रोग कारक - शनि
रोग कारक - शनि

रोग कारक - शनि  

बाबुलाल शास्त्री
व्यूस : 8998 | फ़रवरी 2017

सौर मंडल में नौ ग्रह विद्यमान हैं जो समस्त ब्रह्मांड, जीव एवं सभी क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह की अपनी विशेषतायंे हैं जिनमें शनि की भूमिका महत्वपूर्ण है। शनि को दुःख, अभाव का कारक ग्रह माना जाता है। जन्म समय में जो ग्रह बलवान हों उसके कारक तत्वों की वृद्धि होती है एवं निर्बल होने पर कमी होती है किंतु शनि के फल इनके विपरीत हैं। शनि निर्बल होने पर अधिक दुख देता है व बलवान होने पर दुख का नाश करता है। अतः शनि के दो रूप हैं। यह चिंतनशील गहराईयों में जाने वाला योगी, संन्यासी एवं खोज करने वाला ग्रह है।

दूसरा जातक को दिवालिया कर भिखारी बना देता है। अतः या तो मानव का स्तर ऊंचा ले जाता है या नीचे गिरा देता है, शनि जातक को उसके पूर्व जन्म के कर्मों अनुसार इस जन्म में शुभ-अशुभ कर्म अनुसार फल भुगतने का समय नियत करता है। शनि सुधरने का पूर्ण अवसर देते हुए नहीं सुधरने पर कर्मानुसार दंड देता है। अतः शनि देव को न्यायाधीश का पद प्राप्त है। शनि आयु कारक ग्रह है। शनि जिस भाव में बैठता है उस भाव की आयु की वृद्धि करता है एवं घटाता भी है। यदि शत्रु राशि या नीच का हो तो आयु घटती है। उच्च राशि या मित्र राशि में हो तो आयु बढ़ती है। जैसे- चतुर्थ भाव में शनि शत्रु राशि में हो तो माता की, सप्तम भाव में हो तो पति/पत्नी की आयु को खतरा रहेगा। शनि का भूमि, भवन, पत्थर व लोहे से विशेष संबंध है। यह इनका कारक है। जब शनि चतुर्थेश अथवा योग कारक होता हुआ बलवान हो एवं धंधे का द्योतक हो तो अधिकांश भूमि की प्राप्ति होती है।

शनि का सप्तम भाव, लग्न, लग्नेश, दशमेश से संबंध होने पर भवन/सड़क निर्माण, पत्थर, सिमेंट आदि कार्य में सफलता दिलाता है। शनि अधोमुखी ग्रह है अतः भूगर्भ में रहने वाले पदार्थ लोहा, कोयला, पेट्रोल, भूमि व तेल का कारक है। जब शनि चतुर्थेश व धंधे का कारक हो तो इनसे धन लाभ देता है। शनि मृत्यु से घनिष्ठ संबंध रखता है। अतः मृत शरीर से प्राप्त होने वाले चमड़े से शनि अष्टमेश तृतीयेश होने पर धंधे का द्योतक होता है अर्थात चमड़ा जूतों का व्यवसाय कराता है।

शनि रोग कारक है। सूर्य-राहु का प्रभाव हो तो वैद्य, चिकित्सक का कार्य अथवा नौकरी में सफलता दिलाता है। ज्योतिष शास्त्र में मेषादि राशियों को कालपुरूष में बारह राशियों एवं जन्मकुंडली के द्वादश भावों के अनुसार रोग के क्षेत्र एवं उनकी पहचान बताई गई है। राशियों के स्वामी एवं द्वादश भावों के स्वामी पाप ग्रहों से दृष्ट शत्रु या नीच भाव में होंगे तो संबंधित अंगों पर संबंधित रोग देंगे। नव ग्रहों में मुख्यतः रोग कारक ग्रह सूर्य, शनि, राहु है। सूर्य नवग्रहों में राजा एवं अग्नि तत्व ग्रह है जो मानव शरीर संरचना का कारक है। सूर्य का अधिकार नेत्र, हड्डी, हृदय, पेट एवं आत्मा पर है।

