित्रता और गंभीरता, सहनशीलता, दान की भावना और आत्म-त्याग की भावना का पिता है सदाचार। यदि इन गुणों में आत्म-निवृŸिा, त्याग, सच्चाई, भगवान की इच्छा के प्रति आत्म-समर्पण, सभी इच्छाओं और सभी सांसारिक लगावों ओर भोगों के प्रति विरक्ति अथवा त्याग का भाव जोड़ दिया जाए तो ईश-प्राप्ति का मार्ग बहुत आसान और संभव हो जाता है। यात्रा के लिए अपने लक्ष्य की प्राप्ति का यह मार्ग संकरा और कंटीला तथा अदृश्य होता है लेकिन उसके लिए इसे चुनना ही सबसे सुरक्षित है, क्योंकि मार्ग जितना अधिक चैड़ा होगा, उतना ही अधिक वह कठिन बन जाता है क्योंकि यात्री अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता। देवत्व को खोजो। जीवन के तूफानों से विचलित न हो।
जीवन की खुशियों से प्रलोभित न हो। भगवान को पूर्ण ईमानदारी और हृदय की पूर्ण पवित्रता से खोजो तो वह तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य तक पहुंचा देगा। आत्म-चेतना के हथौड़े से माया की जंजीर को तोड़ डालो ईश्वरीय निर्णय न्यायपूर्ण तथा स्थायी होते हैं। वह न्याय के साथ दया को मिलता है क्योंकि वह अपने सभी प्राणियों के प्रति दयालु होना पसंद करता है। यद्यपि भगवान दयालु और प्रेममय होते हैं, लेकिन कोई भी प्राणी उनके आदेशों और इच्छाओं की अवहेलना के परिणामों से बचकर नहीं निकल सकता है। पाप से दूर रहो क्योंकि यह ऐसा कोबरा सर्प है जो तुम्हारे शरीर और मन को जहरीला बनाकर तुम्हारी आत्मा को दुखी बना देता है। पवित्रता के वस्त्र पहनो। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी गंदगी है उस सबको दुख की अग्नि में जला डालो। आत्म-चेतना के हथौड़े से माया की जंजीर को तोड़ डालो। आत्मा को अपना न्यायाधीश और मुखिया बनाओ। संसार का समस्त धन, सम्पूर्ण शान-शौकत, सभी लोगों की प्रसन्नता तुम्हारे भीतरी उस घाव को ठीक नहीं कर सकती जो कि बढ़ता ही जाता है, उस समय तक जब तक कि वह तुम्हें पूरी तरह से दुख में डुबो नहीं देता, यदि तुम भगवान और उसके नियमों और आदेशों की अवज्ञा कर देते हो। इस बात को निश्चित मानो कि भगवान की चक्कियां धीरे-धीरे पीसती हैं लेकिन वे बहुत बारीक पीसती हैं।
कोई भी व्यक्ति उसके नियमों की निरंतरता व कठोरता से बच नहीं सकता। जितनी बड़ी परीक्षा, उतना ही बड़ा पुरस्कार सबसे अधिक गहरे बादल के पीछे एक चमक होती है। रात्रि का वस्त्र उस समय उठ जाता है जब सूर्य अपनी पूर्ण चमक और शान से चमकता है। चाहे संघर्ष कितना भी कठिन क्यों न हो, क्या तुम्हें उदास और निराशापूर्ण होना चाहिए? क्या भगवान, जो तुम्हारे पिता हैं, तुम्हारे पास, तुमसे मित्रता करने को तुम्हारे निकट में नहीं हैं? गहरी झील में जल की भांति अपने मस्तिष्क को शीतल रखो। एक चट्टान की भांति दृढ़ बने रहो और विचलित न हो चाहे विपŸिायां तुम्हारे ऊपर तूफान की भांति गिरें। जितनी बड़ी परीक्षा होगी, उतना ही अधिक बड़ा पुरस्कार होगा, जितना अधिक दुख होगा उतनी ही अधिक प्रसन्नता होगी, ठीक वैसे ही जैसे रात्रि के बाद धूप के प्रकार से भरा दिन आता है। अपने मन और शरीर को अपवित्रता का दाग मत लगने दो। नैतिक सदाचार के पथ पर चलो, सभी के साथ प्रेम रखो, जो लात मारे उसको भी मुस्कुराहट दो और सभी को क्षमा कर दो। इसको अपने जीवन का आदर्श बनाओ यदि तुम दौड़ को जीतना चाहते हो और जीवन संघर्ष में से विजयी बनकर बाहर निकलना चाहते हो। घृणा, ईष्र्या, बदला, धर्मांधता, घमंड, लालच, कामुकता, आलस्य-ये सभी शैतान के साथी हैं। पे्रम, पवित्रता, सदाचार, नम्रता, सहनशीलता, विशाल दृष्टिकोण, संतोष, संस्कृति, श्रम, एकाग्रता ये वे सुगंधमय पुष्प हैं जो ईश्वर के उद्यान में उगते हैं।
