मनुष्य के जीवनकाल में इस सुख के लिए अनेकानेक रीतियाँ देखने में आती हैं कोई मनुष्य राजा सम्मत बन सम्मान, ऐश्वर्य प्राप्त करता है, कितने ही लोग व्यापार आदि में प्रवीण होकर कई देशों का वाणिज्य सूत्र अपने हाथ में लेकर अगाध ध् ान प्राप्त करते हैं और लक्ष्मी जी की अपार कृपा प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार अनेक मनुष्य सरस्वती देवी की आराधना कर अनेक विद्याओं को प्राप्त कर इस संसार में कीर्ति और मान प्राप्त करते हैं। परन्तु यह भी देखने में आता है कि बहुत से मनुष्य राजवंश तथा धनवान घराने में जन्म लेकर भी पूर्व जन्म कर्मानुसार भिक्षाटन द्वारा जीविका निर्वाह करते हैं।
पुनः, ठीक इसके विपरीत यह देखा जाता है कि एक दरिद्र बालक जिसको एक रोटी के टुकड़े का भी ठिकाना न था एकाएक राज सिंहासन पर बैठकर लाखों मनुष्यों पर शासन करता है. आज के सन्दर्भ में हम यूं कह सकते हैं- हृह्मक्त०द्रप्रध्न्नट्ट ट्ठक्त०ड्ड बनकर सबके दिलों पर छा जाना, मान-सम्मान धन सभी कुछ हासिल हो जाना। इन्हीं सब कारणों से मनुष्य मात्र की यह एक लालसा रहती है कि अपना व अपने संतान का भविष्य जाने। इसको जानने की अनेक रीतियाँ पूर्वजों ने ज्योतिष शास्त्र में लिख दी हैं, परन्तु यह सब स्वीकृत बात है कि द्रव्योपार्जन की रीति समयानुसार हुआ करती है और समय के हेर-फेर से यह बदलती रहती है। प्राचीन काल में धन प्राप्ति के विषय में जो बातें लिखी गई हैं उससे भिन्न आजकल की जीविकोपार्जन है, इसलिए गंभीर अनुमान की आवश्यकता है। निम्न भावों से द्रव्य आदि का विचार किया जाता है -
1. लग्न से मनुष्य के सौभाग्य का विचार होता हैलग्न की ही सबलता अथवा निर्बलता पर भाग्य सुख लक्ष्मी तथा राज योग अंजली गिरधर ।प्थ्।ै त्मेमंतबी श्रवनतदंस व ि।ेजतवसवहल स श्रंदण्.डंतण् 2014 47 विचार गोष्ठी ं समीक्षा की उन्नति अथवा अवनति निर्भर करती है. लग्नेश का धन लाभ संबंधी भावों से सम्बन्ध रहने पर भाग्य का सूर्य सर्वदा चमकता रहता है।
2. द्वितीय भाव का ही नाम धन भाव है, इससे धन, सुख और भोजन का विचार होता है।
3. चतुर्थ भाव से सुख, पैतृक धन, भूमि और वाहनादि का विचार किया जाता है।
4. पंचम भाव से राजानुग्रह और अकस्मात धन जैसे लाॅटरी इत्यादि से धन प्राप्त होता है।
5. सप्तम भाव से वाणिज्य, यात्रा इत्यादि का विचार किया जाता है।
6. नवम भाव से भाग्य के प्रभाव का विचार किया जाता है।
7. दशम भाव से सम्मान, रोजगार इत्यादि का विचार किया जाता है, इसको ज्योतिष शास्त्र में कर्म स्थान भी कहते हैं। कर्म भोग का ज्ञान इसी भाव से अनुभव होता है।
8. एकादश स्थान को लाभ स्थान कहते हैं, इस भाव से धन संग्रह इत्यादि का अनुमान किया जाता है।
9. शुक्र से सांसारिक सुखों की प्रबलता और गुरु से द्रव्य संचय इत्यादि का विचार होता है। यदि उपर्युक्त भावों का, उसके अधिपतियों का विशेषतः शुक्र और गुरु पर ध्यान दिया जाए तो मनुष्य जीवन के धन संबंधी कुल बातों का ज्ञान पूर्ण रीति से हो सकता है। धन स्थान से धन का परिमाण समझा जाता है।
एकादश स्थान से धन लाभ विधि का विचार किया जाता है। यदि लाभाधिपति दुर्बल और दुःस्थानगत हो अर्थात किसी भी प्रकार से दोषयुक्त हो तो धन स्थान का फल शुभ होने पर भी लाभ कष्टसाध्य होता है। अभिप्रायः यह है कि द्वितीय स्थान और लाभ स्थान में से यदि द्वितीय स्थान अच्छा हो और लाभ स्थान दुर्बल हो तो ऐसे स्थान में धन का संग्रह होगा, परन्तु धन प्राप्त करने में अनेकानेक कष्ट होंगे. इसी प्रकार यदि एकादश स्थान उत्तम तथा द्वितीय स्थान निर्बल हो तो धन के लाभ में सुगमता होगी किन्तु धन संग्रह नहीं होगा। यदि धन व लाभ दोनों अच्छे हों तो लाभ भी सुगमता से होगा तथा धन संग्रह भी होता जाएगा। परन्तु इस स्थान पर यह देखना होगा कि लाभ की मात्रा क्या होगी ? इसका अनुमान ग्रहों के उच्च, स्वगृही, मूल-त्रिकोण आदि के अनुसार किया जाएगा, साथ ही शुभ दृष्टि और सबलता और निर्बलता इत्यादि से किया जाता है। फल अनुमान करने में एक अनिवार्य और प्रशस्त नियम यह है कि जिस भाव का विचार करना हो उस भाव के स्वामी के शुभाशुभ फल की प्रबलता अधिक होती है।
तत्पश्चात भाव स्थित ग्रह का फल और सबसे कम भावदर्शी ग्रह के फल की प्रबलता होती है। स्मरण रखने योग्य नियम:- ज्योतिष शास्त्र में मंगल धन स्थान में निष्फल होता है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव में बुध, पंचम भाव में गुरु, षष्टम भाव में शुक्र तथा सप्तम भाव में शनि निष्फल होता हैज्य ोतिष शास्त्र का यह भी