शास्त्रों के अनुसार देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण का जन्म जन्मांतरों तक मानव पर प्रभाव रहता है इसलिए शास्त्रों में पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः, मातृ देवो भवः आदि संबोधन दिए गये हैं। वैसे ऋण का अर्थ है कर्ज, जिसको उसकी संतान व परिजनों द्वारा चुकाया जाना है। जब जातक पर उसके पूर्वजों के पापों का गुप्त प्रभाव पड़ता है तब पितृ दोष कहलाता है। अतः मानव को जीवन में तीन बातों का सदैव स्मरण रखना चाहिये- कर्ज, फर्ज और मर्ज। जो इन तीनों बातों का ध्यान रखकर कर्म करता है वह कभी असफल नहीं होता। पांडवांे की गलती का परिणाम द्रौपदी को भुगतना पड़ा था। राजा दशरथ के हाथों निशाना चूक जाने पर श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई। श्रवण के श्राप से ही राजा दशरथ की मृत्यु पुत्र वियोग में हुई। पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में भी पितृ दोष का विस्तृत वर्णन मिलता है जिनके अनुसार हमारे पूर्वजों/पितरों की आत्मा अतृप्त या असंतुष्ट रहे तो संतान की कुंडली दूषित हो जाती है जिसे वर्तमान में कष्टों तथा दुर्भाग्यों का सामना पितृ दोष के रूप में करना पड़ता है। इस परिधि में मानव के साथ देवतागण, पशु पक्षी सभी जीव आते हैं। ज्योतिष शास्त्र का संबंध जातक के इस जन्म के साथ पूर्व जन्म के कर्म से भी है। कुंडली भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों की परिचायक है।
जन्मकुंडली में सूर्य, गुरु, चंद्र, मंगल, शुक्र, शनि ग्रहों पर राहु का प्रभाव या दृष्टि संबंध हो तो यह पितृ दोष को इंगित करता है। जन्मकुंडली में बुध अकेला नवम भाव में धनु राशि में हो तो पितृ दोष का सूचक है। बुध, शुक्र एवं राहु ग्रह को पितृ दोष के लिये मुख्य रूप से कारक माना गया है। ये किसी भी स्थान पर अकेले बैठे हों या अन्य ग्रहों के साथ बैठे हों, अगर गुरु से प्रथम, द्वितीय, पांचवें, नवें, बारहवें भाव पर बुध, शुक्र या राहु बैठे हों तो पितृ दोष माना गया है। जन्मकुंडली में यदि चंद्रमा राहु, केतु, शनि का प्रभाव हो तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चंद्रमा मन का कारक है अतः ऐसे जातक को निरंतर अशांति रहती है। यदि सूर्य पर शनि, राहु, केतु का प्रभाव या दृष्टि हो तो जातक पितृ ऋण के कारण मान-प्रतिष्ठा के अभाव में संतान से कष्ट, व्यवसाय में हानि पाता है। यदि संतान अपंग, मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का संपूर्ण जीवन उस पर केंद्रित हो जाता है। यदि लग्न में या पंचम में सूर्य, मंगल, शनि हो, अष्टम या द्वादश में गुरु, राहु हो तो पितृ दोष होता है। पंचम में नीच का सूर्य हो, मेष में नीच का शनि हो या लग्न में पाप ग्रह हो, दशमेश छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो, पुत्र कारक गुरु पाप ग्रह की राशि में हो या पंचम में पाप ग्रह हो, तृतीयेश की अष्टमेश से युति हो तो छोटे भाई बहनों के कारण, चतुर्थेश अष्टमेश का संबंध हो तो बड़े भाई के कारण पितृ दोष की उत्पत्ति होती है।