उनका गुलदस्ता बनाओ और उसको अपने साथ रखो, क्योंकि इसका प्रत्येक पुष्प ईश्वर की शान और उसके साम्राज्य की याद दिलाता है। सद्गुणों को अपना मुकुट बनाओ और बुराई को अपने पैरों के नीचे का पायदान। अपने मन, शरीर और इंद्रियों का सारथी बनो, न कि उनका दास। विकास की सीढ़ी जीवन में जो भी विषमताएं तुम देखते हो वे जगत में कार्यरत रहे विकास के सिद्धांत के कार्य करने के कारण हैं। सभी के जीवन में विकास का सिद्धांत समान रूप से कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि इसमें कई कारक शामिल हैं जिनमें प्रमुख है स्वयं मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा। जब कोई मनुष्य अपनी इच्छा का उपयोग ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध करता है और दिव्य बुद्धि से प्रभावित होने से मना कर देता है, तो वह अपने विकास की प्रक्रिया को लंबा बना देता है। केवल तभी जब वह दुख पाता है तभी वह ईश्वर के लिए तड़पने लगता है। ईश्वर के लिए तड़पना जीवन की उच्च वस्तुओं के उभरने का प्रतीक है। वह यह महसूस करना आरंभ कर देता है कि जो कुछ दिखाई देता है वह स्थायी और सत्य नहीं है। वह आत्मा के बाबत कलपने लगता है। जीवन के पुराने तौर-तरीके उसे अरुचिकर लगने लगते हैं। वह शारीरिक सुखों को छोड़ देता है और भक्ति, ज्ञान और धर्मयोग का मार्ग अपना लेता है। वह अपना सर्वस्व भगवान को देता है। वह ईश्वर, केवल ईश्वर के लिए कार्य करता है न कि अपने श्रम के फलों के प्रति कसी लगाव के कारण।
वह प्रत्येक प्राणी में ईश्वर को देखता है और उसमें बिना किसी भेद-भाव के प्रेम करता है। दिव्य बुद्धिमानी के द्वार उसके लिए खुल जाते हैं। वह ईश्वर के प्रेम में ही संतोष प्राप्त करता है जो कि उसकी आत्मा, हृदय और मन को समृद्ध करता है और उसे आनंदित करता है। प्रत्येक व्यक्ति को विकास की सीढ़ी पर चढ़ना होगा और अपनी आत्मा की शुद्धि हेतु विभिन्न अनुभवों में से होकर उस समय तक गुजरना होगा जब तक कि हर सीढ़ी के अंतिम चरण तक नहीं पहंुच जाता और इ्र्रश्वर के चिरशांति के साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर लेता। प्रत्येक व्यक्ति में यह विकास की प्रक्रिया एक लंबा समय लेती है। इसके लिए कई जन्मों की आवश्यकता होती है और उस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं होता क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही मानव आत्माएं और अधिक जल्दी और अधिक तेजी से सीढ़ी की सबसे ऊपरी चरण तक ऊपर चढ़ पाती हैं। विकास की प्रक्रिया को तीव्र किया जाता है यदि मनुष्य ऐसा करना चाहे और यदि वह ईश्वर की कृपा को जीत सके। धर्म और बुराई की उत्पत्ति सभी धर्म ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग हैं और किसी को भी यह गर्व नहीं करना चाहिए कि उसका धर्म ही सर्वोत्तम है। वस्तुतः धर्म मनुष्य की आंतरिक चेतना का मामला है। इस आंतरिक चेतना को दो तरीकों से जागृत किया जा सकता है।
प्रथम, मनुष्य का बाह्य घटनाक्रम से संपर्क के द्वारा धर्म ग्रंथों तथा उत्तम संत पुरुषों और धर्म गुरुओं के साथ संपर्क स्थापन से; द्वितीय, व्यक्ति की किसी ऐसी वस्तु की खोज के द्वारा जो उसकी आत्मा को संतुष्ट कर सके। धर्म हृदय का मामला है। जब हृदय जागृत होता है तो जगत के रहस्यों को जानने और जीवन की समस्याओं में खोज करने की इच्छा अधिक बलवती हो जाती है। मनुष्य के लिए केवल रोटी से ही संतुष्ट हो जाना संभव नहीं है। उसे दिव्य अमृत की आवश्यकता होती है जो धर्म के द्वारा प्रदान किया जाता है वह उसे ईश्वर और दूसरी दुनिया तक ले जाता है। धर्म को उसके मूल सार-स्वरूप में समझा जाना चाहिए। धर्म का रस्मी पक्ष पृथक्कत्व और मूर्तिभंजन की भावना उत्पन्न करना है। सत्य को जानने हेतु एक व्यक्ति को स्वयं के लाभ की पूर्णतया उपेक्षा करत हुए जीवन के अनुभव में गहराई से उतरना चाहिए और जांच-पड़ताल और खोज की शुद्ध भावना से खोज करनी चाहिए। जब मनुष्य इस तरह से सत्य की खोज करता है तब वह देखेगा कि अवतारों, साधु-संतों द्वारा सिखाए गए सभी धर्म अपनी शिक्षाओं और प्रयोगों में विश्वव्यापी अथवा सार्वजनीय हैं - उनमें सभी में समान कारक हैं। मानव जीवन का लक्ष्य है ईश्वर-प्राप्ति और सदाचार। ईश्वर चुने हुए माध्यम से समान वाणी के साथ और समान उद्देश्य-यथा मनुष्य को प्रबुद्ध बनाने तथा उसको भगवान के साम्राज्य तक पहुंचाने वाले मार्ग को दिखाना, से बोलता है। धर्म मनुष्य को ईश्वर से जोड़ता है।
