कीर्तिभवति दानेन तथा आरोग्यम हिंसया त्रिजशुश्रुषया राज्यं द्विजत्वं चाऽपि पुष्कलम। पानीमस्य प्रदानेन कीर्तिर्भवति शाश्वती अन्नस्य तु प्रदानेन तृप्तयन्ते कामभोगतः।। दान से यश, अहिंसा से आरोग्य तथा ब्राह्मणों की सेवा से राज्य तथा अतिशय ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। जलदान करने से मनुष्य को अक्षय कीर्ति प्राप्त होती है। अन्नदान करने से मनुष्य को काम और भोग से पूर्ण तृप्ति मिलती है। दानी व्यक्ति को जीवन में अर्थ, काम एवं मोक्ष सभी कुछ प्राप्त होता है। कलयुग में कैसे भी दिया गया दान मोक्षकारक होता है। तुलसी दासजी ने कहा है- प्रगट चार पद धर्म कहि कलिमहि एक प्रधान येन केन विधि दिन्है दान काही कल्याण। दान की महिमा का अन्त नहीं संसार से कर्ण जैसा उदाहरण दानी के रूप में कोई नहीं। दान के विषय में चर्चा करने से पूर्व एक बात स्पष्ट करना चाहते है। कमाएं नीति से, खर्च करें रीति से, दान करें प्रीति से। ‘‘दान मगर कल्याण’’ यह वाक्य सामान्यतः हमें सुनने को मिल जाता है, किन्तु सामान्य व्यक्ति के मन में अनेकों प्रश्न उठ खड़े होते हैं-
1. दान क्या है ? 2. दान क्यों करें ? 3. दान का महत्व क्या है ? 4. दान कैसे करें ? 5. दान किसको करें ? 6. दान का फल क्या होता है ? परमात्मा ने प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए, परिवार का पालन पोषण करने के लिए जीविका प्रदान की है लेकिन संसार में ऐसे प्राणियों की भी कमी नहीं है जो अत्यन्त निर्धन हैं, लाचार हैं, असहाय हैं, अपंग हैं तथा अशक्त हैं। उन प्राणियों के जीवन की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है क्योंकि परम पिता परमेश्वर ने हमें इस योग्य बनाया है कि हम अपने परिवार के पालन पोषण के साथ-साथ, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद भी, अन्य मजबूर तथा अशक्त लोगों की मदद कर सकें। मनुष्य के अतिरिक्त जीव-जन्तु जो स्वयं अपने भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं, उनकी जिम्मेदारी भी भगवान ने मानव को दी है। इसलिए मानव मात्र का परम कर्तव्य है कि वह अपने परिवार के अतिरिक्त जीव-जंतुओं आदि के लिए भी भोजन का प्रबन्ध करे युग के अनुसार दान देने के तरीकों में भी परिवर्तन आया है जैसे-
1. सतयुग में दान- आदर के साथ श्रद्धापूर्वक किसी के घर जाकर दिया जाता था। यह उत्तम दान कहलाता है।
2. त्रेता युग में दान- इस युग में पात्र को अपने घर बुलाकर सम्मान पूर्वक दान दिया जाता था।
3. द्वापर युग में- याचना करने पर अर्थात मांगने के बाद दान दिया जाता था।
4. कलयुग में दान- तहलकर अर्थात काम लेने के बाद दान दिया जाता है जो लगभग निष्फल होता है । अतः हर युग में दान का महत्व रहा है।
अलग-अलग ढंग से दान किया जाता रहा है परन्तु जब हमको ज्ञान हो चुका है तो क्यों न उत्तम प्रकार का दान आदर सहित दरिद्र के घर जाकर सम्मान पूर्वक दिया जाये, जिसका पूर्ण फल प्राप्त होता है। परमात्मा भी प्रसन्न होंगे तथा आपको भी खुशी मिलेगी।
दान क्यों करें ?
