शनि तोडता है तो शुक्र जोडता है
शनि तोडता है तो शुक्र जोडता है

शनि तोडता है तो शुक्र जोडता है  

आभा बंसल
व्यूस : 8616 | जुलाई 2007

दाम्पत्य जीवन की गाड़ी पति-पत्नी रूपी दो पहियों पर चलती है। दोनों में से एक भी यदि उदासीन हो तो दाम्पत्य सुख में कमी आने लगती है। मात्र दैहिक आकर्षण ही रिश्तों को बनाए रखने के लिए काफी नहीं है दोनों के बीच आपसी लगाव एवं विश्वास ही सफल दाम्पत्य जीवन की निशानी है। प्रस्तुत है इसी कशमकश को पेश करती एक और कथा... ज्योतिष शास्त्र में शनि अपूर्णता, हीनता अभाव आदि का द्योतक है।


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शनि एक पृथकतावादी ग्रह भी है और अपनी दशा अथवा अंतर्दशा एवं साढ़ेसाती में अकारक होकर व्यक्ति को प्रभावित क्षेत्रों से पृथक करता है और एक अलगाव की स्थिति बना देता है। परंतु शुक्र अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। कुंडली में शुक्र की उत्तम स्थिति न केवल व्यक्ति के शारीरिक सौंदर्य और उत्तम संस्कृति में वृद्धि करती है बल्कि दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता भी प्रदान करती है।

कुछ ऐसा ही हुआ वैशाली और उत्सव के साथ। वैशाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एक अच्छे पद पर कार्य करती थी जहां उसकी मुलाकात उत्सव से हुई। उत्सव अत्यंत कार्यकुशल सहयोगशील स्वभाव का लड़का था। दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे कब आपसी प्रेम में बदल गई, पता ही नहीं चला। फिर अपने-अपने परिवार की रजामंदी से दोनों विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए। विवाह के पश्चात उत्सव ने एक काॅल सेंटर में रात की नौकरी पकड़ ली क्योंकि उसमें उसे अधिक वेतन मिल रहा था।

जहां विवाह के पश्चात उन्हें समीप होना चाहिए था और प्रणय बंधन में दृढ़ता आनी चाहिए थी, वहीं वैशाली के जीवन में शनि ने अपनी दस्तक दे दी और विवाह के तुरंत बाद ही उसने दवे पांव नवविवाहित जोड़े के घर में कदम रख दिए। वैशाली सुबह जाकर शाम को लौटती और तभी उत्सव का अपने कार्यालय जाने का समय हो जाता। उस वक्त जब परिणय सूत्रों को आपसी प्रेम, विश्वास और समर्पण की जरूरत थी, वे अलग-अलग अपने कामों में व्यस्त थे।

फिर शुरू हुई अपूर्णता, हीनता और आर्थिक अभाव की कहानी- एक दूसरे पर मिथ्यारोपण, अविश्वास की दृष्टि, बेकार की दौड़ धूप की शिकायत वैशाली को, जिसने कभी उत्सव को संपूर्ण पुरुष मान कर प्रेम किया था, अब उत्सव में हजार खामियां नजर आने लगीं और उत्सव को वैशाली में। दोनों में बात-बात में तू तू मैं मैं होने लगी और फिर शनि ने अपना विच्छेदात्मक प्रभाव डाला और वैशाली उत्सव का घर छोड़ कर अपने घर आ गई। अपने घर आकर भी उसे चैन नहीं था।

अत्यंत मानसिक तनाव में उसका समय बीतने लगा। परिवार वालों की तरफ से जोर पड़ने लगा कि या तो उत्सव के साथ रहे या तलाक ले ले। पर वैशाली चाह कर भी उत्सव से तलाक न ले सकी। उधर उत्सव भी उसके बिना मानो अधूरा सा हो गया था। उसने पूरी तरह से अपने आपको काम में झोंक दिया और विदेश से मिले अवसर को स्वीकार कर विदेश चला गया।