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शनि विशेष रोग कारक ग्रह है जिसके द्वारा दीर्घकालीन रोगों की उत्पत्ति होती है। शनि वायु तत्व ग्रह है एवं वात, कफ, चोट, मोच, संघाते, पेट, मज्जा, दुर्बलता, सूखापन, वायु विकार, अंग वक्रता, पक्षाघात, गंजापन, जोड़ों में दर्द, सूखा रोग, पिंडलियों के रोग, चर्म रोग, स्नायु रोग एवं मस्तक रोग आदि देता है। कोई भी रोग व दोष कष्ट किसी न किसी ग्रह दोष से कितना ही पीड़ित क्यों न हो उसका असर जीवन में षष्ठेश, अष्टमेश एवं शनि की दशा आने पर एवं अनिष्ट भाव या शनि की साढ़ेसाती एवं ढैया आने पर होता है। फलित ज्योतिष में राहु को शनि के समान माना गया है।

राहु से प्रेत बाधा, मिर्गी, पागलपन, अनिश्चित भय, वहम, रात को भयंकर सपने आना, शरीर में दर्द, चोट दुर्घटना जैसी घटनाएं होती हैं। अतः सूर्य, शनि, राहु इन तीनों ग्रहों से अधिष्ठित राशि का स्वामी एवं द्वादशेश ये सब पृथकताजनक प्रभाव रखते हैं अतः जिस भाव पर इनका प्रभाव पड़ेगा जातक को उन भावों से संबंधित व्यक्तियों, वस्तुओं आदि से पृथक होना पड़ेगा। उदाहरणार्थ यदि उक्त पृथकताजनक प्रभाव द्वितीय भाव पर पडे़ तो पति /पत्नी को त्याग देगा, तलाक तक की नौबत आ जायेगी। दशम भाव पर पड़े तो व्यवसाय/नौकरी से पृथक होने के कारण हानि होगी। सूर्य, शनि, राहु में से कोई भी दो ग्रह जिस भाव आदि पर नीच प्रभाव डाल रहे हों तो पृथकता हो जाती है। इन सब दशाओं में निश्चित फल की प्राप्ति तभी होती है

जबकि भाव के साथ-साथ उक्त भाव का स्वामी तथा उक्त भाव का कारक पृथकताजनक प्रभाव में हो। उत्तरकालामृत के अनुसार- भावात्-भाव पतेश्च कारक वशात तत्-फलं योजनतः अर्थात किसी भी भाव का विचार करते समय संबद्ध भाव, उसके स्वामी एवं उसके कारक ग्रह पर विचार किया जाना आवश्यक है। उदाहरण के लिए कालपुरूष की चतुर्थ राशि कर्क एवं जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव के पीड़ित जातक की जन्मकुंडली दर्शायी जा रही है जातक क्षय रोग से पीड़ित है जिस पर सूर्य, शनि राहु एवं द्वादशेश सूर्य का स्पष्ट प्रभाव है।

द्वादश भाव/कालपुरूष अंग एवं संबंधित रोग भाव राशि कालपुरूष अंग संभावित रोग प्रथम भाव मेष सिर शरीर, रंग, रूप, दुःख-सुख, सिरदर्द, मस्तिष्क रोग, नेत्र रोग, अपस्मार, पित्त रोग। द्वितीय भाव वृष मुख आंख, नाक, कान, स्वर, वाणी, सौंदर्य, नेत्र, दांत, कंठ रोग, सूजन तृतीय भाव मिथुन भुजा, कंधे, श्वांस नली दमा, खांसी, फेफड़े, श्वांस संबंधी रोग, कंधे, बांहंे-हाथों में रोग, एलर्जी चतुर्थ भाव कर्क छाती, हृदय उदर, छाती, वक्ष स्थल, हृदय रोग, जलोदर, कैंसर, वात रोग, उदर, गुर्दे के रोग। पंचम भाव सिंह पेट, दिल पाचन तंत्र, गर्भाशय, मूत्र, पिंड एवं वास्ति, हृदय, अस्थि, फेफड़ांे के रोग। षष्ठ भाव कन्या गुर्दे, अंतड़ियाँ घाव, अल्सर, गुदा स्थान आदि आंतों के रोग, ऐंठन, दस्त, गठिया। सप्तम भाव तुला नाभि, गुप्तेन्द्रियाँ जननेद्रिय, गुदा रोग, मूत्राशय, पथरी, मधुमेह, रीढ़ की हड्डी के रोग। अष्टम भाव वृश्चिक लिंग, गुदा, अंडकोष गुप्त रोग, पीड़ा, दुर्घटना, बवासीर, कैंसर, हर्निया, रक्त दोष रोग। नवम भाव धनु जांघंे, नितंब मानसिक वृद्धि, रक्त विकार, गठिया, पक्षाघात, घाव, चोट। दशम भाव मकर घुटने आत्मविश्वास में कमी, कर्म में बाधा, जोड़ांे का दर्द, गठिया, चर्म रोग। एकादश भाव कुंभ पिंडलियाँ पिंडलियांे में रोग, स्नायु दुर्बलतम, हृदय रोग, रक्त विकार, पागलपन। द्वादश भाव मीन चरण, पैर अनिद्रा रोग, पैरों के रोग, लकवा, मोच, राजयक्ष्मा रोग।


