ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती स्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै श्री दुर्गा देव्यै नमो नमः। भगवती दुर्गा देवी त्रिगुणात्मिका शक्ति स्वरूपा कहलाती हैं। वे ही महाकाली हैं, महालक्ष्मी हैं और महासरस्वती हैं। वे ही त्रैलोक्य मंगला हैं, तापत्रयहारिणी हैं। इन त्रिशक्ति देवी में सात्विकी एवं शुभ वर्ण वाली देवी का संबंध ब्रह्मा से है।
इसी प्रकार वैष्णवी शक्ति का संबंध भगवान विष्णु से है। रौद्री देवी कृष्ण वर्ण से युक्त एवं तमः संपन्न शिव जी की शक्ति है। जो व्यक्ति प्रसन्न चित्त होकर नवमी तिथि के दिन इनके नाम का स्मरण करता है अथवा सुनता है वह समस्त भयों से मुक्त हो जाता है।
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नवमी तिथि की महिमा के प्रसंग में दुर्गा देवी की उत्पत्ति की कथा जुड़ी हुई है। यदि स्वर्ग में सुख होता तो देवता गण जो राक्षसों के जुल्मों से तंग होकर, भयाक्रांत, कांपते हुये देवी की शरण में जाकर त्राहि माम् ! त्राहि माम् ! न चिल्लाते। वे बारंबार यह न कहते:-
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोऽस्तुते।।
समस्त अमंगलों का, दुर्भाग्यों का नाश कर, समस्त बंधनों को तोड़कर, काटकर, उनका नाशकर, समस्त कष्टों को दूर भगाकर, कल्याण-मंगल करने वाली दयामयी माता भगवती ही हैं जिनकी आर्तृभाव से प्रार्थना देव, दानव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि ही नहीं वरन महाशक्ति संपन्न त्रयदेव ब्रह्मा, विष्णु महेश भी करते हैं।
सनातन धर्मावलंबियों की तो भगवती माता दुर्गा आराध्या ही हैं। धर्मभूमि भारतवर्ष में भगवती दुर्गा भवानी की पूजा आराधना सदा से होती आई है जिसे सब भली भांति जानते ही हैं। धन-धान्य, यश, मान-सम्मान, आयु, पुत्र-पौत्र, दीर्घायु, रोग-निवृत्ति, शत्रु बाधा शमन, विवाह जैसे मांगलिक कार्य, सुख सौभाग्य की वृद्धि, तथा अन्यान्य प्रकार की मनोभिलाषा पूर्ति के निमित्त भक्त जातक श्रद्धा विश्वास एवम् पूर्ण भक्ति भावना के साथ माता दुर्गा की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु नवरात्रि में व्रत धारण करते हैं, मंत्र जाप करते हैं, स्तुति पाठ करते हैं, हवन करते हैं।
नवरात्रि काल में दुर्गा - सप्तशती का पाठ भक्तजन करते हैं। कन्या-पूजन, कन्या भोज का आयोजन, जैसे दान-पुण्य के कार्य भी दुर्गा माता की प्रसन्नता हेतु किये जाते हैं। नवरात्रि में प्रथम तीन दिन महाकाली की पूजा, मध्य के तीन दिन महालक्ष्मी की पूजा और अंतिम तीन दिन महासरस्वती की पूजा का विधान है। महाकाली की पूजा से तामसिक गुणों का नाश होता है।
महालक्ष्मी के पूजन से सात्विक गुणों की अभिवृद्धि होती है और महासरस्वती की पूजा से अज्ञानांधकार का अंत होता है और ज्ञान के प्रकाश का उदय होता है। दुर्गा माता के नवरूपों में नवरात्रि में पूजन . शैलगिरि हिमाचल सुता वृषवाहना शिवा की प्रथम दिन ‘‘शैलपुत्री’’ माता के रूप में भक्तगण दुर्गा पूजा कर अपने मनोरथ सिद्ध करते हैं।