उसकी आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित बदलाव आया, पर उसने समय समय पर वैशाली से बात करना नहीं छोड़ा। उसका फोन मानो वैशाली के व्यथित मन पर प्रेम की फुहार लेकर आता और वह सराबोर हो जाती। इसी तरह लगभग ढाई वर्ष बीत गए और वैशाली को लग रहा था जैसे उसका बनवास भी खत्म हो रहा है।

उत्सव विदेश से लौट आया था और वह फिर से वैशाली के साथ अपना जीवन शुरू करना चाहता था। वैशाली के घर से ढाई वर्ष से डेरा डाले शनि महाराज के रुखसत होने का समय आ गया था। उसके सारे अस्त्र शस्त्र ढीले पड़ चुके थे। कामदेव का प्रभाव शुरू हो रहा था और वैशाली धीरे-धीरे उनकी मदहोशी में खोती जा रही थी।

आइए, देखें वैशाली और उत्सव की कुंडलियों में प्रकाशहीन शनि एवं सौंदर्ययुक्त शुक्र का प्रभाव। वैशाली की कुंडली में पति कारक गुरु लग्नेश होकर सप्तम में स्थित है। शनि की सप्तमेश बुध पर पूर्ण दृष्टि है। चंद्र भी सप्तम भाव को प्रभावित कर रहा है। शुक्र ग्यारहवें भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में स्थित है जिसके कारण उसका विवाह अपने परिचित दोस्त से हुआ अर्थात शुक्र भी इच्छानुसार विवाह करने का कारक बना।

वैशाली और उत्सव के अलगाव के समय उत्सव की शुक्र की महादशा में बुध की अंतर्दशा तथा शनि की प्रत्यंतर दशा चल रही थी। इसके अतिरिक्त शनि की साढ़ेसाती भी चल रही थी। शनि वैशाली के लग्न के लिए पंचमेश तथा षष्ठेश होकर बारहवें भाव में अपने शत्रु सूर्य की राशि में स्थित है। षष्ठेश होने से शनि पूर्णकारक ग्रह नहीं है तथा बारहवें भाव में शत्रु की राशि में इसकी स्थिति है। उसकी यह स्थिति उसे अशुभ होने के साथ-साथ अधिक क्रूर भी बना रही है।

जहां एक ओर शुक्र की महादशा दाम्पत्य सुख प्रदान कर रही थी वहीं शनि ग्रह के अशुभ गोचर के प्रभाववश तथा शनि की ही प्रत्यंतर दशा के दौरान उत्सव के जीवन से वैशाली अलग हो गई। जिस समय वैशाली उत्सव से अलग हुई, उस समय वैशाली की महादशा में बुध की अंतर्दशा, शुक्र की प्रत्यंतरदशा एवं शनि की साढ़ेसाती चल रही थी। बुध सप्तमेश है और छठे भाव में अस्त होकर स्थित है तथा शनि की उस पर पूर्ण दृष्टि पड़ रही है।


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गोचरीय प्रभाव से भी शनि सप्तम भाव को प्रभावित कर रहा था जिसके फलस्वरूप वैशाली को गृहस्थ जीवन के सुख से वंचित होना पड़ा। जिस समय इनका अलगाव हुआ, उस समय दोनों की साढ़ेसाती चल रही थी तथा शनि उनके वैवाहिक जीवन पर अपना अशुभ गोचरीय प्रभाव डाल रहा था। दूसरी ओर उत्वसव की कुंडली में सप्तमेश गुरु उच्च का होकर लाभ भाव से सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है

जिसके फलस्वरूप उसका वैशाली के प्रति झुकाव बराबर बना रहा और वह रिश्ते को दोबारा जोड़ने के प्रति निरंतर प्रयत्नशील रहा और चूंकि अब वैशाली की भी शुक्र की अंतर्दशा शुरू हो चुकी है, वह भी अब उत्सव की ओर फिर से आकर्षित हो रही है। उसके मन में फिर से उत्सव के रंग में रंगने की इच्छा जाग्रत हो उठी है।

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