- लगभग सभी धर्मों के अनुसार हमें अपनी आय का कुछ भाग अवश्य ही दान करना चाहिए। ऐसा सभी धर्म ग्रन्थों में लिखा हुआ है तथा हम अपने पूर्वजों तथा बुजुर्गों से सुनते आए हैं कि हमें अपनी कमाई में से कुछ न कुछ भाग अवश्य ही दान करना चाहिए। भोजन बनाने के बाद भगवान को भोग लगाए बिना ग्रहण करना पाप समान माना जाता है। अतः भगवान को भोग लगाने के बाद आश्रित जीव-जंतुओं का भाग निकालना चाहिए। इस क्रिया को हम सभी के पूर्वज (दादी, नानी आदि) करते चले आए हैं। किसी भी त्योहार, तिथि विशेष (अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी आदि) पर तो ब्राह्मण, पंडित, पुजारी आदि को भोजन कराकर दक्षिणा देना हमारा परम कर्तव्य माना जाता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भी इस प्रकार से किया गया दान आवश्यक तथा उत्तम होता है। इस प्रथा को हम अपने आस पास सभी स्थानों पर देखते चले आए हैं। दान किसी पर अहसान करके नहीं करना चाहिए क्योंकि यह तो हमारी स्वेच्छा तथा श्रद्धा पर निर्भर होता है तथा दान देते समय अपने दुखों, कष्टों, दारिद्र््य आदि को कम किया जाना ही जातक का उद्देश्य होता है। अनिष्ट ग्रहों की शांति तथा विभिन्न प्रकार के कष्ट निवारण के लिए भी दान किया जाता है।
अपनी आय का कुछ भाग दान करने से आत्म शुद्धि तथा धन की वृद्धि अवश्य ही होती है। यह परम सत्य है कि दान अपने स्वयं के कल्याण के लिए ही किया जाता है। दान से दरिद्रता दूर होती है, यहाँ तक कि अगला जन्म तक सुधर जाता है। दान देने से कभी भी कमी नहीं आती है क्योंकि किसी भी प्रकार से किया गया दान कभी भी खाली नहीं जाता है अपितु अगले जन्म तक उसका फल-प्रतिफल प्राप्त होता है। दान पुण्य कर्मों के एकत्रीकरण का उपाय भी है तथा अपने द्वारा किए गए अशुभ कर्मों का पाश्चाताप भी है। अशुभ कर्मों के निवारण के अनेकों सहज व सटीक उपाय हैं परन्तु उन सभी में सबसे महत्वपूर्ण उपाय दान है। अतः दान जब भी किया जाये सबको दिखाकर, प्रचार प्रसार करके कभी नहीं करना चाहिए, इस प्रकार से किया गया दान व्यर्थ हो जाता है क्योंकि सभी जानते हैं कि दान इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि एक हाथ से दान किया जाये तो दूसरे हाथ को पता भी न चले। इसीलिए हमारे समाज ने गुप्त दान को सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया है। इस सम्बन्ध में एक छोटी सी कथा प्रचलित है- सीताराम नामक व्यक्ति मृत्योपरांत जब यमराज के दरबार मे पहुँचा तो यमराज ने फैसला सुनाते हुये कहा कि आप नर्क में जाइए तो सीताराम अड़ गया कि मैं नर्क में नहीं जाऊँगा।
मैंने तो पृथ्वी पर रहकर अनेकों धार्मिक कार्य किए हैं, असीमित दान किया है, अनेकों मंदिर, धर्मशालाएँ, विद्यालय आदि बनवाए हैं, अनेकों यज्ञ आदि किए हैं, निर्धनों को कम्बल बांटे हैं तथा अनेकों बार लंगर आदि की व्यवस्था की है तब फिर मुझे नर्क में क्यों भेजा जा रहा है। यमराज ने हँसकर कहा कि तुमने ठीक ही कहा है कि तुमने अनेकों धार्मिक तथा कल्याणकारी कार्य किए हैं, परन्तु तुमने वे सभी कार्य अपना नाम कमाने अर्थात अपनी प्रसिद्धि के लिए किए हैं। सीताराम तुमने ध्यान नहीं दिया कि तुमने स्थान-स्थान पर अपना नाम लिखवाया है अर्थात तुम्हारे द्वारा किया गया प्रत्येक दान स्वार्थ से परिपूर्ण था तथा स्वार्थ पूर्वक किया गया दान दान नहीं कहलाता है। अतः तुम्हें नर्क भोगना ही पड़ेगा। इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि दान हमेशा गुप्त रूप से करना चाहिए, दान के बारे में किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए तभी हम दान के उचित फल के भागीदार होंगे। गीता में भी कहा गया है कि कर्म करके फल की इच्छा भगवान के ऊपर छोड़ देनी चाहिए। कहा भी है- दान दीन को दीजिये, जासे मिटे दरिद्र की पीर। औषधि वाको दीजिये, जासे होवे निरोगी शरीर ।।
दान किसको दें ?