यह मनुष्य को एक दर्शन प्रदान करता है जो उसके हृदय की भूख को संतुष्ट करता है और जीवन-संग्राम में बहादुरी और स फ ल त ा - प ू र्व क लड़ने के लिए शक्ति और ओज प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति धर्म के बिना नहीं रह सकता। यह जीवन का केंद्र-बिदु है, आत्मा का टेक है और मानव की कृति का धीमा और अस्पष्ट क्षितिज है। कोई द्वैत नहीं होता। ईश्वर संपूर्ण प्रकाश, प्रेम और सौंदर्य है। वह सर्व-शक्तिमान है। दिव्यता में कोई द्वैत नहीं होती। वह अकेला है। वह कालहीन, स्थानहीन, कारणहीन, गतिहीन है। लेकिन उसकी दिव्य शक्ति को समझने में मनुष्य चूक कर जाता है क्योंकि मनुष्य सीमित है और वह सभी वस्तुओं को अपनी तर्क शक्ति के धुंधले प्रकाश से देखना चाहता है। उसका तर्क ही सापेक्षता, दिशाओं आदि के विचारों को जन्म देता है। ईश्वर में कोई बुराई का वास नहीं होता। लेकिन मनुष्य अपनी सीमित प्रकृति में उसकी रचना कर डालता है। यही बुराई का उद्गम है। यह स्थायी नहीं है क्योंकि यह सीमित मानव के चिंतन व कर्म का फल है। जिस क्षण मनुष्य पूर्ण बन जाता है और ईश्वर तक पहुंच जाता है उसी क्षण बुराई लुप्त हो जाती है इसका कोई स्वरूप नहीं होता, वह अज्ञात होती है और इसलिए वह स्थायी नहीं होती। ईश्वर ही वास्तविकता है। सम्पूर्ण जीवन को एक अवास्तविक घटनाक्रम समझा जाना चाहिए जिसे मनुष्य को अपनी भीतरी आत्मा की शक्ति से काबू करना, जीतना होता है।
संसार और उसके प्रलोभनों को त्यागो। ईश्वर में आश्रय खोजो। वह भीतर और बाहर दोनों जगहों में है। प्रार्थनाएं और उनका महत्व कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। लेकिन ऐसा अध्यात्म में नहीं होता। जितना निकट तुम ईश्वर के आते हो, तुम्हारी प्रसन्नता उतनी ही अधिक हो जाती है। तुम सांसारिक स्तर से आध्यात्मिक स्तर पर पहुंच जाते हो। यह एक अमरत्व तक की सीढ़ी या पुल है। आध्यात्मिक बनो। अपने अहं को भूल जाओ, सार्वभौमिकता के सागर में स्वयं को डुबो दो। व्यक्तिवाद को छोड़ दो और अहंहीन बन जाओ तभी तुम्हारे निस्सार संसार और हमारे आध्यात्मिक संसार के बीच की खाई पर पुल बनाया जा सकता है। ईश्वर को अपने जीवन का निशाना, अपनी महत्वाकांक्षाओं का सर्वस्व और अपनी विजय का लक्ष्य बनाओ। उसकी दिन-रात पूजा करो। हृदय की पूर्णता से की गई प्रार्थना की प्रतिध्वनियां सार्वभौमिक मन में होती हैं। वे दिव्य शक्ति की लहरों को पैदा करती हैं जो नए जीवन, एक नई भावना, एक नया प्रकाश लाती है। शरीर की सभी बीमारियों का सार्वभौमिक इलाज है प्रार्थना। यह चिकित्सा करती है, शुद्धिकरण करती है, ऊंचा उठाती है, हृदय, मन और आत्मा को प्रकाशित करती है। भगवान की प्रार्थना करना प्रत्येक का अधिकार है, चाहे वह फकीर हो या राजकुमार। यह उस व्यक्ति के हाथ में सदा बड़ा हथियार है जो अपने जीवन को सुधारना चाहता है। प्रार्थनाएं इस तथ्य पर आधारित होती हैं कि भगवान, जो अदृश्य है, हमारे सुख और कष्ट में हमारी सुनने को सदैव जिज्ञासु रहता है। प्रार्थना हृदय की भाषा है। यह दिव्य संचार-वाहन है। यह दैवी संगीत है। यह हमारी शक्ति और मुक्ति का एक द्वार है। प्रत्येक प्रार्थना के प्रमुख स्तंभ होते हैं- त्याग और आत्म-समर्पण। कोई भी प्रार्थना सच्ची प्रार्थना नहीं होती है यदि उसपर त्याग का तेल चुपड़ा न जाए और उसमें इ्र्रश्वर की इच्छा पर पूर्णतया छोड़ देने की भावना न हो।