साईं बाबा का दिव्य स्वरूप
साईं बाबा का दिव्य स्वरूप

साईं बाबा का दिव्य स्वरूप  

ब्रजेंद्र श्रीवास्तव
व्यूस : 6526 | मई 2015

साईं बाबा का स्वरूप क्या है? शिरडी के साईं बाबा के निकटतम भक्तों के संस्मरणों के आधार पर लिखी गई विभिन्न प्रामाणिक जीवनियों को पढ़ने, शिरडी तीर्थ पर जाकर अपने कष्टों से राहत पाने वाले आर्तजनों से साईंबाबा की कृपा के प्रसंग सुनने और साईं बाबा के समकालीन या बाद के संत महात्माओं, सिद्ध पुरूषों से साईं बाबा की महानता की पुष्टि का मनन करने और उन पर बने लोकप्रिय टी. वीसीरियलों को देखने के बाद भी यह कह पाना कठिन है कि शिरडी के साईं बाबा का स्वरूप क्या है? क्या वह गुरु गोरखनाथ की परंपरा के नाथ पंथ के सिद्ध योगी थे? क्या वे क्रिया योग के महान साधक लाहिड़ी महाशय से दीक्षित क्रिया योगी थे, क्योंकि उनका नाम लाहिड़ी महाशय की हस्तलिखित डायरियों में दो बार उल्लिखित है? क्या वे कोई सूफी फकीर थे क्योंकि उनका पहनावा कुछ वैसा ही था और वे अल्लाह और राम दोनों का नाम एक साथ लेते थे? वे निर्गुण साधक थे या सगुण? बात यहीं तक पूरी नहीं होती।

साईं बाबा अपने हाथ से धूनी की विभूति या पेड़ पौधों की पत्ती आदि आशीर्वाद रूप में देते थे उससे उनकी शरण में आए आर्तजनों के रोग, नौकरी, कर्ज, भयंकर कष्ट सहज ही दूर हो जाते थे पर इसका श्रेय वे स्वयं न लेकर ईश्वर को देते थे तो क्या वे कोई सिद्ध पुरूष थे जिन्होंने पंचतत्वों - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश पर विजय पा ली थी? भक्ति, ज्ञान, कर्म, राज योग सभी के सिद्ध साधक उनके चरित्रामृत के पढ़ने से यह भी बात सामने आती है कि वे गीता में कृष्ण द्वारा आत्म साक्षात्कार के लिये बताए गए चारों प्रमुख मार्गों- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग और ध्यान (राज) योग की परमोच्च अवस्था में पहुंच चुके थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि किसी भी साधक को केवल एक ही मार्ग से स्वरूप अनुसंधान करने में अर्थात मेरा स्वरूप क्या है? मैं कौन हूं? मैं वही हूं जो तू है- इसका भाव बोध होने में एक नहीं कई जन्म लग जाते हैं पर साईं बाबा के पुण्य संस्मरणों के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने इन चारों ही मार्गों को एक साथ सिद्ध करके एक अलग ही मिसाल भक्तों, दार्शनिकों, शास्त्र ज्ञाताओं के समक्ष रखी।

जब वे भजन के साथ पैर में घूंघरू बांधकर प्रेम विभोर होकर नृत्य करते थे तो वह चैतन्य महाप्रभु और मीरा बाई की मधुराया प्रेमाभक्ति की सर्वोच्च भाव अवस्था में होते थे। इसी के समानान्तर वे समाज सेवा, निर्माण कार्य, बागवानी, भक्तों को भोजन बनाकर खिलाने में भी पूरी रूचि लेते थे तथा गृहस्थों को अपने कर्तव्य निर्वाह का उपदेश भी देते थे, वे लोकसेवा तटस्थ या साक्षी भाव से करते थे स्वयं श्रेय नहीं लेते थे। वे मल्लयुद्ध प्रतियोगिताएं कराकर ईनाम भी देते थे। इस दृष्टि से वे पूर्ण कर्मयोगी भी थे। ईशावास्य उपनिषद में कहा गया है कि संसार का उपयोग त्याग की भावना से करें। उनके पास तो त्यागने को ही कुछ नहीं था जो था वह न्यूनतम से भी न्यूनतम था, एक जोड़ी जूता, तम्बाकू की चिलमें, आटा पीसने की चक्की और सफेद फटे पुराने दो एक जोड़ी वस्त्र इतनी ही गृहस्थी थी उनकी। भिक्षापात्र भी टीन का था जिसमें से वे भक्तों के अलावा पक्षी, कुत्ते, बिल्ली आदि जीवों को भी अन्नदान करते थे। साईं बाबा परमयोगी भी थे पर उन्होंने कभी योग के चमत्कार नहीं किए।

