जैन शिक्षा एवं संदेश
जैन शिक्षा एवं संदेश

जैन शिक्षा एवं संदेश  

मनोज कुमार
व्यूस : 35622 | अप्रैल 2016

कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने अपने सिद्धांतों का प्रचार प्रारंभ किया। समाज के कुलीन वर्ग के लोगों ने भी उनकी शिष्यता ग्रहण की। मगध सम्राट अजातशत्रु के समय में उनके मत की महती उन्नति हुई। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य- चे पांच महाव्रत हैं, जिनका विधान भिक्षुओं के पालनार्थ किया गया। इनका विवरण निम्नलिखित है:

1. अहिंसा यह जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है, जिसमें सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है। अहिंसा के पूर्ण पालन के लिए निम्नलिखित आचारों का निर्देश हुआ है- ;पद्ध इर्या समिति - संयम से चलना ताकि मार्ग में कीट-पतंगों के कुचलने से कोई हिंसा न हो जाए। ;पपद्ध भाषा समिति: संयम से बोलना ताकि कटु वचन से किसी को कष्ट न पहुंचे। ;पपपद्ध एषणा समिति: संयम से भोजन ग्रहण करना, जिससे किसी प्रकार भी कीड़े-मकोड़ों की हत्या न हो सके। ;पअद्ध आदान-निक्षेप समिति- किसी वस्तु को उठाने तथा रखने के समय विशेष सावधानी बरतना जिससे जीव की हत्या न हो जाए। ;अद्ध व्युत्सर्ग समिति: मल-मूत्र का त्याग ऐसे स्थान पर करना, जहां किसी जीव की हिंसा होने की आशंका न रहे।

2. सत्य इसमें सदैव सत्य बोलने पर जोर दिया गया। इसका आचरण निम्नवत है-

1. हंसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।

2. लोभ होने पर मौन रहना चाहिए।

3. भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।

4. सोच-विचार कर बोलना चाहिए।

5. क्रोध आने पर शांत रहना चाहिए।

3 अस्तेय इसके अंतर्गत निम्नलिखित बातें बताई गई हैं-

1. बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश न करना।

2. बिना किसी की अनुमति के उसकी कोई भी वस्तु न लेना।

3. यदि किसी के घर में रहना हो, तो बिना उसकी आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का उपयोग न करें।

4. गुरु की आज्ञा के बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण न करना।

5. बिना अनुमति के किसी के घर में निवास न करना।

4. अपरिग्रह इसमें किसी भी प्रकार की संपत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है, क्योंकि संपत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है।

5. ब्रह्मचर्य उपर्युक्त चारों सिद्धांत जैन मत में पहले से चले आ रहे थे। लेकिन ब्रह्मचर्य का विधान महावीर ने जोड़ा। इसके अंतर्गत भिक्षु को निम्नलिखित निर्देश दिए गए हैं-

1. शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना।

2. किसी स्त्री को न देखना।

3. किसी स्त्री से बातें न करना।

4. किसी स्त्री से संसर्ग की बात कभी न सोचना।

5. ऐसे घर में न जाना, जहां कोई स्त्री अकेली रहती हो। गौतम बुद्ध के समान महावीर ने भी वेदों की अपौरूषेयता स्वीकार करने से इंकार कर दिया तथा धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों और पाखंडों का विरोध किया। उन्होंने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकांतिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया, जिसे ‘अनेकान्तवाद’ अथवा ‘स्यादवाद’ (सप्तभंगी सिद्धांत) कहा गया है। इसके अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म होते हैं तथा व्यक्ति अपने सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही धर्मों को जान सकता है। पूर्ण ज्ञान तो ‘केवलिन्’ के लिए ही संभव है। महावीर पुनर्जन्म तथा कर्मवाद में भी विश्वास करते थे, परंतु ईश्वर के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था। जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है। जैन मत बौद्ध तथा वेदांत के ही समान अज्ञान को ही बंधन का कारण मानता है। इसके कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है। इसे ‘आस्त्रव’ कहते हैं। कर्म का जीव के साथ संयुक्त हो जाना बंधन है। जैसे ताप लोहे से तथा जल दूध से संयुक्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्म जीव से संयुक्त हो जाता है। प्रत्येक जीव अपने पूर्व संचित कर्मों के अनुसार ही शरीर धारण करता है।

मोक्ष के लिए उन्होंने निम्नलिखित तीन साधन आवश्यक बताए:

1. सम्यक दर्शन: जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है। उसके आठ अंग बताये गये हैं- संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोह राग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, सही विश्वासों पर अटल रहना, जैन सिद्धांतों को सर्वश्रेष्ठ समझना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना। इनके अतिरिक्त लौकिक अंधविश्वासों, पाखंडों आदि से दूर रहने का भी निर्देश दिया गया है।

2. सम्यक ज्ञान: जैन धर्म एवं उसके सिद्धांतों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यक् ज्ञान के पांच प्रकार बताये गये हैं- इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, श्रुति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, अवधि अर्थात् कहीं रखी हुई किसी भी वस्तु का दिव्य अथवा अलौकिक ज्ञान, मनः पर्याय अर्थात् अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अथवा पूर्ण ज्ञान, जो केवल तीर्थंकरों को ही प्राप्त है।

