ज्योतिष शास्त्र में फलित करने की प्रायः तीन विधियां प्रचलन में रहती हैं - जन्म कुंडली, चन्द्र कुंडली तथा नवांश कुंडली। लग्न से शरीर का विचार होता है, चंद्रमा से मन का। जन्म पत्रिका में चंद्रमा से मन की स्थिति देखकर यह निश्चय किया जाता है कि जातक अपनी सांसारिक यात्रा में कितना सफल या असफल होगा। यहाँ तक कि पारलौकिक जीवन की स्थिति भी चंद्रमा से स्पष्ट की जाती है। इन्हीं कारणों से ही महर्षियों ने चन्द्र लग्न से फलित को महत्त्व दिया, किन्तु प्रत्येक जातक का चंद्रमा व्यक्तिगत रूप से अलग फल बताता है, इसलिए हम बारह राशियों का फलित चंद्रमा के गोचरानुसार नहीं कर सकते - अर्थात चंद्रमा के स्थान से जिन-जिन राशियों में ग्रह भ्रमण करते हुए जाते हैं,
वैसा-वैसा फल उसके जीवन में होता है, जिसे गोचर-फल कहते हैं। गोचर के अनुसार फल एक गौण फल विधि है, क्योंकि यह पूर्णतः व्यावहारिक नहीं है। इसको गौण फल इसलिए कहा गया है क्योंकि बारह राशियों का फल संसार के सभी लोगों का समान नहीं हो सकता, इस कारण विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि जन्म कालीन ग्रह स्थिति से जन्म समय में जिस-जिस राशि में सात ग्रह स्थित हों व लग्न जिस राशि में स्थित हो, इन आठ स्थानों में गोचर का फल यदि किया जाये तो यह विचार विश्वसनीय होगा। इसी विचार विधि को अष्टक-वर्ग विधि कहते हैं। उत्तरखण्ड में अष्टक वर्ग पर अध्याय में गुरु पाराशर और उनके परम प्रिय शिष्य मैत्रेय के बीच संवाद दिया गया है - कलौ पाप रतानां च, मन्दा बुद्धिर्ययोनणाम। अतोअल्प बुद्धिगम्यं यत, शास्त्र मेत इव दस्थ में।। तत्रत्काला ग्रहस्थित्या, मानवाना परि स्फुटम। सुख दुःख परिज्ञान मायुषो निर्णय तथा।। अर्थात मैत्रेय अपने गुरु पाराशर से निवेदन करते हैं
कि कलियुग में पाप कर्म में व्यस्त मानव की बुद्धि मंद हो जाती है। अतः मुझे बताएँ जिससे मनुष्यों को उस ग्रह स्थिति से उस समय के सुख-दुख, लाभ-हानि, आयु का निर्णय हो सके। प्रत्युत्तर में महर्षि पाराशर ने अष्टक वर्ग विधि की व्याख्या की। वास्तव में अष्टक वर्ग एक ऐसी तकनीक है जो किसी भी पारंगत ज्योतिषी के लिए अचूक विधि है, जो वृहत्पराशर होरा-शास्त्र के किसी भी पूर्व अध्याय में नहीं दी गयी है। लग्न व चंद्रमा दोनों से ग्रहों के प्रभाव का अनुमान लगाना कठिन कार्य है। हमारे विद्वान् महर्षियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान को स्थानान्तरित किया व इस कार्य को बड़ी सुगमता व सरलता से किया और इस विद्या को अष्टक वर्ग नाम दिया। यह विधि इतनी मौलिक है कि इसके जैसी विधि विश्व भर में कहीं नहीं, क्योंकि इसके द्वारा पल भर में त्वरित सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है।
अष्टक वर्ग विधि के अनुसार चार प्रकार से फलित विधि बतलाई गयी है -
1. मनुष्य के आयु साधन की विधि,
2. भिन्न-भिन्न वर्गों में रेखाओं द्वारा अनेक प्रकार के फल बताने की विधि।
3. त्रिकोण एवं एकाधिपत्य शोधनादि के पश्चात फलाफल जानने की विधि, तथा
4. अष्टक वर्ग की रेखाओं द्वारा गोचर फल कहने की विधि।
अन्य विद्वानों के अनुसार -
1. स्थिर विश्लेषण - जातक के जीवन में बार-बार होने वाली घटनाओं के स्वरुप को बताता है, इसके अन्तर्गत विभिन्न भावों में पड़े बिन्दुओं की संख्या का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
2. दशा विश्लेषण - अष्टक वर्ग एक विशेष विधि से दशा पर प्रकाश डालता है। स्थिर विश्लेषण से घटनाओं का होना व दशा विश्लेषण से समय विशेष को निकाला जाता है।
