नवरात्र संपूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन करने वाली जो शक्ति है उस शक्ति को शास्त्रों ने आद्या शक्ति की संज्ञा दी है।
देवी सूक्त के अनुसार-
या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।।
अर्थात जो देवी अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश और समस्त प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित है, उस शक्ति को नमस्कार, नमस्कार, बारबार मेरा नमस्कार है। इस शक्ति को प्रसन्न करने के लिए नवरात्र काल का अपना विशेष महत्व है।
मां दुर्गा को प्रसन्न करने हेतु नवरात्र में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। नवरात्र में साधक को व्रत रखकर माता दुर्गा की उपासना करनी चाहिए। माता दुर्गा की उपासना से सभी सांसारिक कष्टों से मुक्ति सहज ही हो जाती है।
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नवरात्रि में घट स्थापना के बाद संकल्प लेकर पूजा स्थान को गोबर से लीपकर वहां एक बाजोट पर लाल कपड़ा बिछाकर उसपर माता दुर्गा की प्रतिमा या चित्र को स्थापित कर पंचोपचार पूजा कर धूप-दीप एवं अगरबत्ती जलाएं।
फिर आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से किसी एक मंत्र का यथासंभव जाप करें। पूजन काल एवं नवरात्रि में विशेष ध्यान रखने योग्य बातें।
1. दुर्गा पूजन में लाल रंग के फूलों का उपयोग अवश्य करें। कभी भी तुलसी, आंवला, आक एवं मदार के फूलों का प्रयोग नहीं करें। दुर्बा भी नही चढ़ाएं।
2. पूजन काल में लाल रंग के आसन का प्रयोग करें। यदि लाल रंग का ऊनी आसन मिल जाए तो उत्तम अन्यथा लाल रंग के काले कंबल प्रयोग कर सकते हैं।
3. पूजा करते समय लाल रंग के वस्त्र पहनं एवं कुंकुम का तिलक लगाएं।
4. नवरात्र काल में दुर्गा के नाम की ज्योति अवश्य जलाएं। अखंड ज्योति जला सकते हैं तो उत्तम है अन्यथा सुबह शाम ज्योति अवश्य जलाएं।
5. नवरात्र काल में नौ दिन व्रत कर सकें तो उत्तम अन्यथा प्रथम नवरात्र, चतुर्थ नवरात्र एवं होमाष्टमी के दिन उपवास अवश्य करें।
6. नवरात्र काल में नौ कन्याओं को अंतिम नवरात्र को भोजन अवश्य कराएं। नौ कन्याओं को नवदुर्गा मानकर पूजन करें।
7. नवरात्र काल में दुर्गा सप्तशती का एक बार पाठ पूर्ण मनोयोग से अवश्य करना चाहिए।
नवरात्रि में जाप करने हेतु विशेष मंत्र -
1. ओम दुं दुर्गायै नमः
2. ऐं हृीं क्लीं चामुंडाये विच्चै
3 हृीं श्रीं क्लीं दुं दुर्गायै नमः
4. हृीं दुं दुर्गायै नमः
5. ग्रह दोष निवारण हेतु नवदुर्गा के भिन्न-भिन्न रूपों की पूजा करने से ग्रहों के दोष का निवारण होता है।
विजयादशमी का महत्व:
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यर्थ सिद्धये।।
अर्थात आश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल तारा उदय होने के समय विजयकाल रहता है इसलिए इसे विजयादशमी कहा जाता है। विजयादशमी का दूसरा नाम दशहरा भी है।
भगवान श्री राम की पत्नी सीता को जब अहंकारी एवं अधर्मी रावण अपहरण कर ले गया तब नारद मुनि के निर्देशानुसार भगवान श्री राम ने नवरात्र व्रत कर नौ दिन भगवती दुर्गा की अर्चना कर, प्रसन्न कर, वर प्राप्त कर रावणकी लंका पर चढ़ाई की।
इसी आश्विन शुक्ल दशमी के दिन राम ने रावण का वध कर विजय प्राप्त की थी। तब से इसे विजयादशमी के रूप में मनाया जाने लगा। भगवान राम के पूर्वज रघु ने विश्वजीत यज्ञ किया था। इस यज्ञ के पश्चात अपनी संपूर्ण संपत्ति का दान कर एक पर्ण कुटिया में रहने लगे।
इस समय रघु के पास कौत्स आया जिसने रघु से चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग की। क्योंकि कौत्स को गुरु दक्षिणा चुकाने हेतु चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता थी। तब रघु ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया।
इस पर कुबेर ने इसी दिन अश्मंतक व शमी के पौधांे पर स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दी जिसे लेकर कौत्स ने गुरु दक्षिणा चुकाई। शेष मुद्राएं जनसामान्य ने अपने उपभोग के लिए ली। इसी उपलक्ष्य में यह पर्व मनाया जाता है।
महाभारत में वर्णन है कि दुर्योधन ने पांडवों को जुए में हराकर बारह वर्ष का वनवास दिया था एवं तेरहवां वर्ष अज्ञातकाल का था। इस वर्ष में यदि कौरव पांडवों को खोज निकालते तो पुनः बारह वर्ष का वनवास व एक वर्ष का अज्ञातवास का सामना करना पड़ता।
इस अज्ञात काल में पांडवों ने राजा विराट के यहां नौकरी की थी। अर्जुन इस काल में वृहन्नला के वेष में रह रहा था। जब गौ रक्षा के लिए घृष्टद्युम्न ने कौरव सेना पर आक्रमण करने की योजना बनाई तब अर्जुन ने शमी वृक्ष से अपने अस्त्र-शस्त्र उतारकर कौरव सेना पर विजय इसी दिन प्राप्त की थी। इस कारण भी विजयादशमी का पर्व प्रचलित हो गया।
इस प्रकार से देखा जाए तो विजयादशमी का पर्व मुख्यतः विजय दशमी के रूप में मनाया जाता है। आश्विन मास के नवरात्र में देश के अधिकांश भागों में रामलीला का आयोजन होता है।
