जहां पूर्व जन्म और पुनर्जन्म इस जीवन रूपी सरिता के दो तट हैं, वहीं इन दोनों के बीच की कुछ अवधि़ प्रत्यक्ष शरीर की रूप-रेखा से दूर रहती हैं। जीव की यही अवस्था प्रेत योनी कहलाती है। इस योनी के क्या मूलभूत कारण और ज्योतिषीय योग हैं और किस-किस ग्रह स्थिति में जीव ऊपर के किन-किन लोकों की यात्रा करता है, इस विषय का विस्तार जानने के लिए, पढ़िए यह लेख।
जीव की मरणासन्न व मरणोपरांत गति : 'जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते न जीवो म्रियते।' अर्थात् जीव से रहित हुआ यह शरीर ही मरता है, जीवात्मा नहीं मरता। (छा.उ. 6/11/3) मरणासन्न मनुष्य को बड़ी बैचेनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है, क्योंकि सब नाड़ियों से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है। प्राण निकलने का समय जब बिल्कुल पास आ जाता है तो व्यक्ति मूर्छित हो जाता है, अचेतन अवस्था में ही प्राण उसके शरीर से बाहर निकलते हैं।
मरते समय वाक् (वाणी) आदि इंद्रियां मन में स्थित होती हैं, मन प्राण में और प्राण तेज में (तेज से तात्पर्य है पंच सूक्ष्म भूत समुदाय) तथा तेज परमदेव जीवात्मा में स्थित होता है। जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ इस स्थूल शरीर से निकल जाता है। यह भी छान्दोग्योपनिषद् का कथन है। आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी शरीर के बीजभूत पांचों तत्वों का सूक्ष्म स्वरूप ही सूक्ष्म शरीर कहा गया है।
भारतीय योगी सूक्ष्म शरीर का रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप (सफेद) मानते हैं। ब्रह्मवेत्ता योगी के प्राण ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकलते हैं, जबकि साधारण मनुष्य के प्राण मुख, आंख, कान या नाक से और पापी लोगों के प्राण मल-मूत्र मार्ग से बाहर निकलते हैं। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार 'वह प्राण उदानवायु के सहारे जीवात्मा को उसके संकल्पानुसार भिन्न-भिन्न लोकों (योनियों)' में ले जाता है।
व अपने साथ धन-दौलत तो नहीं किंतु ज्ञान, पाप-पुण्य कर्मों के संस्कार अवश्य ही ले जाता है। यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है। वायु रूप होने के कारण भारहीन होता है। मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है।
स्थूल शरीर छोड़ने के बाद सूक्ष्म शरीर अन्त्येष्टि क्रिया होने तक उसके आस-पास ही मंडराता रहता है। जला देने पर उसी समय निराश होकर अन्यत्र कहीं चला जाता है। मृतक का अपने शरीर से और परिवार से मोह खत्म हो जाए इसलिए उसे उसके प्रिय पुत्र से ही मुखाग्नि दिलाई जाती है।
वृद्ध व्यक्तियों की वासनाएं प्रायः शिथिल हो जाती हैं, इसलिए वे मृत्यु के बाद निद्राग्रस्त हो जाते हैं। अपघात से मरे युवा व्यक्ति सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान रहते हैं तथा विषय मानसिक स्थिति के कारण उन्हें नींद नहीं आती है। कई विशिष्ट व्यक्ति छः महीने में ही पुनर्जन्म ग्रहण कर लेते हैं। बहुतों को पांच वर्ष लग जाते हैं।
प्रेतों की आयु अधिकतम 12 वर्ष समझी जाती है। जीव जितने समय तक परलोक में ठहरता ह,ै उसका प्रथम एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है, क्योंकि पूर्वजन्म की थकान के कारण वह अचेतन सा हो जाता है। भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन तो जीवित रहता है। इसी मन से वह अपने अच्छे-बुरे कर्म के फलों का अनुभव करता है।