शनि, राहु चतुर्थ या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है। मंगल, राहु चतुर्थ भाव में हो तो मामा का दोष लगता है। राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति या दृष्टि हो तो दादा, परदादा का दोष, मंगल के साथ राहु हो तो भाई का दोष, राहु शुक्र की युति हो तो ब्राह्मण, ऋषि का अपमान करने का दोष, सूर्य, राहु पितृ दोष, राहु चंद्रमा माता का दोष, राहु गुरु दादा का दोष, राहु शनि सर्प संतान का दोष होता है। यदि गुरु पर दो पाप ग्रहों का प्रभाव हो तथा गुरु 4, 8, 12 वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों में भी निर्बल हो तो पितृ दोष पूर्ण रूप से घटित होता है। प्रस्तुत जन्म कुंडली के अनुसार पितृ दोष दादा परदादा से चला आ रहा है। लग्नेश बुध अष्टम भाव में केतु के साथ पीड़ित है जिसकी नवम दृष्टि चतुर्थ भाव पर पड़ रही है, गुरु की पंचम दृष्टि है। अतः जन्म स्थान पीड़ित है। राहु कुटुम्ब भाव में बैठा है अतः जातक का कुटुम्ब भी नहीं बन पाया। केतु की गुरु पर द्वादश भाव में पंचम दृष्टि है। शनि की दशम दृष्टि है। पंचम भाव पर मंगल की अष्टम दृष्टि एवं शनि की तीसरी दृष्टि है जो संतान के लिये बाधक है। इस कुंडली में स्पष्ट पितृ दोष है जो परदादा से चला आ रहा है। परदादा के एक लड़का था। दादा के भी एक ही लड़का, पिता के भी एक ही लड़का, अतः किसी भी बाप को बेटे का सुख नहीं मिला। समय से पहले पिता चल बसा।
पितृ दोष के साथ-साथ असाध्य व गंभीर बीमारियां पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हंै। शुक्र नवम भाग्य स्थान में सूर्य के साथ बैठा है जिस पर शनि की सप्तम दृष्टि है। सूर्य शनि दोनों विच्छेदी ग्रह हंै अतः परिवार में स्त्री सुख नहीं मिला। देव गुरु बृहस्पति सूर्य की सिंह राशि में स्थित है जिस पर केतु की पंचम व शनि की दशम दृष्टि है। अतः कुंडली गुरुजनों, ब्राह्मणों एवं देव दोष से पीड़ित है। द्वितीय भाव में पाप ग्रह हो, चतुर्थ भाव में शनि, राहु, मंगल हो तो जातक के निवास में प्रेत बाधा होती है। प्रस्तुत कुंडली के अनुसार प्रेत बाधा नाना के समय से ही चली आ रही है। लग्नेश बुध छठे भाव में मंगल की वृश्चिक राशि में है। षष्ठेश मंगल लग्न में है। बुध मंगल का राशि परिवर्तन है जो जातक के जीवन में ननिहाल पक्ष से बाधक है। जातक की उम्र 40 वर्ष की हो जाने के बाद भी शादी नहीं हो सकी, आवास भी नहीं बना पाया, न ही परिवार बसा पाया। यद्यपि गुरु सप्तमेश दशम भाव में अपनी मीन राशि में है किंतु कुटुंब भाव का स्वामी चंद्रमा जो माता का कारक है एवं शनि की कुंभ राशि नवम भाव में है जिसके साथ राहु है जो मातृ पक्ष की प्रेत बाधा दर्शाता है। तृतीय भाव में केतु के साथ शुक्र होने से स्त्री के अभिशाप का द्योतक है। सूर्य, केतु व शुक्र के तत्व को लेकर द्वितीय भाव में बैठा है।