केवल दो बार तीन-तीन दिन के लिये अपनी देह से प्राण खींच कर अनन्त यात्रा पर जाकर पहले से बताए दिन पर पुनः शरीर में चैतन्य हुए। पहली बार 1876 में जब उन्हें दमा हो गया था तब भक्त म्हालसापति के सामने तीन दिन की समाधि ली और दूसरी बार भगवान दत्तात्रेय जयन्ती 1886 मार्गशीर्ष पूर्णिमा को भी तीन दिन की समाधि बायजा बाई, तात्या, म्हालसापति को बताकर ली। वे एक साथ एक ही समय में कई स्थानों पर भी भक्तों को दिखाई दिए पर ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य भक्तों में ईश्वर भक्ति को मजबूत करना मात्र था। इस लिहाज से साईं बाबा गीता में बताए गए ध्यान या राज योग की सिद्धावस्था में अवस्थित थे तथा वे जब भी एकांत होता सदैव आंख बंद कर ध्यानरत रहते हुए विश्वात्मा से अपने शरीर में स्थित आत्मा को जोड़े रहते थे। इसके अलावा वे द्वारकामाई मस्जिद के निकट स्थित लैंडी बाग में भी नियमित साधना हेतु जाते थे जहां भक्तों का भी जाना मना था। साईं बाबा के ज्ञान उपदेश अत्यंत सरल सीधी भाषा में हैं तथा शब्दाडम्बर शास्त्र उद्धरण खंडन-मंडन से रहित सीधे हृदय को अपील करते हैं। ज्ञान योगी का लक्षण है कि सभी प्राणियों में एक ही विश्वात्मा परमात्मा को देखना और सब प्राणियों से समान एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार करना।

गीता में इसीलिए ज्ञान योग को भगवान कृष्ण का प्रिय बताया गया है। ज्ञानयोग का मतलब शास्त्रों की बारीकियों का अर्थ लच्छेदार भाषा में वर्णन करना कतई नहीं है। जिसे इस तत्व का बोध हो गया कि सभी जड़ चेतन में मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट पतंग आदि में एक ही चैतन्य शक्ति का स्फुरण हो रहा है वह फिर सबसे प्रेम भाव रखता है, दूसरों का दुख उसे अपना दुख लगता है। यह अद्वैत की चरम अवस्था होती है और यही अद्वैत वेदान्त का वह व्यावहारिक रूप है जिस पर स्वामी विवेकानंद ने ‘व्यावहारिक जीवन में वेदांत’ वार्ता में सबसे ज्यादा जोर दिया है। साईं बाबा के टीन के भिक्षापात्र में भक्तों के अलावा पशु-पक्षी भी शामिल रहते थे। व्यावहारिक जीवन में वेदांत को अपनाकर दिखाया साईं ने जिसे हम अद्वैत वेदांत दर्शन कहते हैं वह वेद के आखिरी भाग अर्थात उपनिषदों का दर्शन है जिसके अनुसार ईश्वर या सर्वव्यापी सत्ता ही इस संसार का निमित्त कारण, उपादान कारण आदि सभी कुछ है अर्थात मिट्टी से घड़ा बनाने व बनने वाला भी वही है। यह आम आदमी की सोच से परे का दर्शन है क्योंकि आम आदमी तो द्वैत में जीता है। द्वैत अर्थात दो धूप-छांव, सुख-दुख, मैं-तुम, जड़-चेतन, मन-शरीर इन्हें अलग समझता है उसकी समझ में ये एक हो पाना कठिन है।

पर अद्वैत या वेदांत दर्शन हमें यही सिखाता है। स्वामी विवेकानंद ने ‘व्यावहारिक जीवन में वेदांत’ में कहा है कि आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिट जाना चाहिए क्योंकि वेदांत कहता है एक ही प्राण सर्वत्र विराजमान है। वेदांत दर्शन जंगल में रहकर नहीं बना है बल्कि राज राजर्षि इसके प्रणेता हैं जो राजकाज जैसे बड़े उत्तरदायित्व संभालते थे। जब व्यक्ति सभी में एक ही प्राण शक्ति का बोध कर लेता है तब वह प्रेममय स्वतः हो जाता है वह प्रत्येक प्राणी से तदाकार हो जाता है। साईं बाबा के जीवन में वेदांत दर्शन का व्यावहारिक रूप दिखाई देता है जो रामकृष्ण परमहंस के बाद इनमें ही देखा जाता है। साईं बाबा के जीवन की एक घटना से यह बात ठीक से समझाई जा सकती है। एक बार जब बाबा द्वारकामाई मस्जिद में बैठे थे तथा खंडोबा मंदिर के पुजारी म्हालसापति उनकी सेवा में थे तो मुसलमानों ने म्हालसापति को मारा, इस पर वे बाबा को पुकारने लगे। जब बाबा बाहर आए तो मुसलमानों को यह देखकर हैरानी हुई कि बाबा के शरीर पर चोटों के निशान थे।

