आत्म तत्व की शाश्वतता और निरंतरता ही पुनर्जन्म और पूर्व जन्म के मूलभूत कारण हैं। इस तथ्य को संसार के सभी प्राचीन धर्म ग्रंथों में स्वीकार किया गया है। गीता इन ग्रंथों में सर्व प्रमुख है। बृहद्पराशर होरा शास्त्र की संपूर्ण व्याखयाएं भी इसी अवधारणा पर आधारित हैं।
होरा शास्त्र 8 प्रकार के श्रापों को विभिन्न प्रकार की बाधाओं का कारण मानता है। लाल किताब भी इस सत्य की पुष्टि करती है। युग- युगांतरों से सृष्टि का क्रम जारी है। हमारी सृष्टि जब से है तब से पुनर्जन्म की अवधारणा का इतिहास है। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में तो ऐसा कहा ही जा सकता है।
हिंदु संस्कृति और सभ्यता से जीवन्त सामाजिक परिवेश में ''पुनर्जन्म'' अनेक काव्यों और लोक गाथाओं में वर्णित है। हिंदु धर्म से भिन्न कुछेक धार्मिक ग्रंथ 'कुरान' आदि में पुनर्जन्म एवं आत्मा की अमरता को नहीं स्वीकारा गया है। परंतु इन धर्म ग्रंथों का इतिहास ही नया है। हिंदु धर्म या उससे मिलते-जुलते अन्य धर्मों-सिख, बौद्ध आदि में पुनर्जन्म की अवधारणा को ठोस समर्थन प्राप्त है।
''वेद'' दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ हैं। इनमें भी आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की चर्चा की गई है। ''गीता'' पुनर्जन्म की व्याखया को सुदृढ़ करने वाला अद्वितीय ग्रंथ है। देश में अनेक ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं जो हमारे पुनर्जन्म की अवधारणा को सत्य सिद्ध करती है। अमुक बच्चा/बच्ची अल्पायु में ही अपने को पूर्वजन्म में अमुक नाम का व्यक्ति, अमुक गांव का रहने वाला अपने को बताता है।
वह पूर्वजन्म के अपने माता-पिता एवं कुछेक संबंधियों का नाम भी बताता है। वह पूर्वजन्म में अपनी मृत्यु के कारण को भी बताता है। बताए गए गांव में ले जाने पर वह पूर्वजन्म के अपने घर, माता-पिता आदि को भी पहचान लेता है। ये सब घटनाएं यह सिद्ध करने को काफी है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है और आत्मा अमर है।
हमारी संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि जिस व्यक्ति को मरणोपरांत मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है, वह दो प्रकार की योनियों में जाता है। प्रथम वह या तो पुनः जन्म लेता है या अधम योनि भूत-प्रेतादि योनि में जाता है।
आत्मा की अमरता- वैज्ञानिक कसौटी पर खड़ा तथ्य : कुछ वर्ष पूर्व ही अमेरिकी भौतिकविदों ने अंतरिक्ष और काल (समय) की गणना कर सात समानांतर ब्रह्मांड होने का दावा किया है। लेकिन ये सात समानांतर ब्रह्मांड कहां हैं, इसके संबंध में कोई जानकारी उन्हें अभी नहीं है। उन्होंने कहा है कि मृत्यु के करीब पहुंचा व्यक्ति इसका अनुभव करता है।
तथापि उनका दावा है कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद शरीर से निकली आत्मा किसी ''दूसरी दुनिया'' में पहुंच जाती है अर्थात आत्मा का विनाश नहीं होता है। हमारे समाज में भी कहा जाता है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा का जन्म इस लोक के अलावा अन्य लोक लोकान्तरों में होता है और मृत्यु के समय व्यक्ति को ''रील'' की तरह सब कुछ दिखता है।
