पुनर्जन्म व श्राद्ध कर्म
पुनर्जन्म व श्राद्ध कर्म

पुनर्जन्म व श्राद्ध कर्म  

आभा बंसल
व्यूस : 13825 | सितम्बर 2011

प्रत्येक प्राणी, चाहे वह इंसान हो, पशु-पक्षी हो या कीट, दो तत्वों से मिलकर बना होता है - एक तो उसका शरीर जो हमें दिखाई देता है, और दूसरा उसमें आत्मा का वास होता है। आज के युग में मेडिकल विज्ञान ने कितनी ही तरक्की क्यों न कर ली हो परंतु किसी भी प्राणी या व्यक्ति की मृत्यु आने पर उसको डाॅक्टर या विज्ञान बचा नहीं सकता है।

जिस व्यक्ति या प्राणी को हम उम्र भर प्यार करते हैं, चाहतें हैं, सम्मान करते हैं या जिसके बिना रहने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, मृत्यु हो जाने पर हम तुरंत उससे दूर रहने लगते हैं तथा भांति-भांति के उपाय करके वातावरण को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं तथा उसका एक स्पर्श मात्र हो जाने पर स्नान करते हैं या गंगाजल छिड़क कर अपने को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं।

ऐसा क्या हो जाता है, जो शरीर वर्षों से घूमता-फिरता, खाता-पीता, सम्माननीय तथा क्रियाशील होता है, क्षण भर में क्रियाहीन, निर्जीव व अछूत हो जाता है और उसे अपने से दूर करके मुखाग्नि देने के लिये ले जाते हैं। वह है आत्मा का निष्कासन। आत्मा रूपी तत्व उस शरीर से निकल जाता है जिसको कोई नहीं रोक सकता। आत्मा एक ऐसा तत्व है जिसके शरीर में प्रवेश करते ही शरीर सक्रिय हो जाता है और निष्कासित होते ही निष्क्रिय व शिथिल हो जाता है। इस आत्मा के बारे में सही कहा गया है:

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः।। अर्थात् आत्मा को न तो कोई शस्त्र काट सकता है, न कोई आग जला सकती है, न कोई पानी भिगो सकता है और न ही कोई वायु उसे सुखा सकती है। इस प्रकार आत्मा अजर और अमर है, यह निर्विवाद सत्य है।

यह विषय हमेशा से ही विवाद का विषय रहा है कि पुनर्जन्म होता है या नहीं। सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि पुर्नजन्म होता क्या है? पुर्नजन्म का तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति की जब मृत्यु होती है तब मनुष्य में काफी वासनाएं, इच्छाएं, मोह और लोभ की भावना रहती है तथा कुछ लोगों में ऐसा नहीं होता है। जिन लोगों में इच्छायें, वासनाएं व मोह और लोभ नहीं होता है उनकी आत्माएं शांति से मनुष्य को सामयिक मृत्यु देकर शरीर को त्याग देती हैं और कुछ समय तक स्वर्गलोक में निवास करके वे वापिस इस मृत्युलोक में किसी दूसरे शरीर को धारण करके इस संसार में रहते हैं और अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर सुख और दुख प्राप्त करते हैं।

जब कोई व्यक्ति किसी स्थान या व्यक्ति विशेष से प्रेम करने लग जाता है तो पुनः उस व्यक्ति का साथ पाने के लिये या उस स्थान पर आने के लिये वह किसी अन्य शरीर के रूप में जन्म लेकर उस स्थान या उस परिवार में पुनः आ जाता है। इसके कई उदाहरण हमंे देखने को मिल जाते हैं। ऐसा ही एक महिला के रूप में देखने को मिला कि वह एक महिला थी जिसकी काफी समय पूर्व मुत्यु हो चुकी थी और उसको अपने महल में गाना गाने का बहुत शौक था। इसलिये उसने पुनः शरीर धारण करके एक महिला के रूप में जन्म लिया और उस महिला को एक स्वप्न दिखाई दिया जिसमे उसको वह महल भी दिखाई दिया जिसमें वह गाना गाया करती थी। वह किसी प्रकार उस महल को ढूंढने में सफल हो गयी।


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वह महिला उस महल में गयी तो उसको सब कुछ याद आता गया। और वह उस महल के बारे में बताने लगी कि यहां पर रास्ता है, यहां सीढ़ियां हैं, बालकनी है, यहां पर कमरा है, आदि-आदि। जबकि इससे पहले वह इस महल में इस जन्म में कभी भी नहीं गयी थी। किसी बुजुर्ग व्यक्ति से पूछने पर पता चलता है कि काफी समय पूर्व एक बूढ़ी महिला यहां बालकनी में बैठकर गाना गाया करती थी, तभी उसकी मृत्यु हो गयी थी, अर्थात् उस महिला का उस स्थान से तथा गाना गाने के शौक से गहरा जुड़ाव था जिसके कारण वह पुनः उसी स्थान पर अन्य महिला के रूप में जन्म लेकर पुनः आ गयी।

मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं हो जाता बल्कि मृत्यु अनंत जीवन श्रृंखला की एक कड़ी है। जीवात्मा एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होती है। दो जीवन के बीच में यह जीवात्मा शांति से रहे, इसके लिए श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध का फल जीवात्मा को जातक की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलता है, श्राद्ध से तृप्त हेाकर पितृगण श्राद्ध कर्Ÿाा को दीर्घायु, धन, विद्या, सुख, राज्य और मोक्ष प्रदान करते है।

हिंदू माह गणना में आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के दौरान सूर्य देवता पृथ्वी के निकट रहते हैं एवं पितरों का प्रभाव पृथ्वी पर अधिक रहता है। इसलिए इस पक्ष में पितरों के निमिŸा दान, तर्पण व भोजन कराया जाता है और यह माना जाता है कि पितरों का मनपसंद भोजन यदि किसी ब्राह्मण या ब्राह्मणी को कराया जाएगा तो उसका स्वाद हमारे पितरों को भी मिलेगा और इससे उनकी आत्मा तृप्त होगी। पितरों के प्रति श्रद्धाजंलि व जलांजलि भेंट की जाती है।

जलांजलि भेंट करने की क्रिया ही तर्पण कहलाती है। तर्पण देते समय अनामिका उंगली में कुशा की पवित्री धारण करने का विधान है। एक पात्र में जल, चावल, जौ, दूब, तिल व सफेद पुष्प, डाल कर छह चरणों में तर्पण किया जाता है- पहला देव तर्पण, दूसरा ऋषि तर्पण, तीसरा दिव्य मनुष्य चैथा दिव्य पिता पांचवा यम छटा पितृ तर्पण।

तर्पण के उपरांत गाय, कुत्ता, कौवा व चीटीं को भोजन का अंश प्रदान कर पितरों के निमित्त ब्राह्मण व अतिथी को भोजन करा कर दक्षिणा दी जाती है और आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। पितरों का आशीर्वाद इस जन्म व उस जन्म दोनों में शांति व आनंद प्रदान करता है।

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