प्रेत योनि : प्रेत योनि एक प्रकार का नरक और पाप योनि है। यह एक अस्वभाविक योनि है। सांसारिक वासनाओं की उग्रता के कारण जीव आगे की परलोक यात्रा करने की अपेक्षा, प्राचीन संबंधियों के मोह जाल में फंसकर पीछे की ओर वापिस चलता है।
इसलिए कहा जाता है कि प्रेत के पांव उलटे होते हैं अथवा सृष्टि क्रमानुसार उनकी गति न होने के कारण वे जीव प्रेतयोनि धारण कर लेते हैं। प्रेत योनि में कौन जाता है, इसका विचार हम बिंदु वार कर रहे हैं- महर्षि पराशर के अनुसार 'जब पितरों के श्राद्ध कर्मों का लोप होता है तो वे पिशाच योनि में चले जाते हैं।'
मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि क्रिया न हो या पुत्र तर्पण, पिंडदान आदि क्रियाएं न करें तो मृतक की आत्मा अतृप्त रहती हैं तथा आगे की यात्रा करने के लिए उन्हें ऊर्जा नहीं मिल पाती, फलस्वरूप उन्हें प्रेत योनि में जाना पड़ता है। अपमृत्यु अर्थात् युवावस्था में मरने से, हत्या, आत्महत्या, सर्पदंश या हिंसक पशु द्वारा मृत्यु होने पर पानी में डूबकर या अग्नि में जलकर मरने, जहर या एक्सीडेंट से मृत्यु होने पर भी जीव प्रेत (पिशाच) योनि में चला जाता है।
पिशाच योनि में गई जीवात्मा स्वयं पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए हानि पहुंचाने वाले को अनेक प्रकार के दुख एवं कष्ट देती है। प्रेतयोनि में गये हुए पितर अपने परिवार तथा कुल में पीड़ा उत्पन्न करते हैं। वे रुष्ट होकर वंश-वृद्धि को भी रोकते हैं।
प्रेतशापित व्यक्ति : जिस जातक के जन्म लग्न में शनि-राहु की युति हो तो वह प्रेतबाधा से पीड़ित होता है। लग्न में राहुग्रस्त चंद्र हो, पंचम में पाप ग्रस्त शनि और नवम में मंगल होने पर पिशाच (प्रेत) बाधा होती है। अष्टम स्थान में क्षीण चंद्रमा, राहु, शनि या मंगल से युक्त हो, तो प्रेतबाधा योग बनता है। चंद्रमा के पाप ग्रस्त होने से मन कमजोर और भय क्रांत हो जाता है।
फलतः ऐसे ही स्त्री/पुरुषों पर भूत-प्रेत सवार होते हैं और आत्मिक बल (सूर्य, चंद्र की शुभता) से सम्पन्न व्यक्ति पर जादू-टोने का कोई प्रभाव नहीं होता।
परलोक और पुनर्जन्म : मनुष्य को निश्चय ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग-नरक का अनुभव प्राप्त करना पड़ता है। स्वर्ग में जाने के बाद जब मनुष्य के पुण्य कर्मों का फल समाप्त हो जाता है तो उसे पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ता है।
इसी प्रकार नरक लोक में पाप कर्मों का फल भुगत लेने के बाद जब व्यक्ति अपनी बुराईयों को दूर करके पवित्र हो जाता है, तब उसका पुनर्जन्म होता है। प्रेतयोनि में जाने के बाद पुनर्जन्म हेतु लगभग बारह वर्ष लग जाते हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है- निश्चय ही जीव पुण्य-कर्म से पुण्यशील होकर पुण्ययोनि में जन्म पाता है और पाप-कर्म से पापयोनि में जन्म ग्रहण करता है।
अच्छे कर्म करने वाला सुखी एवं सदाचारी कुल में जन्म और पाप करने वाला पाप योनि में जन्म ग्रहण करके दुःख उठाता है। आशय यह है कि मनुष्य अपने संचित कर्मों (कर्म संस्कारों) के अनुसार ही अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता है। कठोपनिषद् के अनुसार, मरने के बाद इन जीवात्माओं में से अपने-अपने कर्मों के अनुसार कोई तो वृक्ष-पहाड़ आदि स्थावर शरीर को धारण कर लेते हैं तथा कोई देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जंगम शरीर को धारण कर लेते हैं।
