वैवाहिक सुख के लिए कुंडली मिलान - कितना आवश्यक? हिंदू शास्त्रानुसार विवाह एक धार्मिक संबंध है। अन्य जाति वालों के अनुसार एक सामान्य संबंध है और वर्तमान में युवा पीढ़ी की धारणा और भी विपरीत है। यह संबंध बस मन का बंधन रह गया है। समाज परिवार तथा धर्म को ताक पर रखकर हर दिन विवाह होते हैं, जिसका परिणाम आज की युवा पीढ़ी भुगत भी रही है। जब तक वर वधु का मानसिक तत्व, शारीरिक तत्व, बुद्धि भेद, धार्मिक भेद आदि का परस्पर मेल नहीं हो जाता तब तक विवाह करना उचित नहीं है क्योंकि सिर्फ मन का बंधन मान लिया जाए तो मन के विषय में विद्वानों ने कहा है कि ‘‘मन के मते ना चलिए, मन में भरा विकार’’ अतः जीवन में कोई भी निर्णय लें श्रेष्ठ बुद्धि से लें जो हमें सन्मार्ग ले जाए। विवाह पूरे जीवन भर के साथ के लिए किया जाता है। अतः यह निर्णय ऋषि प्रणीत ज्योतिष शास्त्र के अनुकूल पूर्ण विचार कर करना चाहिए। भिन्न-भिन्न राशियों के भिन्न-भिन्न तत्व होते हैं अतः यदि अग्नि तत्व वाले का विवाह जल तत्व वाले से कर दिया जाए तो परिणाम यह होगा की वे दोनों एक दूसरे के आजन्म शत्रु बने रहेंगे। पाराशर, वशिष्ठ, जैमिनी, अत्रि आदि प्राचीन ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से, अनुभवों से तथा अनेक प्रकार से जांच विचारकर निःस्वार्थ हो मनुष्य के हितार्थ बहुत सी रीतियां बना रखी हैं। उनका पालन कर हम युवा पीढ़ी को वैवाहिक सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। बहुत लोग विवाद करते हैं कि कुंडली मिलान से बहुत सी असुविधाएं आती हैं किंतु सामान्य जन को यह बात समझ लेनी चाहिए कि हम अपनी पसंद की खरीददारी के लिए एक दुकान से दूसरी दुकान भटकते हैं और कई बार समय व धन दोनों का व्यय करते हैं। फिर विवाह जैसे बंधन जिसको जीवनभर निभाना है थोड़ा कष्ट उठाने में दुखी नहीं होना चाहिए। वर कन्या की कुंडली मिलान में ध्यान रखने योग्य बातें: 1. वर के सप्तम स्थान का स्वामी जिस राशि में हो, यदि वह राशि कन्या की भी हो तो विवाह उत्तम होता है। 2. यदि कन्या की राशि वर के सप्तमेश का उच्च स्थान हो तो विवाह उत्तम होता है। 3. वर के सप्तमेश का नीच स्थान यदि कन्या की राशि हो तो भी अच्छा होता है। 4. वर का शुक्र जिस राशि में हो वही राशि यदि कन्या की भी हो तो भी अच्छा रहता है। 5. वर की सप्तमस्थ राशि यदि कन्या की राशि हो तो वह विवाह अच्छा होता है। 6. वर का लग्नेश जिस राशि में हो वही राशि यदि कन्या की भी हो तो विवाह सुखदायी होता होता है। 7. वर के चंद्र लग्न से सप्तम स्थान में जो राशि पड़े वही राशि यदि कन्या का जन्म लग्न हो तो विवाह बहुत शुभ होता है। 8. वर की चंद्र राशि से सप्तम स्थान पर जिन-जिन ग्रहों की दृष्टि हो, वे ग्रह जिन-जिन राशियों में बैठे हों उन राशियों में से किसी राशि में यदि कन्या का जन्म हो तो वह विवाह भी उत्तम रहता है। उपरोक्त दो नियमों का विचार कन्या की कुंडली से भी होता है। यदि वर कन्या की कुंडली में उपर्युक्त आठ नियमों में से एक भी लागू हो तो विवाह शुभ होगा, एक से अधिक हों तो सोने में सुहागा। उत्तम रीति यह होगी कि पिता अपने पुत्र की कुंडली से देखा कि वर के लिए कौन कौन सी राशि या लग्न की कन्या शुभ होगी। ‘कलत्र’ राशि तीन होती है। पुरूष कुंडली का सप्तमेश जिस नवांश में हो उसके स्वामी की राशि या राशियों को कलत्र कहते हैं। सप्तमाधिपति