गंगा की उत्पत्ति
गंगा की उत्पत्ति

गंगा की उत्पत्ति  

व्यूस : 18436 | अकतूबर 2013
गंगा भारत की शोभा और संसार की विभूति है। इस भूमि पर बहुत सी बड़ी-बड़ी लम्बी चैड़ी नदियां विद्यमान हैं, परन्तु गंगा जैसा निर्मल जल और उस जल जैसी विशेषताएं किसी में नहीं देखने में आईं। बड़े-बड़े विद्वान् भी इसकी आश्चर्यजनक अद्भुत पावन शक्ति को देख कर चकित रह जाते हैं। प्राचीन समय में इसके किनारे अनेकों प्रसिद्ध ऋषि महर्षियों के आश्रम और विद्यालय बने हुए थे जहां पर कुलपति ज्ञानामृत प्रवाहित कर अपने विद्यार्थियों और गृहस्थी जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा को तृप्त किया करते थे। बड़े-बड़े मुनि और तपस्वी लोग इसके किनारे स्थित तपोवनों में तपस्या किया करते थे और उनकी चरण धूलि स्पर्श कर बड़े-बड़े धनी-मानी यहां तक कि चक्रवर्ती राजा भी अपने को धन्य समझते थे और उनके मुख से निकले वेद वचनों के रहस्यों को सुन कर अपनी अध्यात्म पिपासा बुझाया करते थे। आज इस युग में इतना तो नहीं किन्तु कुछ न कुछ मात्रा में वेद विद्या का प्रचार और तपोनिष्ठा गंगा पर ही दिखाई देती है। यद्यपि लोगों का दृष्टिकोण बदल गया, फिर भी गंगा का महत्व लाखों ही नहीं करोड़ों स्त्री-पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करता है। प्रति दिन हजारों नर-नारी हरिद्वार में गंगा के पवित्र तट पर आते-जाते दिखाई पड़ते हैं और कुम्भ आदि विशेष उत्सवों-पर्वों पर तो लाखों व्यक्तियों की भीड़ एकत्र हो जाती है यहां तक कि गंगा तक पहुंचना बड़ा दुर्लभ हो जाता है। लाखों व्यक्ति तो उस दिन विशिष्ट स्थान पर पहुंच भी नहीं पाते। गंगा की उत्पत्ति कैसे हुई: पुराणों के अन्दर इसके बारे में एक विचित्र कथा है - कहते हैं प्राचीन काल में सगर नामी एक चक्रवर्ती राजा भारतवर्ष में हुआ। उसने अश्वमेघ यज्ञ आरम्भ किया। विधि के अनुसार यज्ञ का घोड़ा छोड़ा गया जिसकी रक्षा के लिये उसने अपने साठ हजार वीर पुत्रों को नियुक्त किया। यह घोड़ा भूमि के सब प्रदेशों में घूमा, परन्तु महाराज सगर के प्रताप और उसके साठ हजार पुत्रों से सुरक्षित होने के कारण किसी ने भी इसे रोकने का साहस नहीं किया। जब यह घोड़ा राजा सगर की राजधानी को लौट रहा था तो इन्द्र को चिन्ता हुई कि यदि राजा का यज्ञ सफल हो गया तो मेरी गद्दी खतरे में फ्यूचर पाइंट के सौजन्य से पड़ जाएगी। इस कारण उसने राजा सगर के घोड़े को चुरा लिया और जहां कपिल ऋषि तपस्या कर रहे थे उस स्थान पर ले जाकर बांध दिया। राजा सगर के पुत्र जब घोड़े की तलाश करते हुए वहां पहुंचे तो उन्होंने यह समझकर कि घोड़े को कपिल ऋषि ने चुराया है, उन्हीं को गालियां देनी आरम्भ कर दी और पांव की ठोकरों से मारा, जिससे उनकी आंख खुल गई। उनकी क्रोध भरी दृष्टि से राजा सगर के सोलह हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए। जब राजा सगर को इस वृतान्त का पता चला तो उनको बहुत खेद हुआ। एक तो यज्ञ का असफल होना, दूसरे वीर पुत्रों का भस्म होकर राख हो जाना, नर्क प्राप्त करने के समान सोच तथा बड़ा दुःख हुआ। राजा को अपने पुत्रों की सद्गति की चिन्ता हुई, किन्तु किसी प्रकार सफलता न मिल सकी। सगर की पुत्रों की सद्गति की चिन्ता उनके सारे वंशजों को परेशान कर रही थी। सगर को यह पता चला कि यदि जल पृथ्वी पर लाया जाए और जहां पर उसके पुत्र भस्म हुए हैं वहां पर बहता हुआ यह जल उस भस्मी को अपने साथ बहाए तो सगर पुत्रों की सद्गति हो सकती है। उन्होंने गंगा को भूमि पर लाने के लिये बहुत यत्न किया ेिकन्तु सफलता नहीं हुई। अन्त में उसी वंश का राजा भागीरथ गंगा को कमण्डल में से भूमि पर लाने के लिए रजामन्द करने में समर्थ हो गया। किन्तु इस जल का वेग बहुत तीव्र था, अतः उसे संभालने के लिये उन्होंने शिवजी महाराज को मना लिया और इस प्रकार कमण्डल का यह पानी अर्थात् गंगा पहले शिवजी की जटाओं में उतरी और वहां से गंगोतरी के रास्ते से उत्तर प्रदेश के प्रान्त में बहीं और सगर पुत्रों का उद्धार हो गया। इसी विचार के कारण हिन्दू लोग अपने मृतकों की राख गंगा में प्रवाहित करते हैं जिससे कि उनकी सद्गति हो जाए।



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