महाशक्ति दायिनी मां दुर्गा पूजा का ज्योतिषीय योग
महाशक्ति दायिनी मां दुर्गा पूजा का ज्योतिषीय योग

महाशक्ति दायिनी मां दुर्गा पूजा का ज्योतिषीय योग  

बाबुलाल शास्त्री
व्यूस : 5102 | अकतूबर 2016

शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा जो आद्य शक्ति हैं एवं शक्ति की ऊर्जा बिना सभी प्राणी निर्जीव है, की पूजा का विशेष महत्व है। ज्योतिष शास्त्र के नवग्रहों का संबध नवदुर्गा से है। ़नवग्रह शिवरूप है और शिव में इकार स्वरूप नवशक्ति विद्यमान है। शक्ति के बिना शिव शव बन जाता है। नवग्रहों का स्वरूप भी शिव शक्तिरूपा है। नवग्रह में शुक्र शनि चन्द्र बुध एक साथ होकर शक्ति रूपा स्त्री होते हैं तथा सूर्य, मंगल, गुरु एवं राहु शिव रूप में पुरूष होते हैं। नवग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव डालने वाली शक्ति नवदुर्गा ही है। यह एक, तीन, नौ और एक सौ आठ रूपों मंे विचरण करती हुई नवग्रहों, राशि एवं नक्षत्र मंडली को ऊर्जा प्रदान करती है जिससे चराचर जगत में गतिशीलता और परिवर्तन दिखाई पड़ता है।

यह शक्ति श्रीमहाकाली, श्रीमहालक्ष्मी, श्रीमहासरस्वती के रूप में, नवदुर्गा के रूप में तथा एक सौ आठ लोक दुर्गा के रूप में विराजमान रहती हैं - या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंधमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री, आदि नव शक्ति नवग्रहों को दस महाशक्ति रूपा दस महाविद्याओं के सहयोग से लौकिक शक्ति एवं अलौकिक शक्ति के साथ चमत्कार पैदा करती है। ज्योतिषशास्त्र में ग्रहांे के शुभ अशुभ फल उनकी शक्ति के आधार पर ही मिलते हंै। उनको उच्च नीच मित्र शत्रु कारक बाधक साधक आदि किसी भी संज्ञा से पुकारें लेकिन अनिष्ट ग्रह एवं दशाकाल भी शक्ति उपासना से पूर्णतया परिवर्तनशील होता है।

शक्ति मनुष्य की सर्वाेपरि पंूजी है, ज्योतिष शास्त्र के व्यवहार मंे सत्ताईस नक्षत्र होते हैं तथा प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण लोक दुर्गा शक्ति का प्रतिनिधि होता है। नवग्रह नवशक्ति के साथ मिलकर शिव शक्ति के रूप मंे अर्द्धनारीश्वर बने हुये हैं। अश्विनी नक्षत्र से प्रारम्भ कर अश्लेषा नक्षत्र तक मेष, वृष, मिथुन एवं कर्क राशि आती है। इसी तरह ज्येष्ठा एवं रेवती नक्षत्र पर वृश्चिक एवं मीन राशि समाप्त होती है। अतः कर्क, वृश्चिक, मीन राशियों पर चार-चार राशि के चन्द्र परिभ्रमण मार्ग को पुराणांे में दक्षव्रत कहा गया है जो तीन भागों मंे विभक्त है। यह तीन भाग ही महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के आश्रय स्थल हैं। संवत्सर चक्र में तीन सौ साठ रात्रि तथा तीन सौ साठ दिन होते हैं।

इसलिए एक वर्ष में चालीस नवरात्र आते हैं। इनमंे भी चार नवरात्रों को प्रमुखता दी गई है। इनमें आश्विन मास में होने वाले नवरात्र यमदृष्टा कहलाते हैं क्यांेकि यह नवरात्र शक्ति संचय की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। कहा भी है शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। महाकाल पूजा मंे मनुष्य को काम और अर्थ प्रदान करने वाली दुर्गा सप्तशती का पाठ सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का एक शक्ति संपन्न भाग है जो त्रिदेवी नवदुर्गा एवं अष्टोत्तरशत नव दुर्गा के रूप में प्राणी मात्र का कल्याण कर देती है। नवरात्र में साधना एवं व्रत से तन, मन, हृदय, प्राण को बुद्धि की शक्तियां संगठित हो जाती हैं।

यह साधना वे ही कर पाते हंै जिनके शिव शक्ति रूप ग्रहों को पंच विद्ध संबंधांे में से कोई भी एक का संबध बना हुआ है। नवरात्र साधना से हमारी प्राकृतिक शक्ति साकार रूप में तथा आत्मिक शक्ति निराकार रूप में संसार का व्यवहार संचालित करती है। बिखरी हुई शक्तियों को संगठित करके आत्मानुशासन में लाना ही शक्ति की सच्ची उपासना है और जिसके लिए बल, धन और ज्ञान इन तीनों के बिना मानव को जीवन में सफलता नहीं मिलती। अतः इनकी प्राप्ति के लिए महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती की उपासना आदि काल से चली आ रही है।



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