जातक कुटुम्ब भी नहीं बना पाया। चतुर्थ भाव में शनि की उपस्थिति व मंगल की चैथी दृष्टि मातृ पक्ष व मातृ भूमि के कष्ट बता रही है। जातक के नाना ने अपनी पत्नी को बहुत सताया जो तड़प-तड़प के मर गई। मरने से पहले कह गई कि मंैने इस घर में सुख नहीं पाया तो तेरे प्रियजन भी सुख नहीं भोगेंगे। नाना ने दूसरी शादी कर ली। जातक की मां ने जन्म लिया, नानी भी विधवा हो गई। जातक के जन्म के बाद मां की मृत्यु हो गई, जातक के मामा नहीं था। परिजनों में केवल जातक है। नानी के श्राप से पीड़ित होने से जातक की न तो शादी हुई न घर बसा पाया। अगर किसी जातक की जन्म कुंडली में पितृ दोष, देव दोष, मातृ दोष आदि हो तो देव ऋण, देव पूजन, हवन आदि कर्म से चुकता है। ऋषि ऋण ब्राह्मण, संत सेवा से निवृत्त होता है। पितृ दोष, भ्रूण हत्या, भ्रम दोष आदि का उपाय कर्म कांड द्वारा तर्पण, श्राद्ध एवं पिंडदान करना है। पिता पितामह, माता, पितामही, परपितामही, परपितामह, परमातामह, मातामह एवं वृद्ध परमातामह ये नौ देवता हैं, इनके लिए किये जाने वाला श्राद्ध नवदेवताक या नवदेवत्य कहलाता है। श्राद्ध का दूसरा नाम कनागत भी है। स्कंद पुराण के अनुसार महाकाल ने बताया है कि पितृ एवं देवताओं की योनि ऐसी है कि दूर से कही हुई बातें वो सुन लेते हैं।
दूर से की हुई पूजा स्तुति से भी संतुष्ट हो जाते हैं। जैसे मनुष्य का आहार अन्न है, पशुओं का घास है वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार तत्व है। पितरों की शक्तियां ज्ञानगम्य है जो श्राद्ध में दी हुई वस्तुओं का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। देव योनि में हो तो दिये हुये अन्न को अमृत के रूप में, मनुष्य या पशु योनि में हो तो तृण या घास के रूप में, नाग योनि में हो तो वायु के रूप में, यक्ष योनि में हो तो पान के रूप में ग्रहण करते हैं। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरों को स्वतंत्र कर देते हैं ताकि वो अपनी संतान या परिजनों से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कर लें। श्राद्ध चिंतामणि ग्रंथ अनुसार किसी मृत आत्मा का तीन वर्षों तक श्राद्ध कर्म नहीं किया जाय तो वह जीवात्मा प्रेत योनि में चली जाती है जो तमोगुणी, रजोगुणी एवं सतोगुणी होती है। पृथ्वी पर निवास करने वाली आत्माएं तमोगुणी, आकाश में रहने वाली आत्माएं रजोगुणी, वायुमंडल में रहने वाली आत्माएं सतोगुणी होती हैं।
इनकी मुक्ति के लिए शास्त्रों में त्रिपिंडी श्राद्ध करने का विधान दिया है। श्रापित दोष के लिए नारायण बलि, नागबलि, कराना चाहिए। बलि से अभिप्राय आटे की मूर्ति, हल्दी या केसर मिलाकर बनायें, पूजा कर नदी में प्रवाहित करें। पितृ दोषों का निवारण युग तीर्थों गया, प्रयाग, पुष्कर, कुरूक्षेत्र, हरिद्वार, बद्रीधाम जैसे पुण्य स्थानों पर जाकर किया जा सकता है। शास्त्रों के अनुसार पितृ शांति के लिये दशांश अर्थात आय का दसवां भाग खर्च करने का प्रावधान है। जो जातक समर्थ नहीं हो उनके द्वारा नदी के किनारे किसी प्राचीन शिवालय में किया जा सकता है। पिंडदान श्राद्ध का अधिकार पुत्र को दिया गया है। पुत्र होने पर पिता लोकों को जीत लेता है। पौत्र होने पर आनन्तय को प्राप्त होता है। प्रपौत्र होने पर सूर्य लोक को प्राप्त कर लेता है। राजा भागीरथ द्वारा तपस्या से गंगा मां का अवतरण भूमि पर पितरों की मुक्ति के लिए ही किया गया था। पितृ शांति के लिए श्रीमद् भागवद गीता का ग्यारहवां अध्याय पठन-पाठन करने से मोक्ष प्राप्त होता है।