हम सभी जाने-अनजाने जो भी कार्य करते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। अच्छे आशय से किये गये कर्म सत्कर्म तथा दुर्भाव से किये गये कर्म दुष्कर्म कहे जाते हैं। अच्छे और बुरे सभी कर्म सुख-दुख में परिवतर्तित होते हैं। प्रत्येक कर्म का फल संबंधित व्यक्ति को लक्ष्यानुसार भोगना ही पड़ता है। और यह भी जरूरी नहीं कि कर्म फलों का निपटारा एक ही जन्म में हो जाये।
यह एक से अधिक और कई बार कई जन्मों तक और कुछ विशेष स्थितियों में युग-युगान्तरों तक बाद में भी हो सकता है। आपने देखा होगा कि हम सभी वक्त जरूरत के लिए एक बचत खाता किसी भी वित्तीय अथवा सरकारी संस्था में सुनिश्चित और सुविधाजनक क्रेडिट तथा डेबिट ट्रांसफर करने के लिए खोलते हैं जिसमें हम अपनी आय का कुछ भाग अनिवार्य हालात से निपटने के लिए रखते हैं।
खाता खोलते समय कुछ राशि प्रारंभिक राशि के रूप में जमा की जाती है। उसके बाद ही वह खाता शुरू होता है। इस खाते में खाताधारक अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार अनेक बार राशि की जमा और घटा करता रहता है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति द्वारा शुभ कार्य किये जाने पर उसके कर्म खाते में पुण्य रूपी फल जमा होते रहते हैं जिसका सामान्यतः उसे पता भी नहीं रहता।
कभी-कभी तो कुछ व्यक्ति अचानक प्राप्त हुई किसी बहुत बड़ी राशि को जमा करके भूल जाते हैं लेकिन जब बैंक के नियमों के अनुसार उस पर व्याज आदि के रूप में एक बहुत बड़ी राशि हाथ में आती है तो खातेदार गद्गद् हो जाता है और आकाश से बरसे पुण्य सलिल की तरह उसे बटोरता रहता है। कई बार तो ऐसी बड़ी राशि से खाताधारक की कई पुश्तें कृतार्थ और लाभान्वित हो जाती है।
इसीलिए कहा गया है 'नेकी कर दरिया में डाल' क्योंकि नेकी का फल जरूर मिलेगा। खाते की राशि को एक से दूसरे खाते में स्थानांतरित भी किया जा सकता है तथा चाहे तो उसे बंद भी किया जा सकता हैं। आपके खाते में आपके परिवार के सदस्य तथा अन्य कोई देनदार या लेनदार चैक द्वारा धन जमा कर सकते हैं और निकाल भी सकते हैं।
ऐसे ही व्यक्ति के पूर्वजों द्वारा किए गए सद्-असद् कार्यों के फल रूपीधन उसके या उससे जुड़े सदस्यों के खाते में निकट संबंधी व रक्त संबंधी पर लागू होने वाले नियमों के अनुसार खाते में जुड़ते या घटते जाते हैं। दावेदार अथवा नामिती के न होने पर कर्मफल की सारी जमा राशि सरकार के खाते में चली जाती है।
उसी प्रकार निष्काम (निजी स्वार्थ रहित) कर्म फल रूपी राशि उस परमात्मत्व में विलीन होकर संपूर्ण ब्रह्मांड में जीवात्म तत्व का समान रूप से पोषण करती है। ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार और सांसारिक विधि-विधान के अनुसार भी प्रत्येक जीव को जहां अपने किये गये कर्मों के फल तो अवश्य भोगने ही पड़ते हैं वहीं कर्म के स्वाभाविक फल की अनदेखी करने से वह संचित (प्लस या माइनस) निधि लुप्त या क्षीण नहीं हो जाती।
केवल निष्कामकर्मी ही सुख-दुख की अनुभूतियों के जंजाल से ऊपर उठकर उनसे अप्रभावित व असंपृक्त रह पाता है। वस्तुतः वह स्थिति बहुत लंबे समय के अभ्यास से ही प्राप्त हो सकती है। शरीर से आत्मा का मुक्त होना ही मृत्यु कहलाता है।
लेकिन वहीं खाता बंद नहीं हो जाता। वह फिर से किसी रूप में जीवित हो उठता है और पहले की सभी लेनदारियां या देनदारियों अंतिम निपटारा होने तक नियमानुसार बढ़ती ही जाती हैं।
अतः भरसक सावधानी बरतें कि कोई भी लेनदारी या देनदारी बहुत भारी न पड़े। देनदारी (बुरे कर्मों का फल) जितनी जल्दी और प्रसन्नता से निपटा ली जाये, उतना ही अच्छा। आगे के लिये केवल लेनदारी बाकी रहे तो लौकिक व आत्मिक आनंद प्राप्त कर सर्वविध आगे बढ़ सकेंगे।
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