मानव जीवन के कल्याण के लिए तपोधन महर्षियों ने अनेक साधन नियत किए हैं; उनमें से एक साधन व्रत भी है। व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के अनेक जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं। इन्दिरा एकादशी व्रत करने से पाप तो दूर होते ही हैं, नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी सद्गति मिलती है। व्रतों के प्रभाव से कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित पाप, उपपाप और महापापादि भी दूर हो जाते हैं।
व्रतों के प्रभाव से मनुष्यों की आत्मा शुद्ध होती है। संकल्प शक्ति में वृद्धि होती है, बुद्धि, विचार, चतुराई या ज्ञान तंतुओं का समग्र विकास होता है। व्रतों के प्रभाव से हमारे पूर्वजों के जीवन में आए व्यवधान भी दूर हो जाते हैं और उनको उत्तमोत्तम लोकों की प्राप्ति एवं ऐश्वर्य भोग प्राप्त हो जाते हैं।
उनके निकटस्थ बंधु-बांधवों के शुभ संकल्प ही असद्गतियों को प्राप्त पूर्वजों के अद्वितीय कल्याण का साधन बन जाते हैं। व्रत करने वाला दशमी तिथि को एक समय भोजन ग्रहण करे।
एकादशी तिथि को पूर्ण व्रत का पालन करता हुआ, द्वादशी तिथि में देवपूजनोपरांत ब्राह्मण भोजन कराके दक्षिणादि से संतुष्ट कर नियमानुसार भोजन करे, तो निश्चय ही कल्याण होता है। एक समय नंदनंदन भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणामकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछा - मधुसूदन! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में कौन सी एकादशी होती है?
भगवान् श्री कृष्ण बोले- राजन् ! आश्विन कृष्णपक्ष में 'इंदिरा' नामकी एकादशी होती है। उसके व्रत के प्रभाव से बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है। नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सद्गति देने वाली है। राजन्! पूर्वकालकी बात है, सत्ययुग में इंद्रसेन नामसे विखयात राजकुमार थे, जो माहिष्मतीपुरी के राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। उनका यश सब और फैल चुका था।
राजा इंद्रसेन भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हो गोविन्द के मोक्षदायक नामों का जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्व के चिंतन में संलग्न रहते थे। एक दिन राजा राजसभा में सूखपूर्वक बैठे हुए थे। इतने ही में देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहां आ पहुंचे। उन्हे आया देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया।
इसके बाद वे इस प्रकार बोले - 'मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से सर्वथा कुशल है। आज आपके दर्शन से मेरी संपूर्ण यज्ञ-क्रियाएं सफल हो गयीं। देवर्षे! अपने आगमन का कारण बताकर मुझपर कृपा करें।' नारद जी ने कहा - नृपश्रेष्ठ ! सुनो, मेरी बात तुम्हें आश्चर्य में डालने वाली है। मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में आया था। वहां एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा और यमराज ने मेरी भक्तिपूर्वक पूजा की।
उस समय यमराज की सभा में मैंने तुम्हारे पिता को भी देखा था। वे व्रतभंग के दोष से वहां आये थे। राजन् ! उन्होंने तुमसे कहने के लिये एक संदेश दिया है, उसे सुनो। उन्होंने कहा 'बेटा ! मुझे 'इंदिरा' के व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग में भेजो।' उनका यह संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूं। राजन् ! अपने पिता को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिये 'इन्दिरा' का व्रत करो।
राजा ने पूछा - भगवन ् ! कृपा करके 'इन्दिरा' का व्रत बताइये। किस पक्ष में, किस तिथि को और किस विधि से उसका व्रत करना चाहिये। नारदजी ने कहा - राजेन्द्र ! सुनो, मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि बतलाता हूं। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में दशमी के उत्तम दिन को श्रद्धायुक्त चित्त से प्रातःकाल स्नान करे।
फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करें तथा रात्रि में भूमि पर सोयें। रात्रि के अंत में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुंह धोयें। इसके बाद भक्ति भाव से निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए उपवास का नियम ग्रहण करें-
अद्य स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः।
श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत॥ (60 ! 23)
'कमलनयन भगवान् नारायण ! आज मैं सब भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करूंगा। अच्युत ! आप मुझे शरण दें।' इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकाल में पितरों की प्रसन्नता के लिये शालिग्राम-शिला के सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करे तथा दक्षिणा से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें भोजन करायें।
पितरों को दिये हुए अन्नमय पिंड को सूंघकर विद्वान् पुरुष गाय को खिला दे। फिर धूप और गंध आदि से भगवान ् हृषीकेश का पूजन करके रात्रि में उनके समीप जागरण करें। तत्पश्चात सबेरा होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे। उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर भाई-बंधु, नाती और पुत्र आदि के साथ स्वयं मौन होकर भोजन करे। राजन् ! इस विधि से आलस्यरहित होकर तुम 'इन्दिरा' का व्रत करो।
इससे तुम्हारे पितर भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ धाम में चले जायेंगे। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - राजन! राजा से ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये। राजा ने उनकी बतायी हुई विधि से अंतःपुर की रानियों, पुत्रों और भृत्योंसहित उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया। व्रत पूर्ण होने पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी।
पिता श्रीविष्णुधाम को चले गये और अकण्टक राज्य का उपभोग करके राजर्षि भी अपने पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गए। 'इन्दिरा' व्रत के इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। जीवन को प्रकाशित करने वाला एवं पूर्वजों की कृपा व आशीर्वाद को प्राप्त कराने वाला यह उत्तम व्रत है।
भगवान् श्री कृष्ण बोले- राजन् ! आश्विन कृष्णपक्ष में 'इंदिरा' नामकी एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है। नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सद्गति देने वाली है।
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