3. सम्यक् चरित्र: जो कुछ भी जाना जा चुका है और सही माना जा चुका है, उसे कार्यरूप में परिणत करना ही सम्यक् चरित्र है। इसके अंतर्गत भिक्षुओं के लिए पांच महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए पांच अणुव्रत बताये गये हैं। साथ ही साथ सच्चरित्रता एवं सदाचार पर विशेष बल दिया गया है। इन तीनों को जैन धर्म में ‘त्रिरत्न’ की संज्ञा दी जाती है। त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रूक जाता है, ‘जिसे ‘संवर’ कहते हैं। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं। इस अवस्था को ‘नर्जरा’ कहा जाता है। जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है, तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार कर्म का जीव से संयोग बंधन तथा वियोग ही मुक्ति है। मोक्ष के पश्चात् जीव आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इन्हें जैन शास्त्रों में ‘अनन्त चतुष्ट्य’ की संज्ञा प्रदान की गई है। इस प्रकार महावीर की शिक्षायें पूर्णतया नैतिक थीं, जिनका उद्देश्य आत्मा की पूर्णता था। जैन धर्म का प्रचार महावीर के जीवनकाल में ही उनके मत का मगध तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में व्यापक प्रचार हो गया।

मगध नरेश अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदयिन ने इसके प्रचार में योगदान दिया। महावीर ने अपने जीवनकाल में एक संघ की स्थापना की जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये गणधर कहे गये। इन्हें अलग-अलग समूहों का अध्यक्ष बनाया गया। महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा, जो जैन संघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना। नंद राजाओं के काल में भी जैन धर्म की उन्नति हुई होगी, क्योंकि वे भी जैन मत के विरूद्ध नहीं लगते। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी इस धर्म का विकास हुआ, क्योंकि जैन परंपरा के अनुसार उसने जैन आचार्य भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली थी। उसके साथ वह अपने जीवन के उत्तरकाल में राज्य त्यागकर दक्षिण में श्रवणबेलगोला (मैसूर) तपस्या करने चला गया था और वहीं इसने ‘सल्लेखन’ (अन्न-जल त्याग) द्वारा निर्वाण प्राप्त किया। भद्रबाहुकृत ‘जैन कल्प सूत्र’ से पता चलता है कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा। श्वेतांबर एवं दिगंबर अंतिम नंद के समय के सम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे। उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए।

इसी समय मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ने पर भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक चले गये। किंतु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रूक गये। भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणामस्वरूप जैन मत इस समय (लगभग 300 ईसा पूर्व) श्वेतांबर तथा दिगंबर नामक दो संप्रदायों में बंट गया। जो लोग मगध में रह गये थे, वे श्वेतांबर कहलाए। वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे। भद्रबाहु और उनके समर्थक, जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगम्बर कहे गये। प्राचीन जैन शास्त्र नष्ट हो जाने के कारण चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गई किंतु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग नहीं लिया। परिणामस्वरूप दोनों सम्प्रदायों में मतभेद बढ़ता गया। पाटलिपुत्र की सभा में जो सिद्धांत निर्धारित किये गये, वे श्वेतांबर सम्प्रदाय के मूल सिद्धांत बन गये। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों का मुख्य अंतर इस प्रकार है-

1. श्वेताम्बर मत ज्ञान-प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करता है, किंतु दिगंबरों के अनुसार आदर्श साधु भोजन ग्रहण नहीं करता।

2. श्वेतांबर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा वस्त्र धारण को वे मोक्ष की प्राप्ति में बाधक नहीं मानते। इसके विपरीत दिगंबर मतानुयायी पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं तथा वस्त्र धारण को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं।

3. श्वेतांबर सम्प्रदाय के लोग प्राचीन जैन ग्रंथों - अंग, उपांग, प्रकीर्णक, मूलसूत्र, वेदसूत्र आदि को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते हैं किंतु दिगंबर इन्हें मान्यता नहीं प्रदान करते।

4. श्वेतांबर मत के अनुसार स्त्री के लिए मोक्ष की प्राप्ति संभव है, किंतु दिगंबर मत इसके विरुद्ध है। कालांतर में जैन धर्म का केंद्र मगध से पश्चिमी भारत की ओर स्थानांतरित हो गया। जैन साहित्य में अशोक के पौत्र सम्प्रति को इस मत का संरक्षक बताया गया है। वह उज्जैन में शासन करता था। अतः यह जैन धर्म का एक प्रमुख केंद्र बन गया। जैनियों का दूसरा प्रमुख केंद्र मथुरा में स्थापित हुआ, जहां अनेक अभिलेख, प्रतिमायें, मंदिर आदि मिलते हैं। कुषाण काल में मथुरा जैन धर्म का एक समृद्ध केंद्र था। गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म 11वीं तथा 12वीं शताब्दी में अधिक लोकप्रिय रहा। इस प्रकार जैन धर्म समस्त भारत में फैल गया। अपने संगठन की उत्कृष्टता तथा अनुयायियों की कट्टरता के कारण ये आज भी भारत में अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे हुए हैं।

