जन्मपत्रिका में शनि भाव विशेष में स्थित होकर हमें हमारे कर्मों के हिसाब से फल प्रदान करते हैं जैसे- यदि केंद्र में शनि देव विराजमान होते हैं तो हम अपने व्यक्तियों का पालन पूर्व जन्म में नहीं कर पाये उसकी सजा रूप में इस जन्म में ज्यादा जिम्मेदारियों का बोझ उठाना पड़ेगा, यह निश्चित है। भाग्य भाव पर शनि स्थित होने से किसी भी प्रकार की योग साधना जातक अवश्य करेगा। उसमें एक अनोखी शक्ति देखने को मिलेगी। शनि भगवान सूर्य तथा छाया सुवर्णा के पुत्र हैं। ये पापी ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है वह इनकी पत्नी के श्राप के कारण है। ब्रह्मपुराण में इनकी कथा इस प्रकार आयी है- बचपन से शनि देव भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे। वे कृष्ण की भक्ति में लीन रहा करते थे। वयस्क होने पर इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से हुआ। उनकी पत्नी सती-साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात ऋतु स्नान करके पुत्र की इच्छा प्राप्ति से इनके पास पहुंची, पर शनिदेव श्री कृष्ण की भक्ति में इतने लीन थे कि बाहरी संसार की उन्हें सुध न रही, पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतु काल निष्फल हो गया इसलिए क्रोधित होकर उसने शनिदेव को श्राप दे दिया कि आज से तुम जिसको देख लोगे वह नष्ट हो जाएगा।
ध्यान टूटने पर उसने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को अपनी भूल का पश्चात्ताप हुआ, किंतु श्राप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी। तभी से शनि देवता सिर नीचा करके रहने लगे क्योंकि वो नहीं चाहते कि किसी का अनिष्ट हो। शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हंै। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। शनि देव न्यायाधीश हैं, दंडनायक हैं। प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार फल प्रदान करते हैं। विशेषकर जब शनि की ढैय्या या साढ़ेसाती आती है तो साधारणतया देखा जाता है कि शनि देव अपने अच्छे या बुरे फल पूर्णरूप से देते हैं। अतः शनिदेव की उपासना व मंत्र जाप करके उन्हें प्रसन्न करते रहने से क्षमा भी मिल जाती है और हमारे कर्मों में सुधार भी होता है। राजा और रंक बनाने का सामथ्र्य केवल शनि देव में ही है। ऐसे उदाहरण हमारे इतिहास में बहुत हैं। राजा विक्रमादित्य, राजा हरिश्चंद्र जैसे उदाहरण जिनसे हमें एक अच्छी सीख मिलती है। यह परम सत्य है कि शनि देव में मनुष्य को राजा से रंक बनाने का सामथ्र्य है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि जातक का शनि जन्मपत्रिका में कितना शुभ व बलवान है।
इसके साथ-साथ जातक के पूर्व जन्म का हिसाब शनि इस जन्म में लेता है। शनि लग्न से केंद्र में, स्वक्षेत्री, उच्च का, मूल त्रिकोण में हो तो ही अपनी दशा में उत्तम फलदायक होता है। यह शश योग का निर्माण करता है, उच्च पद प्रदान करता है। व्यक्ति समाज में सम्मानित व्यक्ति कहलाता है यहां तक कि राजनीति में उच्च पद प्रदान करवाता है। जन्मपत्रिका में यदि चंद्रमा से द्वितीय भाव में शनि से सुनफा योग का निर्माण हो तो ऐसा जातक बहुत लाभ प्राप्त करता है। शुभ कर्म करने वाला, उत्तम वाहन प्राप्त करने वाला और सम्मानित होता है। समाज में, कुल में प्रधानपद प्राप्त करता है और शनि चंद्रमा से बारहवें भाव में स्थित हो तो जातक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला, क्षमाशील, गुणवान होता है। होरा शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में शनि-चंद्र की युति पंचम, षष्ठ, दशम या एकादश भाव में हो तो इस योग में उत्पन्न जातक राज कुल में जन्म लेता है। शनि केंद्र व त्रिकोण का स्वामी होकर, केंद्र त्रिकोण में बैठे तो राज योगकारक होता है। शनि पर बुध-शुक्र का दृष्टि संबंध हो तो अति उत्तम फल प्राप्त होते हैं। उपरोक्त दिये गये योग तभी फलित होते हैं जब इनकी दशा-अंतर्दशा आये एवं व्यक्ति सद्कर्मों में हमेशा संलग्न रहे। शनि ग्रह पर जितना लिखा जाये कम है। इसका मूल मंत्र आमजन को हमेशा याद रखना चाहिए।