- यह भी एक विशिष्ट प्रश्न है। दान देने के मुख्यतः दो नियम हैं जिनका हमें दान देते समय ध्यान रखना चाहिए - प्रथम - श्रद्धा तथा द्वितीय - पात्रता। श्रद्धा से तात्पर्य है कि हमारा कितना मन है अर्थात हमारी कितनी क्षमता है। क्षमता से कम या अधिक दिया गया दान दान नहीं अपितु पाप कहलाता है। इसको हम एक उदाहरण से भली भाँति समझ सकते हैं, यदि किसी जातक की क्षमता पचास रूपये दान करने की है तो उसे पचास रूपये ही दान करने चाहिए। पचास के स्थान पर दस रूपये अथवा सौ रूपये दान करना दान नहीं अपितु पाप है। दान कार्य शुद्ध तथा प्रसन्न मन से किया जाना चाहिए। बिना श्रद्धा के मुसीबत अथवा बोझ समझ कर दान कभी भी नहीं करना चाहिए, इससे तो अच्छा है कि दान कार्य किया ही न जाये। किसी को अहसान जताकर कभी भी दान नहीं देना चाहिए। शुद्ध हृदय से दान देने से अपने हृदय को भी शांति मिलती है तथा दान लेने वाला भी खुश होकर मन से दुआ देता है, यह जरूरी नहीं कि उस दुआ की शब्दों के द्वारा ही अभिव्यक्ति हो। दान का दूसरा नियम पात्रता है अर्थात हम दान किसको दे रहे हैं वह दान की हुई वस्तु का उपभोग कर पाएगा या नहीं।
इस तथ्य को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं कि किसी देहात में बान से बुनी चारपाई पर सोने वाले व्यक्ति को शहर में डनलप के गद्दे पर यदि सोने के लिए कहा जाये तो उसे सारी रात नींद नहीं आएगी करवटें ही बदलता रहेगा। इसी प्रकार गरीब भिक्षुक को जो फटे-पुराने वस्त्रों में रहता है यदि नया वस्त्र पहनने को दिया जाये तो वह वस्त्र उसको काटेगा, वह उस वस्त्र को पहन नहीं पाएगा या तो वह उसे बेच देगा या फेंक देगा, उसे तो फटे पुराने घिसे हुये ही वस्त्र पसन्द आएंगे। भरे पेट वाले को भोजन खिलाने से उसके मन से कोई दुआ नहीं निकलती है अपितु यदि भूखे पेट वाले दरिद्र व्यक्ति को भोजन खिलाया जाये तो वह पूर्णतः तृप्त होकर मन से दुआएँ ही देगा। दान भोजन का ही नहीं किसी भी वस्तु का हो सकता है। रोगी के लिए औषधि, अशिक्षित के लिए शिक्षा, भूखे को भोजन, निर्वस्त्र को वस्त्र कहने का तात्पर्य यह है कि जिस के पास जिस वस्तु की कमी है और वह उसको प्राप्त करने में असमर्थ है तो अमुक जातक को अमुक वस्तु की व्यवस्था करा देना भी दान ही श्रेणी में आता है। अतः दान देते समय विशेष ध्यान देना चाहिए कि दान उचित पात्र को ही दिया जाये।
विभिन्न ग्रहों का दान किसको कब दें ?