3. गोचर विश्लेषण - पारम्परिक रूप से अष्टक वर्ग का उपयोग गोचर विश्लेषण से किया जाता है। सर्वप्रथम स्वयं भगवान् शिव ने यामल में अष्टक वर्ग के विषय में बतलाया था, उसके बाद पाराशर, मणित्थ, वादरायण, यवनेश्वर आदि ने अनुकरण किया। कुंडली में प्रत्येक ग्रह एवं लग्न का, सूर्य कुंडली में (सूर्य अष्टक वर्ग कहते हैं) अपने-अपने स्थान में बल होता है।
इसी क्रमानुसार चन्द्र अष्टक वर्ग, मंगल अष्टक वर्ग, सभी सात ग्रहों व एक लग्न की कुंडली तैयार होती है। लग्न कुंडली को लग्न अष्टक वर्ग से सम्बोध् िात किया जाता है। प्रत्येक ग्रह अपने-अपने स्थान से जिन स्थानों में बल प्रदान करता है, इसको बिंदु या रेखा द्वारा संकेत किया जाता है। बिंदु या रेखा में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार प्रत्येक अष्टक वर्ग में उस ग्रह विशेष का बल स्पष्ट हो जाता है। सर्वाष्टक वर्ग - कुल 337 सर्वाष्टक बिन्दुओं को 12(बारह) से भाग देने पर औसत लगभग 28 (अट्ठाईस) आता है। अतः 28 वह औसत अंक है, जिससे तुलना करने पर किसी भाव में बिन्दुओं का कम या अधिक होना पाया जाता है।
सामान्य सिद्धांत -
1. कोई भी राशि या भाव जहां 28 से अधिक बिंदु हों - शुभ फल देता है। जितने अधिक बिंदु होंगे, उतना अच्छा फल देगा। व्यवहार में 25 से 30 के बीच बिन्दुओं को सामान्य कहा गया है और 30 से ऊपर बिंदु होने से विशेष शुभ फल होंगे।
2. ग्रह चाहे कुंडली में उच्च क्षेत्री ही क्यों न हों, पर अष्टक वर्ग में सर्वाष्टक में बिंदु कम होने पर फल न्यून ही होगा।
3. 6-8-12 भाव में भी ग्रह शुभ फल दे सकते हैं, यदि वहां बिंदु अधिक हों किन्तु कुछ विद्वानों का मत अलग भी है।
4. सूत्र - यदि नवें, दसवें, ग्यारहवें और लग्न में इन सभी स्थानों पर 30 से ज्यादा बिंदु हों तो जातक का जीवन समृद्धि कारक रहेगा। इसके विपरीत यदि इन भावों में 25 से कम बिंदु हों तो रोग और मजबूर जीवन जीना होगा।
5. यदि ग्यारहवें भाव में दसवें से ज्यादा बिंदु हों और ग्यारहवें में बारहवें से ज्यादा, साथ ही लग्न में बारहवें से ज्यादा बिंदु हों तो जातक सुख समृद्धि का जीवन भोगेगा।
6. यदि लग्न, नवम, दशम और एकादश स्थानों में मात्र 21 या 22 या इससे कम बिंदु हों और त्रिकोण स्थानों पर अशुभ ग्रह बैठे हों तो जातक भिखारी का जीवन जीता है।
7. यदि चन्द्रमा सूर्य के निकट हो, पक्षबल रहित हो, चन्द्र राशि के स्वामी के पास कम बिंदु हों, जैसे 22 और शनि देखता हो तो जातक पर दुष्टात्माओं का प्रभाव रहेगा। यदि राहु भी चंद्रमा पर प्रभाव डाल रहा हो तो इसमें कोई दो राय नहीं है।
8. जब-जब कोई अशुभ ग्रह ऐसे भाव पर गोचर करेगा, जिसमें 21 से कम बिंदु हों तो उस भाव से सम्बन्धित फलों की हानि होगी।
9. इसके विपरीत जब कोई ग्रह ऐसे घर से विचरण करता है जहां 30 से अधिक बिंदु हों तो उस भाव से सम्बन्धित शुभ फल मिलेंगे, जो उस ग्रह के कारकत्व और सम्बन्धित कुण्डली में उसे प्राप्त भाव विशेष के स्वामित्व के रूप में मिलेंगे।
10. ग्रह जिन राशियों के स्वामी होते हैं और जिन राशियों भावों में वे स्थित होते हैं, उन स्थानों से सम्बन्धित अच्छे फल वे अपनी दशा-अन्तर्दशा में देंगे। सूक्ष्मतर विश्लेषण के लिए दशा-स्वामी के भिन्नाष्टक वर्ग का अध्ययन करना चाहिए। मात्र सर्वाष्टक बिंदु देखकर ही कुण्डली का फल नहीं कहना चाहिए। कुण्डली में राजयोग, धनयोग या दूसरे योग होने भी जरुरी हैं। अष्टक वर्ग उन्हीं को सुदृढ़ करेगा जो योग कुण्डली में उपस्थित हैं। अष्टक वर्ग द्वारा ऐसे योगों की वास्तविक शक्ति का मूल्यांकन भी किया जाता है।