सिद्धि व विजय प्रदायिनी अक्षमाला और कमंडल-धारिणी तपश्चारिणी दुर्गा माता की नवरात्रि के दूसरे दिन ‘‘ब्रह्मचारिणी’’ रूप में पूजन की जाती है। . चंद्र समान शीतलदायी माता ‘‘चंद्रघंटा’’ की तीसरे दिन नवरात्रि में पूजन करने से जातक का इहलोक व परलोक दोनों में कल्याण होता है।
रोग-शोक-नाशिनी, आयु-यश-बल प्रदायिनी और पिंड व ब्रह्मांड को उत्पन्न करने वाली माता ‘‘कूष्मांडा’’ की चैथे दिन दुर्गा-पूजा होती है। . सदा-सर्वदा शुभफलवर्षिणी माता ‘‘स्कन्दमाता’’ की पूजा नवरात्रि के पांचवें दिन करते हुये भक्त साधक दुर्गा माता को प्रसन्न करते हैं। . नवरात्रि के छठे दिन शुभ फलदायी, दानवविनाशिनी, कत्यायनसुता ‘‘कत्यायनी’’ देवी की पूजा का विशेष महत्व माना गया है।
गर्दभारूढ़ा, कृष्णवर्णा, कराली, भयंकरी, भयहारिणी, भक्त-वत्सला माता ‘‘ कालरात्रि’’ की पूजा नवरात्रि के सातवं दिन करने का विधान है। . तापत्रयहारिणी त्रैलोक्य मंगला, चैतन्यमयी, धनैश्वर्य-प्रदायिनी, अष्टवर्षीय देवी ‘‘महागौरी’’ की आठवें दिन नवरात्रि में पूजा का विधान है।
नवरात्रि के नवमें दिन ‘‘सिद्धि दात्री’’ के रूप में माता दुर्गा की पूजा की जाती है। भगवती सिद्धि दायी अष्ट सिद्धियां प्रदान करने वाली मानी गई हैं। नवरात्रियां और महत्व नवरात्रियां के धर्म-सम्मत विहित मास चार हैं जिनके शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिन शक्ति साधना के लिये नवरात्रि-पर्व के रूप में पहचाने जाते हैं। ये मास हैं- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ।
चैत्र मास की नवरात्रि को वासन्तेय-नवरात्र कहते हैं। आश्विन मास की नवरात्रि को शारदेय या शारदीय नवरात्र कहते हैं। आषाढ़ एवं माघ मास की नवरात्रियों में तंत्रोपासक गुप्त स्थानों में जाकर, गुप्त रूप में तांत्रिक साधनाओं के माध्यम से सिद्धि प्राप्ति के निमित्त शक्ति- आराधना करते हैं। इसलिये इन नवरात्रियों को गुप्त नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। इन चारों नवरात्रियों में आश्विन मासी शरतकालीन नवरात्रि सबसे बड़ी है।
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इसे वार्षिकी - नवरात्रि की संज्ञा प्राप्त है। इस नवरात्रि के अवसर पर श्री दुर्गा देवी की महापूजन के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। आश्विन मास की श्री दुर्गा नवमी के दूसरे दिन यानि दशहरे के दिन अपराजिता देवी पूजी जाती हैं। चैत्र और क्वार माह की नवरात्रि ऋ तु संध्या कहलाती हैं।
नवरात्रि काल में दुर्गा माता के कोमल प्राणों का प्रवाह भूलोक पर होता है। जैसे दिन और रात्रि के मिलन काल को संध्या कहते हैं, ऐसी संध्या वेला में की गई पूजा-अर्चना, स्तुति पाठ, मंत्र-जाप, प्रार्थना आरती वगैरह का पुण्य फल, किसी अन्य समय में की गई पूजा की तुलना में, अधिक और शीघ्र प्राप्त होता है। इसी वजह से ऋतु संध्याओं में अर्थात नवरात्रि काल में माता दुर्गा की उपासना, व्रत आदि करना श्रेयस्कर माना गया है।
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