रामलीला का अंत रावण दहन के साथ ही हो जाता है। रावण दहन के साथ मेघनाद व कंुभकर्ण के भी पुतले बनाकर जलाए जाते हैं। गुजरात में नवरात्र के अवसर पर गरबा नृत्य का आयोजन किया जाता है। विजयादशमी का पर्व राज परिवार में सीमा उल्लंघन कर मनाया जाता था।
परंतु समय चक्र के साथ राजतांत्रिक व्यवस्था का स्थान लोकतंत्र ने ले लिया। अब यह उत्सव आमजन भी विशेष उत्साह एवं उल्लास के साथ मना रहा है। वास्तव में यह उत्सव बुराई के अंत स्वरूप मनाया जाता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक है तो अन्याय पर न्याय की जीत, अधर्म पर धर्म की जीत, दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की जीत का प्रमुख है।
यह पर्व हमें सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। सत्य चाहे कितना भी कड़वा हो, हमेशा उसी का अनुसरण करना चाहिए क्योंकि यह सनातन सत्य है कि हमेशा शुभ कर्मों की ही जीत होती है। इसे विजय पर्व भी कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र में इसे अबूझ मुहुर्त की संज्ञा दी गई है। इस दिन किया गया कोई भी कार्य अवश्य सफल रहता है।
किसी भी प्रकार के शुभ कर्म के लिए इस पर्व का अवश्य उपयोग करना चाहिए। कैसे मनाएं विजयादशमी विजयादशमी का पर्व प्राचीन काल से ही पूरे भारत वर्ष में धूमधाम से मनाया जाता है।
यह पर्व रावण पर राम की विजय के प्रतीक रूप में मुख्यतया मनाया जाता है। इस दिन रावण, मेघनाद व कुंभकर्ण का पुतला बनाकर उन्हें जलाने की परंपरा मुख्य रूप से सर्वत्र प्रचलित है।
इस दिन अपराजिता पूजन व शमी पूजन विशेष रूप से कई स्थानों पर किया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी का पूजन दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न के समय विजय एवं कल्याण की कामना के लिए किया जाना चाहिए। धर्म सिध्ं अनसुर अपराजिता पजू न के लिए अपराह्न में गांव के उत्तर-पूर्व की ओर जाकर एक स्वच्छ स्थल को गोबर से लीपना चाहिए।
फिर चंदन से आठ कोण दल बनाकर संकल्प करना चाहिए- ‘मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्धयर्थ अपराजिता पूजन करिष्ये। इसके पश्चात उस आकृति के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए। इसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चाहिए एवं साथ ही क्रिया शक्ति को नमस्कार एवं उमा को नमस्कार करना चाहिए। इसके पश्चात अपराजितायै नमः जयायै नमः विजयायै नमः मंत्रों के साथ षोडशोपचार पूजन करना चाहिए।
इसके पश्चात यह प्रार्थना करनी चाहिए - ‘हे देवी, यथाशक्ति मैंने जो पूजा अपनी रक्षा के लिए की है उसे स्वीकार कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। इस प्रकार अपराजिता पूजन के पश्चात उत्तर-पूर्व की ओर शमी वृक्ष की तरफ जाकर पूजन करना चाहिए।
शमी का अर्थ शत्रुओं का नाश करने वाला होता है। शमी पूजन के लिए इस मंत्र का पाठ करना चाहिए-
प्रार्थना मंत्र-
शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका।
बाण रामस्य प्रियवादिनी।।
करिष्यमाणयात्रायां यथाकाल सुखं मया।
तत्र निर्विघ्नकत्र्रीत्वंभव श्रीरामपूजिते।।
अर्थ- शमी पापों का शमन करती है। शमी के कांटे तांबे के रंग के होते हैं। यह अर्जुन के बाणों को धारण करती है। हे शमी, राम ने तुम्हारी पूजा की है। मैं यथाकाल विजययात्रा पर निकलंगा। तुम मेरी इस यात्रा को निर्विघ्नकारक व सुखकारक करो।
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इसके पश्चात शमी वृक्ष के नीचे चावल, सुपारी व तांबे का सिक्का रखते हैं। फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा कर उसकी जड़ के पास मिट्टी व कुछ पत्ते घर लेकर आते हैं। भगवान राम के पूर्वज रघु ने विश्वजीत यज्ञ कर अपनी सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति दान कर दी तथा पर्ण कुटिया में रहने लगे। इसी समय कौत्स को चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की आवश्कता गुरु दक्षिणा के लिए पड़ी।
तब रघु ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया तब कुबेर ने शमी एवं अश्मंतक पर स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की थी तब से शमी व अश्मंतक की पूजा की जाती है। अश्मंतक के पत्र घर लाकर स्वर्ण मानकर लोगों में बांटने का रिवाज प्रचलित हुआ।
अश्मंतक की पूजा के समय निम्न मंत्र बोलना चाहिए: अश्मंतक महावृक्ष महादोष निवारणम। इष्टानां दर्शनं देहि कुरु शत्रुविनाशम।। अर्थात हे अश्मंतक महावृक्ष तुम महादोषों का निवारण करने वाले हो, मुझे मेरे मित्रों का दर्शन कराकर शत्रु का नाश करो। इस प्रकार विजयादशमी का पर्व मनाने से सुख समृद्धि प्राप्त होकर विजय की प्राप्ति होती है।
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