जिस राशि में उच्च का होता है वह भी कलत्र राशि होती है। सप्तम भाव का नवांश भी कलत्र राशि होती है। ज्योतिष शास्त्र का मत है कि स्त्री की जन्म राशि पुरुष के उपर्युक्त कलत्र राशियों में से किसी राशि में होना चाहिए अथवा उनकी त्रिकोण् ास्थ जो राशि हो उनमें से किसी में स्त्री की जन्म राशि होना अच्छा होता है। यदि स्त्री की जन्म राशि उपर्युक्त राशियों में से किसी राशि में ना पड़ती हो तो उस स्त्री के संतान नहीं होती है। जातक परिजात के अनुसार उपर्युक्त कलत्र राशि के सिवा सप्तमेश जिस राशि में हो या उसकी त्रिकोण राशियों में से किसी में स्त्री का जन्म राशि होना शुभ बतलाया है। विवाह योग कब नहीं होता या विवाह सुख, इन दोनों योगों को भी कुंडली में विश्लेषण कर लेना चाहिए क्योंकि यदि यह योग हो तो विवाह को टालना ही उत्तम रहता है। 1. यदि सप्तमाधिपति शुभ युक्त न होकर षष्टम, अष्टम, द्वादश भावगत हो और नीच का या अस्त हो तो वैवाहिक सुख में कमी रहती है। 2. यदि षष्टेश, अष्टमेश अथवा द्व दशेष सप्तमगत हो और उसमें शुभ ग्रह की दृष्टि या योग न हो अथवा सप्तमाधिपति 6-8-12 का स्वामी हो तो स्त्री सुख में बाधा होती है। 3. यदि सप्तमेश द्वादशगत हो और लग्नेश तथा चंद्र सप्तमस्थ हों तो भी जातक का विवाह संभव नहीं होता है। 4. यदि शुक्र और चंद्रमा साथ होकर किसी भाव में बैठे हों और शनि और मंगल उनसे सप्तम भाव में हो तो भी जातक का विवाह नहीं होता है। 5. यदि लग्न, सप्तम तथा द्वादश में पाप ग्रह बैठे हों और पंचमस्थ चंद्रमा निर्बल हो तो उस जातक का विवाह नहीं होता है और यदि अन्य योग से विवाह भी हो जाए तो स्त्री बंध्या होगी। 6. अन्य मतानुसार द्वादश और सप्तम में दो-दो पाप ग्रह बैठे हों और पंचम में चंद्रमा हो तो जातक स्त्री-पुत्र विहीन होता है। 7. शनि तथा चंद्रमा के सप्तमस्थ होने पर जातक का विवाह नहीं होता है और यदि होता भी है तो स्त्री बंध्या होती है। 8. सप्तम भाव में पाप ग्रह होने पर स्त्री बंध्या होती है। 9. शुक्र तथा बुध के सप्तम में रहने से जातक कलत्र-हीन होता है। यदि शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो अधिक आयु में विवाह होता है। 10. सूर्य स्पष्ट में चार राशि तेरह अंश और बीस कला (4/13/20) जोड़कर जो राशि आवे वह धूम होता है, यदि वही सप्तम स्थान का स्पष्ट हो तो ऐसे जातक का विवाह नहीं होता है। 11. यदि शुक्र तथा मंगल सप्तमस्थ हों तो जातक स्त्री रहित होता है। शुक्र और मंगल के नवम एवं पंचम भाव में रहने से भी वैसा फल मिलता है। 12. यदि शुक्र किसी पाप ग्रह के साथ होकर पंचम, नवम अथवा सप्तम भाव में बैठा हो तो जातक का विवाह नहीं होता है या स्त्री वियोग से पीड़ित रहता है। 13. यदि शुक्र, बुध व शनि सब के सब नीच या शत्रु नवांश में हों तो जातक स्त्री-पुत्र विहीन रहता है या दुखमय जीवन व्यतीत करता है। उपरोक्त योग होने पर भी यदि नवांश कुंडली में वैवाहिक सुख देने वाले ग्रह उत्तम स्थिति में हों तो विवाह सुख की संभावना होती है व पूर्ण वैवाहिक सुख भी प्राप्त होता है। क्योंकि वैवाहिक सुख के लिए नवांश कुंडली का अध्ययन आवश्यक है, साथ ही महादशा, अंतर्दशा आदि का भी प्रभाव पड़ता है। अतः वर कन्या का विवाह करते समय कुंडली का सूक्ष्म विश्लेषण किसी योग्य ज्योतिषाचार्य से अवश्य करवाएं ताकि वर-वधू का वैवाहिक जीवन सुखमय हो यदि कष्ट आये भी तो सहनीय हो।