जैन धर्म की देन यद्यपि जैन धर्म कुछ ही भागों तक सीमित रहा, तथापि भारत के सांस्कृतिक जीवन में इसका योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। जैनियों की विशेष देन साहित्य एवं कला के क्षेत्र में रही। जैन विद्वानों ने विभिन्न कालों में लोक भाषाओं के माध्यम से अपनी कृतियों की रचना करके जैन साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, तेलुगू आदि भाषाओं में जैन साहित्य मिलते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ जैन ग्रंथ संस्कृत मंे भी मिलते हैं। इस प्रकार प्रादेशिक भाषाओं का विकास जैनियों ने किया। प्राचीन भारतीय कला एवं स्थापत्य को विकसित करने में भी जैनियों का योगदान महत्वपूर्ण है। हस्तलिखित जैन ग्रंथों पर खींचे हुए चित्र पूर्व मध्य-युगीन चित्रकला के सुंदर नमूने हैं। महाभारत, गुजरात, उड़ीसा, राजस्थान आदि से अनेक जैन-मंदिरों, मूर्तियों आदि के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं। उड़ीसा की उदयगिरि पहाड़ी से अनेक जैन गुफायें मिलती हैं। खजुराहो, राजस्थान, सौराष्ट्र में भव्य जैन मंदिर प्राप्त होते हैं। इन सबसे स्पष्ट है कि भारतीय कला को समृद्धशाली बनाने में जैन धर्म ने उल्लेखनीय योगदान दिया है।

जैन धर्म के लोगों ने अहिंसा एवं सदाचार का प्रचार किया तथा संयमित जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। यदि आज भी इन सिद्धांतों का अनुकरण किया जाए, तो आपसी भेदभाव एवं धार्मिक कलह बहुत सीमा तक दूर हो जायेगा तथा संसार में शांति, बंधुत्व, प्रेम एवं सहिष्णुता का साम्राज्य स्थापित होगा। इस प्रकार की शिक्षायें कुछ अंशों में आधुनिक युग में भी समान रूप से लागू होती हंै। संदेश समाज में दया, परोपकार, अहिंसा तथा जीवन में त्याग, सहनशीलता, तप एवं संयम- भगवान महावीर ने मनुष्य जाति को यही संदेश दिया। उन्होंने मानव-संस्कृति को अहिंसा, त्याग तथा तप का जो वरदान दिया, वह अनेक जातियों के लिए आदर्श रहा है। अहिंसा को इतने व्यापक रूप में सबसे पहले जैन धर्म ने ही ग्रहण किया। जैन धर्म ने निम्नलिखित बातों पर बल दिया:

1. जगत् अनादि है और इसके सभी पदार्थ नश्वर हैं।

2. आत्मा मोक्ष प्राप्ति का एक सोपान है और जीव ही आत्मा है। आत्मा शुद्ध और शरीर अशुद्ध है। मिथ्या दर्शन, अवरति और प्रमाद के कारण ही आत्मा शरीर में बंधती है।

3. मन आत्मा से भिन्न है।

4. मोह-माया और कर्मों के प्रति आकर्षण ही कर्म-बंधन का मूल कारण है।

5. कर्मों से मुक्ति पाना ही परम ध्येय है।

6. मुक्त आत्मा ही श्रेष्ठ है।

7. सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण- ये त्रिरत्न भी मोक्ष-प्राप्ति के साधन हैं।

8. जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का लक्ष्य कैवल्य पद (मोक्ष) की प्राप्ति है। पूर्व संचित एवं वर्तमान कर्मों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है। इसकी प्राप्ति के लिए संसार का त्याग करना आवश्यक है। जैन मुनियों के अनुसार जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा ही मुक्ति प्राप्त करता है।

अहिंसा को परम मानने वाले जैन साधु अथवा श्रावक पानी भी छानकर पीते हैं। जो जैन बिलकुल शाकाहारी होते हैं, वे उठते-बैठते, चलते-फिरते इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि कहीं जीव की हिंसा न हो। वे संध्या से ही पूर्व भोजन कर लेते हैं। कीटाणुओं के प्रवेश को रोकने के लिए जैन साधु हर समय मुखपट्टिका बांधे रखते हैं। जैन धर्म के अनुयायी अपने तीर्थंकरों को पूज्य मानते हैं। उनका ऐसा विश्वास है कि उनके तीर्थंकर परम-धाम में निवास करते हैं। इस श्रेष्ठ पद को उन्होंने अपने तप के बल पर ही प्राप्त किया है। जैन मंदिरों में इन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तियों की पूजा होती है। तीर्थ का अर्थ है-भवसागर को पार करना अर्थात् जिसने इसे पार कर लिया हो, उसे तीर्थंकर कहते हैं।



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