- नव ग्रहों की शांति के लिए ज्योतिष शास्त्र में अनेक उपाय सुझाए गए हैं जैसे- मंत्र, जाप, हवन, दान, औषधि स्नान, तीर्थ, व्रत, यंत्र-मंत्र, नग आदि। इनमें से दान सबसे सरलतम उपाय है जो जातक को अपनी कुण्डली विश्लेषण के उपरान्त अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए समय-समय पर करते रहना चाहिए। पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार मानव को सुख दुख प्राप्त होते हैं। मानव अनेकों प्रकार की समस्याओं का सामना करता रहता है। पूर्णतः कष्ट निवारण का तो कोई भी सामथ्र्य नहीं रखता है किन्तु उपाय दान आदि से कष्ट कम अवश्य हो जाता है। नवग्रहों से सम्बन्धित दान की जाने वाली वस्तुओं के विषय में यों अधिकांश लोग जानते हैं फिर भी जन साधारण की जानकारी के लिए यह जानकारी उपयोगी एवं आवश्यक सिद्ध हो सकती है। दान का फल किसी वस्तु का दान करने से क्या फल मिलता है, इसको हम निम्न तालिका से जान सकते हैं। जिस वस्तु या खाद्य पदार्थ का दान किया जाता है, उस दिन उसका भोग-उपभोग नहीं करना चाहिए। वस्तु या पदार्थ त्याग के दिन इच्छानुसार बढ़ाए जा सकते हैं, जैसे- तीन दिन, एक सप्ताह, एक माह अथवा चालीस दिन या चातुर्मास।
यदि आपका धन कहीं अटका हुआ है तो-
1. पूर्णिमा के दिन चन्द्र ग्रह के निमित्त दान करें।
2. सोमवार के दिन सफेद वस्त्रों का दान करें।
3. मंगलवार के दिन चैराहे पर सरसों का तेल डालें।
4. बुधवार के दिन गणेश जी को लड्डू का भोग लगाकर बाल गोपालों को बांटे/दान करें।
5. शनिवार के दिन अदरक अथवा सरसों के तेल का दान करें।
दान के नियम-
1. दान उचित पात्र को ही दें।
2. दान श्रद्धापूर्वक दें।
3. दान शुद्ध हृदय से दें।
4. दान किसी भी प्रकार का प्रचार करके न करें।
5. दान अपनी कुण्डली का विश्लेषण कराके उचित पात्र को दें।
6. दान दिन/ वार के अनुसार करें।
7. दान शत्रु ग्रहों का न करें।
8. दान उच्च के ग्रहों का न करें।
9. दान नीच के ग्रहों का अवश्य ही करें।
10. दान कुण्डली में स्थित षष्टम, अष्टम तथा द्वादश भावों के स्वामियों का हमेशा करें।
11. दान सवेरे के समय बिना मुंह जूठा किए अर्थात् बिना खाये-पिये ही करें।
12. दान घर से बाहर निकलते समय ही देना चाहिए।
13. दान अनजान/अजनबी व्यक्ति को ही करना चाहिए।
14. दान किसी दरिद्र व जरूरतमन्द को ही करें।
15. दान ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जो दोबारा न दिखे या न मिले।
16. दान की गई वस्तु को उस दिन ग्रहण न करें।
17. दान अपनी क्षमता के अनुसार ही करें।
18. दान करके कभी भी न जताएं।
19. दान इस प्रकार से करें कि एक हाथ से करें तो दूसरे हाथ को पता भी न चले।
20. दान करके भूल जाएं उसे कभी याद न करें।
21. दान का हिसाब न लगाएं।