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श्री शनि देव का परिचय शनि देव के पिता श्री सूर्यदेव शनि देव की माता श्री छाया (सुवर्णा) शनि देव के भाई यमराज शनि देव की बहन यमुना शनि देव के गुरु शिवजी शनि देव का गोत्र कश्यप शनि देव की रूचि अध्यात्म, कानून, कूटनीति, राजनीति शनि देव का जन्म स्थल सौराष्ट्र शनि देव का रंग श्याम कृष्ण शनि देव का स्वभाव गंभीर, त्यागी, तपस्वी, हठी, क्रोधी शनि देव के प्रिय सखा काल भैरव, हनुमान जी, कृष्ण जी, बुध, राहु शनि देव की राशि मकर, कुंभ शनि देव का कार्यक्षेत्र प्राणियों का न्यायदाता शनि देव के नक्षत्र अनुराधा, पुष्य, उत्तराभाद्रपद शनि देव का रत्न नीलम शनि देव के प्रिय दिन शनिवार, तिथि अमावस्या शनि देव की प्रिय वस्तुएं काली वस्तुएं, काला कपड़ा, तेल, गुड़, उड़द, खट्टा, कसैला पदार्थ शनि देव की धातुएं लोहा, इस्पात शनि देव का व्यापार लोहा, इस्पात, सीमेंट, कोयला, उद्योग, कल-कारखाने, पेट्रोलियम, ट्रांसपोर्ट, मेडिकल, प्रेस, हार्डवेयर शनि देव के रोग वात रोग, शूगर, किडनी, कुष्ठ, पागलपन, त्वचा रोग निदान शनिवार के दिन संध्या के बाद, दीन-हीन गरीब-बूढ़ों को शनि की प्रिय वस्तुएं दान में दें और व्रत आदि करें।

प्रभाव साढ़े सात वर्ष महादशा 19 वर्ष मुख्य दर्शन स्थल श्री शिंगणापुर, महाराष्ट्र कोकिला-वन, कौसी, शनिदेव मंदिर, ग्वालियर, सिद्धशक्ति शनिधाम महरौली, श्री गीता मंदिर, सिद्ध शनिधाम विकास नगर, लुधियाना शनि मंत्र ऊँ सूर्यपुत्रो दीर्घदेहो विशालाक्षः शिवप्रियः। मंदचार प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु मे शनिः।। ऊँ नीलांजन समाभासं रवि पुत्रं यमाग्रजं। छायामार्तण्डसंभूतं तं नमामि शनैश्चरम्।। शनि दस नाम ¬ कोणस्थाय नमः ¬कृष्णाय नमः ¬ रौद्रात्मकाय नमः ¬ मंदाय नमः ¬ शनैश्चराय नमः ¬पिल्लाय नमः ¬ यमाय नमः ¬पिंगलाय नमः ¬ बभ्रु नमः ¬ सौराय नमः शनि देव जी की आरती जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी। सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी। जय जय ।। श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भजा धारी। नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी।। जय जय ।। क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी। मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी।। जय जय ।। मोदक मिष्ठान्न पान चढ़त हैं

सुपारी। लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी।। जय जय ।। देव दनुज ऋषि सुमिरत नर नारी।। विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी।। जय जय ।। नमन विपदा, संकट, कष्ट और दारूण दुख भरपूर। साढ़ेसाती का समय, बड़ा विकट और क्रूर।। ईशभजन और सदुपाय, हरैं क्लेश क्रूर।। शनि कृपा, सद्भाव से रहें दुःख सब दूर।।


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