पाप योनियों में जन्म लेना ही यमयातना रूपी नरक है। कीट आदि योनियां भोग योनियां हैं। अत्यंत दुष्ट कर्म करने वाले जो बार-बार अपनी इंद्रियों का दुरुपयोग करते हैं और अपनी क्रियाशीलता को पतनोन्मुखी कर लेते हैं, उनका जन्म स्थावर (जड़) योनियों में होता है। वृक्षादि के बाद जीव कीड़े-मकोड़े फिर पशु-पक्षियों की योनियां धीरे-धीरे पार करता है। इसी क्रम से वह अधिक ज्ञानवाली योनियों में जाता है। किसी-किसी मनुष्य का इसके विपरीत क्रम से पतन भी हो सकता है।
मनुष्य योनि में जन्म : संसार की चौरासी लाख योनियों को तीन मुखय भागों में बांटा गया है। 1. देव 2. मनुष्य 3. तिर्यक। देव और तिर्यक भोग योनियां हैं, जबकि मनुष्य कर्म योनि है। पाप-पुण्य रूपी मिश्रित कर्म करने वाले को मनुष्य योनि प्राप्त होती है। गीता के अध्याय 14 के 18वें श्लोक में कहा गया है- सत्त्वगुण में स्थित पुरुष ऊपर (देवलोक) को जाते हैं, रजोगुणी बीच में ठहर जाते हैं और निकृष्ट गुण की वृत्तियों में स्थित नीचे को गिरते हैं।
अतः सुख की आकांक्षा वाले राजस जीव मनुष्य योनि में अर्थात् मृत्यु लोक में ही ठहर जाते हैं और बार-बार जन्म-मृत्यु के बंधन में फंसते हैं। पापी मनुष्यों के लिए स्वर्ग तो दुर्लभ ही है, उनका तो पितृलोक (चंद्रलोक) में जाना भी संभव नहीं है। वे सिर्फ नरक में जाकर मृत्युलोक तक आ सकते हैं। जो परिवार जीव की वासनाओं और कर्म संस्कारों के अनुकूल होता है उस घर के आस-पास वह जीवात्मा मंडराने लगता है तथा अवसर की प्रतीक्षा करता है।
जब किसी स्त्री को गर्भ स्थापित होता है तो उस कलिल में कुछ क्षण बाद वह (जीव) प्रवेश कर जाता है। अपने कुटुंबियों और परिवार के प्रति मोहवश पितर प्रायः अपने वंशजों के यहां जन्म लेते हैं। वेदांत दर्शन का सूत्र है, 'योनेः शरीरम्' अर्थात् स्त्री की योनि में प्रविष्ट होने के बाद वह जीवात्मा कर्मफल भोग के अनुरूप शरीर को प्राप्त होता है।
मृत्यु लग्न, सूर्य-मंगल से जानें पुनर्जन्म : जिस समय व्यक्ति की मृत्यु हो, उस समय की लग्न कुंडली बनाएं, यह लग्न की मृत्यु लग्न कहलाती है। यदि मृत्यु लग्न में कोई ग्रह न हो तो मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क राशि के लग्न में मृत जीव का पुनर्जन्म पृथ्वी पर होता है क्योंकि 1, 2, 3, 4 राशि के लग्न भू-चक्र या पृथ्वी लग्न कहलाते हैं। भुवः चक्र : 5, 6, 7, 8 राशि के लग्न में मरा जीव पितृलोक को जाता है।
स्व चक्र : 9, 10, 11, 12 राशि के लग्न में मृत जीव स्वर्ग लोक में जा कर स्वर्गवासी हो जाता है।
देवमर्त्यपितृनार काल प्राणिनो गुरुरिनक्षमासुतौ।
कुर्युरिन्दुभृगजौ बुधार्कजौ मृत्युकालभवलग्नगा यदि॥ (जातक पारिजात-5/118)
मृत्यु लग्न में यदि गुरु बैठे हों, तो जीवात्मा देवलोक (स्वर्गलोक) में जाता है। उसकी परम गति होती है। मृत्यु लग्न में यदि सूर्य, मंगल बैठें हों या लग्न को देखते हों तो मृत व्यक्ति मृत्युलोक (भूलोक) में पुनः आएगा अर्थात उसका पुनर्जन्म होगा। यदि चंद्रमा व शुक्र देखें या स्थित हो तो पितृलोक में जाएगा।
यदि बुध व शनि मृत्यु लग्न में बैठें हों या देखते हों तो मृत जीव नरकगामी होगा। व्यक्ति का भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन तो जीवित रहता है। इसी मन से वह अपने अच्छे-बुरे कर्म के फलों का अनुभव करता है।
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