पुनर्जन्म के बारे में ज्योतिषीय तथ्य बृहज्जातक नैर्याणिकाध्याय के अनुसार : सूर्य और चंद्रमा में जो बली हो वह बली ग्रह जिस द्रेष्काण में हो उस द्रेष्काण का स्वामी गुरु हो तो जातक देवलोक से आता है।
यदि चंद्रमा या शुक्र द्रेष्काणपति हो तो पितृलोक से; यदि सूर्य या मंगल द्रेष्काणपति हो तो निर्यग(मर्त्य) लोक से तथा यदि शनि या बुध द्रेष्काणपति हो तो नरक से जातक आया हुआ है ऐसा समझना चाहिए। इसी अध्याय में मरणोपरांत जीव की स्थिति भी बतायी गई है। जन्म लग्न से 6/7/8 स्थान में स्थित ग्रहों में जो ग्रह बली हो उस ग्रह के लोक (उपरोक्त विवरण के अनुसार) में जातक जाता है।
यदि 6/7/8 स्थान में कोई ग्रह नहीं हो तो षष्ठ भावगत द्रेष्काण के स्वामियों में जो ग्रह बली हो उस ग्रह के लोक में जातक मरणोपरांत जाता है। यदि गुरु कर्क का होकर लग्न से 1/4/6/10/6/8 भावों में से किसी भाव में हो अथवा मीन लग्न में शुभ ग्रह का नवांश हो और इन दोनों योगों में अन्य सब ग्रह निर्बल हों तो जातक मोक्ष प्राप्त करता है।
वृह्तपाराशर होरा शास्त्र के अनुसार : पूर्व जन्म के शापों के कारण वर्तमान जन्म में जातक के संतानहीन होने की बात कही गई है। यह भी पूर्व जन्म की अवधारणा को सही प्रमाण्ि ात करता है। इन शापों की संखया 8 बताई गई है। जैसे-पितृशाप, मातृ शाप, भातृशाप, मातुल (मामा) का शाप, ब्रह्मशाप, पत्नीशाप, प्रेतशाप, सर्पशाप।
प्रेतशाप के संबंध में वृहत पाराशर होरा शास्त्र कहता है कि अगर श्राद्धाधिकारी अपने मृतपितरों का श्राद्ध नहीं करता है तो वह मृत मनुष्य प्रेत होकर शाप देता है कि वह श्राद्धाधिकारी व्यक्ति भी अगले जन्म में पुत्रहीन हो जाय। शापों के संबंध में विभिन्न ग्रहों की कुंडली में भावगत योगों की चर्चा की गई है।
लाल किताब के अनुसार : लाल किताब में भी पूर्व जन्म के दोषों के कारण वर्तमान जन्म में पैतृक ऋणों की चर्चा की गई है। जातक की कुंडली से ग्रह योगों के आधार पर इन ऋणों की पहचान की जा सकती है। पैतृक ऋण कई प्रकार के बतलाए गये हैं जो इस प्रकार हैं- स्वऋण, मातृण, पितृण, संबंधी ऋण, बहन या पुत्री-ऋण, स्त्री-ऋण, निर्दयी ऋण, अजन्मे का ऋण एवं ईश्वरीय ऋण।
इस प्रकार ''पुनर्जन्म '' की अवधारणा का सत्य धर्मशास्त्र, भारतीय संस्कृति में विद्यमान लोकधारणा, काव्य लेख, ज्योतिषीय तथ्य, समाज में जन्मे बच्चों के द्वारा पूर्वजन्मों की पुष्टि एवं वैज्ञानिक खोजों के आधार पर पुष्ट, संबंधित और दृढ़ होता है।
''पुनर्जन्म '' की अवधारणा का सत्य धर्मशास्त्र, भारतीय संस्कृति में विद्यमान लोकधारणा, काव्य लेख, ज्योतिषीय तथ्य, समाज में जन्मे बच्चों के द्वारा पूर्वजन्मों की पुष्टि एवं वैज्ञानिक खोजों के आधार पर पुष्ट, संबंधित और दृढ़ होता है।
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