बाबा ने कहा तुम लोगों ने मुझे मारा, मुसलमानों ने कहा हमने तो आपको नहीं मारा आप तो अंदर थे तब बाबा ने समझाया कि जब म्हालसापति बाबा कह रहा था तो मैं ही तो उसमें मौजूद था। यहां पर दुःख, कातरता इतनी ऊंची भाव अवस्था में तभी पहुंच सकती है जब सिद्ध साधक अद्वैत की अवस्था में निरंतर अवस्थित रहता हो, जहां जड़ और चेतन का अपने पराए का कोई भेद ही शेष नहीं रह जाता। तभी तो बाबा कीट-पतंग, पशु-पक्षी की भाषा भी समझ लेते थे। स्वामी विवेकानंद के विश्व वन्दनीय गुरु रामकृष्ण परमहंस भी सदैव ऐसी ही अद्वैत अवस्था में रहते थे इसीलिये उन्हें परमहंस कहा जाता है। रामकृष्ण लीला प्रसंगादि में भी एक ऐसी ही घटना का जिक्र है कि जब एक जमींदार गरीब मल्लाह को कोड़े मार रहा था तो उन कोड़ों के निशान रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर उभर आए थे। इसी प्रकार एक बार रामकृष्ण परमहंस को ध्यान में समुद्र में डूबने जैसी अनुभूति हुई तब अगले दिन समाचार पत्र में एक जहाज डूबने की घटना भी छपी थी। यह स्थिति व्यक्तिगत मन के विश्वात्मा मन से जुड़ने पर मुक्तात्मा वाले गुरु की ही होती है।

साईं बाबा के शरीर पर म्हालसापति को लगी चोटों का उभरना यही सिद्ध करता है कि साईं बाबा आत्मा के आरोहण की उस अवस्था तक पहुंच गए थे जहां से फिर लौटना या न लौटना अपनी ही इच्छा पर निर्भर होता है ऐसी विभूति को अवतार भी कहा जाता है। संभवतः यही कारण है कि सहज योग की प्रवर्तक माता निर्मलादेवी ने जिन आठ विभूतियों को अवतार कहा है उनमें एक शिरडी साईं बाबा भी हैं। इसी प्रकार अहमदनगर के अवतार मेहेर बाबा ने कलचुरि भाऊ लिखित पुस्तक में साईं बाबा को कुतुब-ए-इरशाद, 5 कुतुबों में सर्वोच्च तथा मास्टर आॅफ यूनिवर्स अर्थात् विश्व नियंता कहा है। अवतार मेहेर बाबा (1894-1969) ने कहा है कि अवतारी पुरुष का कार्य सिर्फ तत्कालीन मानवता के लिये नहीं होता किंतु भावी मानव संतान के लिये भी होता है, वह अपने समय में जीव के जीवन को द्रुत गति देता है मोक्ष के मार्ग की। उसके आदर्श, दृष्टांत, अहेतुक प्रेम परोपकार में लगी शक्ति उसका व्यवहार उसके न रहने पर मानवता का पथ प्रदर्शन करते हैं। साईं सद्गुरु और अवतारी पुरूष साईं बाबा के जीवन चरित का विहंगावलोकन करने पर यह स्पष्ट है कि उन्हें किसी विशेष सम्प्रदाय, उपासना मार्ग या पद्धति या समुदाय के दायरे में सीमित करके नहीं देखा जा सकता। वे इन सभी में हैं और इन सभी से परे भी हैं। इस प्रकार वे स्वयं ही एक विशिष्ट आदर्श हैं, उनकी लीला एवं कर्म स्वयं एक स्वतंत्र मार्ग है। इस दृष्टि से साईं बाबा का जीवन दर्शन उपनिषदों अर्थात वेदांत के उस दर्शन के बहुत निकट दिखाई देता है जिसमें जड़ चेतन सभी में एक ही सत्ता, परमचेतन ब्रह्म, ईश्वर या जो भी नाम उसे देना चाहें की व्याप्ति को प्रत्यक्ष रूप से अनुभूत करने और उसी के अनुसार प्राणीमात्र से अहेतुक प्रेम करने, परोपकार करने को व्यावहारिक जीवन में भी उतारने पर जोर है। जो इस अवस्था को प्राप्त हो जाता है वही सद्गुरु है, अवतार है, तथा आध्यात्मिकता के कंेद्र में अवस्थित है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.