दंडनायक से क्षमा कैसे मांगें? यदि आप शनि ग्रह के कारण किसी भी तरह से परेशानी महसूस करते हैं तो निम्नलिखित अचूक एवं प्रयोगसिद्ध उपाय करें:
1. शनिवार को सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान के पश्चात् पीपल वृक्ष के नीचे जायें, जल चढ़ायंे, पीपल वृक्ष को छूकर अपने कर्मों की क्षमा मांगंे। किसी भी तरह के शनिकृत कष्ट से आप मुक्त होंगे।
2. शनिवार को संध्या के बाद भोजन सामग्री, काले चने आदि का अपने सामथ्र्यनुसार दान करें। ध्यान रहे जो भी भोजन पकायें उसमें सरसों के तेल का प्रयोग करें।
3. किसी एक शनिवार को 108 शनि यंत्र अभिमंत्रित करके प्रत्येक यंत्र पर काली हकीक माला से शनि मंत्र का जाप करें। प्रत्येक यंत्र पर एक माला जाप करें। जब सभी यंत्रों पर जाप हो जाये तो अपने सिर से 23 बार वार कर जल प्रवाह करें।
4. नौकरी, व्यापार, धन संबंधी समस्या दूर करने हेतु शनिवार को चार बत्ती का दीपक, पीपल वृक्ष के नीचे जलायें एवं 3, 5 या 9 परिक्रमा करें।
5. मकान बनाने वाले मजदूरों को प्रत्येक शनिवार भोजन करवायें।
6. शनिवार से आरंभ कर 40 दिन लगातार पीपल वृक्ष पर जल चढ़ायें। रविवार छोड़ दें। यह कार्य सूर्योदय से पूर्व करें, उत्तम परिणाम मिलेंगे। मन ही मन शनि मंत्र का जाप करें।
7. सार्वजनिक स्थान पर पीपल का पौधा अमावस्या को लगायें।
कृष्ण भक्त शनिदेव इस कथा से लगभग, सभी विद्वान भिज्ञ हैं कि शनि देव की दृष्टि का तिरछापन तृतीय दृष्टि नीच क्यों मानी जाती है। एक बार शनि देव भगवान कृष्ण की आराधना में मग्न थे। रात्रि पहर में उनकी पत्नी अपने पति का इंतजार कर रही थी। जब मध्य पहर बीतने को हुआ तो उनकी पत्नी उनके पास आकर शनि देव को बुलाने लगी। शनि देव अपनी आराधना में विध्न डालने पर बहुत क्रोधित हुए क्योंकि वो भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे। शनिदेव के क्रोध से उनकी पत्नी बहुत आहत हुई और उन्होंने अपने पति को श्राप दे डाला कि आप जिसको भी तिरछी नजर से देखेंगे वो नष्ट हो जायेगा। बाद में उन्हें पश्चात्ताप भी हुआ किंतु तीर कमान से निकल चुका था। इस घटना को बताने के दो कारण हैं। पहला शनि देव की तृतीय दृष्टि जन्मपत्रिका में जहां भी हो उस भाव का, उस भाव के स्वामी का, उस भाव के सुख का नुकसान होता है।
दूसरा कारण जो भी भगवान कृष्ण की भक्ति करता है, शुद्ध हृदय से नाम जपता है शनिदेव उनका कभी भी कोई नुकसान नहीं होने देते, कष्ट नहीं देते चाहे शनि की ढैय्या हो या साढ़ेसाती। लगभग 70 प्रतिशत जातक शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या से ग्रस्त होते हैं। भारत की 65 से 70 प्रतिशत जनता ज्योतिष पर विश्वास करती है। अतः शनि की ढैय्या, शनि की साढ़ेसाती, शनि महादशा एवं अंतर्दशा में होने वाले कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान कृष्ण की अनन्य भक्ति करें। शनि देव कभी किसी को कष्ट नहीं देते वो सिर्फ हमारे कार्यों का हिसाब करते हैं उन्हीं के अनुसार हमें सुख या दुःख प्राप्त होते हैं। यह हमें शनिदेव की दशा, ढैय्या या साढ़ेसाती में प्राप्त होते हैं क्योंकि शनि देव तो न्यायाधीश हंै अतः कभी भी किसी को शनिदेव के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सिर्फ अपने कर्मों का फल शांत मन से, खुशी से स्वीकारना चाहिए। अपने अच्छे-बुरे कर्मों का भोग प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए।