लाल किताब परिचय पं. उमेश शर्मा लाल किताब पद्धति पर स्थायी स्तंभ शुरू किये जाने की पाठकों की निरंतर मांग पर फ्यूचर समाचार पत्रिका के जनवरी 2011 अंक में लाल किताब विशेषज्ञ पं. उमेश शर्मा जी द्वारा इस पद्धति के क्रमबद्ध ज्ञान का प्रथम मोती प्रस्तुत है। वर्तमान में ज्योतिष के अनेक मत प्रचलित हैं- पाराद्गार, जैमिनि पद्धति, कृष्णामूर्ति पद्धति, पाद्गचात्य आदि। इसी संदर्भ में बीसवीं शताब्दी के मध्य में अविभाजित पंजाब के जिला जालंधर के गांव फरवाला में रहने वाले पं रुपचंद जोद्गाी जी ने एक अनूठी एवं अद्भुत ज्योतिष पद्धति की रचना की जिसे सामान्यतः 'लाल किताब' के नाम से जाना गया। पं. रुपचन्द जी ब्वदजतवससमत वक्मिमिदबम ।बबवनदज क्मचज. में एक लेखाधिकारी के रुप में कार्यरत थे तथा उर्दू एवं इंग्लिद्गा के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने ज्योतिष के विस्तृत ज्ञान को संक्षिप्त करके अपने अनोखे व अद्भुत सिद्धान्त रचे और उन सिद्धान्तों को उन्होने उस समय की प्रचलित उर्दू-फारसी भाषा में एक पुस्तक के रुप में 1939 से 1952 के मध्य क्रमबद्ध पांच भागों में लिख कर प्रकाद्गिात किया। जिनकी जिल्द का रंग लाल होने के कारण 'लाल किताब' का नाम दिया गया।
'लाल किताब' का प्रथम संस्करण ईसन् 1939 में ''सामुद्रिक की लाल किताब के फरमान'' के शीर्षक से छपा। सन् 1940 में द्वितीय संस्करण ''सामुद्रिक की लाल किताब के अरमान'' के शीर्षक से, lu् 1941 में ''लाल किताब तीसरा हिस्सा (गुटका)'' के शीर्षक से, तीसरा संस्करण, सन् 1942 में चतुर्थ संस्करण ''इल्मे सामुद्रिक की लाल किताब'' के शीर्षक से तथा अंत में सन् 1952 में इल्मे सामुद्रिक की बुनियाद पर ''लाल किताब'' के. शीर्षक से पांचवां तथा अंतिम संस्करण छपा। प्रत्येक संस्करण को पंडित जी अपने ज्ञान और अनुभव से और अधिक परिष्कृत करते गये। इन सारे संस्करणों के प्रकाद्गाक श्री गिरधारी लाल जी थे। इन संस्करणों की भाषा उर्दू-फारसी होने के कारण हिन्दी भाषा के पाठक इसके अनमोल ज्ञान से वंचित रहे। लाल किताब के नाम से अनेक अप्रामाणिक पुस्तके ज्योतिष बाजार में आयीं, जो पाठकों के मन में अनेक प्रकार के भ्रम व शंकाओं का कारण बनी।
इसका सबसे बड़ा कारण इस किताब के सभी संस्करणों का उर्दू भाषा में होना था। कुछ लेखकों ने इसका हिन्दी में लिप्यंतरण भी किया परन्तु उर्दू शब्दों को सिर्फ देवनागरी भाषा में ही लिखा जिससे समस्या वहीं की वहीं रही। लाल किताब' में कई नये नियमों का निरुपण करके फलित को अत्यंत संक्षिप्त व सरल बनाकर एवं कई अन्य विषयों का समावेद्गा करके गागर में सागर भर दिया गया है। इसके साथ साथ ही पडिंत जी ने ज्योतिष के द्वारा समाज को नया रास्ता भी दिखाया। उनके अनुसार चंद्र को शुभ करने के लिए अपनी माता व बड़ी- बूढ़ी औरतों की सेवा करना व उनसे आद्गाीर्वाद लेना, बृहस्पति के शुभ फलों को अनुभव करने के लिए पिता या बाबा का आद्गर्ाीर्वाद लेना आदि सबसे उत्तम रहेगा। इसी प्रकार कई अन्य सरल और साधारण उपायों द्वारा उलझनों से निकलने के साथ साथ इन उपायों के द्वारा सामाजिक मर्यादा को कायम किया जिसकी आज के भौतिकतावाद के युग में अति आवद्गयकता थी।
यह अवद्गय है कि लाल किताब में आज के समय जैसा कुछ नहीं है। आधुनिक ज्योतिष में जो थोड़ा-बहुत बदलाव आया है, इसका अंद्गा भी लाल किताब में नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि इसमें पाद्गचात्य ज्योतिष को कोई विद्गोष महत्व नहीं दिया गया। इसके बावजूद अपने सरल नियमों एवं फलादेद्गा एवं सस्ते व सुलभ उपायों के कारण यह पद्धति काफी लोकप्रिय हुई है। आज हर ज्योतिष प्रेमी इसका अध्ययन करना चाहता है। अतः अब पाठकों के लिए लालकिताब पर श्रृंखला प्रस्तुत है जिससे पाठकों को इसका क्रमबद्ध ज्ञान मिले। (सूत्र नं 1) परिचय लाल-किताब में नैसर्गिक कुंडली को प्रधान माना है। राशि छोड़ नक्षत्र भुलाया, न ही कोई पंचाग लिया। मेष राशि खुद लग्न को गिन कर, बारह पक्के घर मान लिया॥ अर्थात लाल-किताब में लग्न के अंक को कोई महत्व नहीं दिया गया यानी जन्मकुंडली में चाहे जो भी लग्न हो परन्तु लाल-किताब में प्रत्येक कुंडली का लग्न मेष राशि से ही शुरु होगा।
उदाहरण :-जन्म- 15-09-1985, समय-03:20 सांयकाल, स्थान-देहली। पारम्परिक ज्योतिष के अनुसार व लाल-किताब की पद्धति से बनी कुंडली निम्न प्रकार से होगी :- उपरोक्त कुंडली नं.1 जो कि पारम्परिक ज्योतिष के नियमों द्वारा बनायी गयी है। लग्न भाव की राशि को हटा कर उसके स्थान पर नं. 1, दूसरे भाव में अंक 2 और तीसरे में 3 इसी क्रम से प्रत्येक भाव को अंक दे कर ग्रहों को उन्ही भावों में स्थापित कर लें। इस प्रकार जो कुंडली बनेगी वह लाल-किताब से बनी हुई कुंडली कहलायेगी। जैसा कि उपरोक्त कुंडली नं. 2 को दर्शाया गया है। विवेचनाः- नैसर्गिक कुंडली मेष राशि से आरम्भ होती है जिसके कारण भाव नं. व राशि एक समान नं. के हो जाते हैं। जिससे भाव और भावेश का झगड़ा समाप्त हो गया।
पारम्परिक ज्योतिष के अनुसार उदाहरण में दी गई कुंडली नं. 1 पर विचार करने के लिये हम सर्वप्रथम लग्न में स्थित राशि, उस राशि के स्वामी जिसे हम लग्नेश कहते हैं उसकी भाव-स्थिति, लग्नेश पर अन्य ग्रहों की पड़ने वाली दृष्टि/दृष्टियां, अन्य सहायक वर्गों में उसकी स्थिति व बलाबल, नक्षत्र स्थिति इसी प्रकार लग्न पर अन्य ग्रहों की पड़ने वाली दृष्टियां इन सब बातों का अध्ययन एवं इसी प्रकार हम अन्य भाव और भावेशों व ग्रहों का अध्ययन करने के पश्चात् किसी निर्णय पर पहुंचते हैं। यह कहना कि इस सारे गणित का कोई अर्थ नहीं है, गलत होगा। इस सब का भी अपना एक महत्व है। परन्तु लालकिताब ज्योतिष पद्धति में लेखक पं. रुप चंद जोशी जी ने फलित की सरलता के लिये सीधे नैसर्गिक कुंडली को अपना आधार मान कर फलित के नियमों का सूत्रपात किया। (सूत्र नं 2 ) ग्रहों के पक्के घर लाल-किताब पद्धति में राशि की जगह भाव की प्रधानता है, ऐसा नहीं है कि राशियों के महत्व को नहीं माना परन्तु फलित की सरलता के लिए भाव को प्रधान माना है और प्रत्येक ग्रह को किसी न किसी भाव का कारक माना है जिसे लाल-किताब पद्धति में ग्रह का पक्का घर कहते हैं।
निम्न तालिका में कौन सा भाव किस ग्रह का पक्का घर है बताया गया हैः-
भाव नं. 1 पक्का घर है सूरज का ।
भाव नं. 2 पक्का घर है बृहस्पति का।
भाव नं. 3 पक्का घर है मंगल का ।
भाव नं. 4 पक्का घर है चन्द्र का ।
भाव नं. 5 पक्का घर है बृहस्पति का।
भाव नं. 6 पक्का घर है बुध और केतु का ।
भाव नं. 7 पक्का घर है बुध और शुक्र का ।
भाव नं. 8 पक्का घर है मंगल व शनि का।
भाव नं. 9 पक्का घर है बृहस्पति का।
भाव नं. 10 पक्का घर है शनि का।
भाव नं. 11 पक्का घर है बृहस्पति का।
भाव नं. 12 पक्का घर है बृहस्पति व राहु का।
लाल-किताब की व्याकरण का यह अत्यन्त महत्वपूर्ण नियम है इसे अच्छी तरह कंठस्थ कर लें।