ऊँ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिब्र्रह्म शान्तिः सर्वं् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।।
हमारे लिए द्युलोक, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधियां, वनस्पतियां, विश्व देव, परब्रह्म सब शांतिप्रद हों। चारांे ओर शांति हो, शांति हो। इस प्रकार की शांति हमारी ओर सदा बढ़ती रहे।
वैदिक ज्योतिष में ग्रहण को सर्वदा अनिष्टकारी ही माना गया है जबकि वैज्ञानिक इसको केवल ग्रहों की चाल का एक हिस्सा मानते हैं। उनके अनुसार पृथ्वी और चंद्रमा सर्वदा घूमते रहते हैं और इस कारण जब भी चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य आता है तो सूर्य ग्रहण और पृथ्वी चंद्र तथा सूर्य के मध्य आती है तो चंद्र ग्रहण होता है।
खगोलविज्ञान के अनुसार ग्रहण के कुछ नियम हैं
- एक वर्ष में अधिकतम 7 ग्रहण हो सकते हैं-3 सूर्य और 4 चंद्र या 2 सूर्य और 5 चंद्र।
- एक वर्ष में कम से कम दो सूर्य ग्रहण होते हैं।
- 18 वर्ष 11 दिन बाद ग्रहणों के क्रम की पुनरावृत्ति होती है। इसे सरोस चक्र कहते हैं।
- 19 वर्ष पश्चात तारीख और तिथि की पुनरावृत्ति होती है।
- सूर्य ग्रहण से अधिक चंद्र ग्रहण होते हैं।
- सूर्य ग्रहण से पहले या बाद में चंद्र ग्रहण अवश्य होता है।
- सूर्य जब राहु या केतु को 9 दिनों में छू लेने वाला हो तभी चंद्र ग्रहण लग सकता है।
- सूर्य ग्रहण के लिए सूर्य की राहु/केतु से अधिकतम दूरी 18.50 हो सकती है।
- सूर्य से राहु या केतु की दूरी 12.10 से कम होने पर ही चंद्र ग्रहण हो सकता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण के लिए यह दूरी 50 से कम होनी आवश्यक है।
- चंद्र ग्रहण की अधिकतम अवधि पौने दो घंटे होती है।
- पूर्ण सूर्य ग्रहण अधिक से अधिक 7 मिनट 30 सेकंड ही रह सकता है।
ग्रहण जैसी ग्रह स्थिति तो प्रत्येक अमावस्या या पूर्णिमा को भी उत्पन्न होती है, अंतर केवल इतना ही है कि सूर्य, चंद्र और पृथ्वी एक धुरी में होते हैं तो ग्रहण होता है एवं चंद्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी की रेखा से ऊपर या नीचे रह जाता है तो ग्रहण नहीं होता। इस प्रकार विचार करने से तो ग्रहण में और पूर्णिमा व अमावस्या में कोई अधिक अंतर नहीं दिखता, फिर क्यों वैदिक ज्योतिष में इसको इतना महत्व दिया गया है? ग्रहण और भूकंप का क्या संबंध है? 200 से अधिक भूकंपों के अध्ययन से मालूम चलता है कि बड़े विनाशकारी भूकंप अधिकतर ग्रहणों के पास अर्धरात्रि को या सुबह आते हैं। ग्रहण का भूकंप से संबंध क्यों है? इसका मुख्य कारण है गुरुत्वाकर्षण शक्ति। हमें मालूम है कि भूकंप पृथ्वी की प्लेटों में हलचल के कारण आते हैं। विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार कोई भी वस्तु तब तक नहीं हिलती है जब तक उस पर कोई बल न लगाया जाए।
पृथ्वी की प्लेटों को हिलाने के लिए बहुत अधिक बल की आवश्यकता होती है जोकि प्रकृति में ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण से ही मिलना संभव है। सूर्य, चंद्र और पृथ्वी के एक ही धुरी में आ जाने से यह गुरुत्वाकर्षण खिंचाव बहुत अधिक हो जाता है एवं चंद्रमा की तीव्र गति के कारण इस बल की दिशा में बदलाव आता रहता है जिसके फलस्वरूप प्लेटों में हलचल मचती है और भूकंप की स्थिति बनती है। ज्योतिष में इससे भी अधिक सूक्ष्मता से ऋषि मुनियों ने ग्रहणों के प्रभाव का अध्ययन भूकंप ही नहीं बल्कि मनुष्य के ऊपर भी किया है जैसे:
- अग्नि राशि में ग्रहण राजा के लिए अनिष्टकर एवं युद्ध व आगजनी का कारक होता है। पृथ्वी राशि में कृषि के क्षेत्र में आपदा एवं भूकंप देता है। वायु राशि में आंधी व तूफान और जल राशि में बाढ़ एवं पानी से कष्ट तथा भारी संख्या में नरसंहार दर्शाता है।
- जिस अंश पर ग्रहण लगता है यदि उसी अंश के आस पास जन्मांग में कोई ग्रह हो तो उस पर ग्रहण का बुरा असर पड़ता है। यह ग्रह जिस भाव का कारक होगा उसका फल प्रभावित होगा।
- यदि भाव के अंश पर ग्रहण लगता है तो भी उस भाव के फल प्रभावित होते हैं।
ग्रहण का असर कई गुना अधिक हो जाता है जब अन्य ग्रह सभी राशियों में बंटे न होकर आसपास की राशियों में ही स्थित रहते हैं। 3 अक्तूबर 2005 को सूर्य ग्रहण के दिन मंगल को छोड़ शेष ग्रह कर्क 150 से वृश्चिक 10 के मध्य अर्थात 1050 के मध्य ही थे। ऐसी स्थिति में चंद्रमा जब भी बाहर निकलता है, गुरुत्वाकर्षण एकदम कम हो जाता है एवं प्लेटें खिसक जाती हंै जिससे भूकंप की स्थिति पैदा हो जाती है।
3 अक्तूबर को ग्रहण पृथ्वी राशि में होने के कारण भूकंप का कारक बना। ग्रहण क्योंकि दक्षिण एशिया में देखा गया था इस कारण यह क्षेत्र भूकंप के लिए और भी अधिक संवेदनशील हो गया। इस दिन सूर्य कन्या राशि अर्थात पृथ्वी राशि में था जोकि भूकंप कारक है। इस प्रकार 9 अक्तूबर, 2005 को पाकिस्तान व भारत में 7.4 तीव्रता का भूकंप आया जोकि 40,000 से अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बना।
एक बात अवश्य है कि ग्रहण एवं ग्रहों की स्थिति से भूकंप का संबंध तो अवश्य है, लेकिन भूकंप आएगा या नहीं इसके लिए पृथ्वी के अंदर भी झांकने की आवश्यकता है। केवल ज्योतिष द्वारा भूकंप का पूर्णतया पूर्वानुमान लगाना कठिन है क्योंकि यदि प्लेटों के बीच में अंतर पहले से अधिक हो तो गुरुत्वाकर्षण में थोड़ा सा परिवर्तन भी भूकंप पैदा कर देता है अन्यथा गुरुत्वाकर्षण में आया भारी परिवर्तन भी भूकंप पैदा नहीं कर पाता। अतः ज्योतिष से हम भूकंप का पूर्वानुमान तो लगा सकते हैं लेकिन कहां पर, किस समय, किस क्षमता का भूकंप आएगा इसकी निश्चित भविष्यवाणी करना कठिन है।