‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि, उपर्युक्त दीक्षा मंत्र ग्रहण करके कोई भी बिना किसी भेद भाव के बुद्ध की शरण प्राप्त कर सकता था। किंतु भिक्षु संघ में प्रवेश हेतु केवल यह दीक्षा मंत्र ही पर्याप्त नहीं था। आगे की साधना भी अनिवार्य थी। बुद्ध कहते थे-----‘‘संघ एक सागर है और भिक्षु नदियां हैं। सागर में मिल जाने पर अपने अतीत से चिपटे रहना असंभव है।’’ 563 ई.पू. में गौतम बुद्ध का जन्म वैशाख पूर्णिमा को शाक्य वंश के शाही हिंदू परिवार में कपिल वस्तु में हुआ था। मां महामाया को स्वप्न में संदेश मिला कि उनके गर्भ में दिव्य चेतना आने वाली है। ज्योतिषियों ने कहा आपके यहां एक बालक का जन्म होगा। यदि वह घर पर रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि घर से चला गया तो संन्यासी बनकर संसार से अंधकार का नाश करेगा।’’ पिता शुद्धोदन ने पुत्र सिद्धार्थ को गृहस्थ बनाने के लिए अतिशय भोग-विलास की व्यवस्था की। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को किसी भी भांति घर पर रोकने को अपना प्रथम धर्म बना लिया था।
किंतु इस विलासी व्यवस्था से उपजी ऊब ने सिद्धार्थ को भोग से हटाकर जीवन के गहरे प्रश्नों की ओर मोड़ दिया क्योंकि स्थिति को कुछ और ही मंजूर था। गौतम बुद्ध की जन्म कुंडली के विश्लेषणात्मक अध्ययन से हम प्रयास करते हैं यह जानने का कि कैसा ग्रह-गोचरीय संयोजन था जिसने राजकुल में उत्पन्न बालक को निर्वाण प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर कर दिया। गौतम बुद्ध की कुंडली मिथुन लग्न की है। लग्नेश बुद्ध द्वादश भाव में सप्तमेश कर्मेश बृहस्पति, तृतीयेश सूर्य तथा अष्टमेश व नवमेश शनि से युत होकर स्थित है। बुध लग्नेश होने के साथ ही सुखेश भी है। बुध सूर्य के नक्षत्र और शनि के उपनक्षत्र में स्थित है। बुध पर षष्ठ भाव में स्थित धनेश चंद्रमा जो कि पक्ष बली होकर अपनी नीचस्थ राशि वृश्चिक में बैठे हैं और वृश्चिक के स्वामी मंगल से पूर्ण दृष्टि प्राप्त कर रहे हैं जिसके कारण उच्च कोटि का नीचभंग राजयोग बनाते हुए अपनी पूर्ण दृष्टि डाल रहे हैं।
गुरासूसाथ ही चंद्रमा के उच्चनाथ अर्थात शुक्र क्योंकि चंद्रमा वृष राशि में उच्च के होते हैं और नीचनाथ अर्थात मंगल दोनों ही परस्पर एक दूसरे से केंद्र में हैं और मंगल शुक्र को चतुर्थ दृष्टि से देख भी रहे हैं। मंगल लाभेश है और शुक्र धन भाव में स्थित होकर मंगल से दृष्ट है और धनेश चंद्रमा भी लाभेश मंगल से दृष्ट है। द्वितीय भाव कुटंब का भाव भी होता है और धन का भाव भी होता है। यद्येको नीचगतस्त द्राश्यधिपस्तदुच्चपः केन्द्रे। यस्य स तु चक्रवर्ती समस्त भूपाल वन्धांधिः।। फलदीपिका अध्याय-7 श्लोक -27 यदि कोई ग्रह नीचस्थ हो तो उस नीच राशि का स्वामी और नीचस्थ ग्रह का उच्चनाथ परस्पर केंद्र में होने से नीच भंग राज योग बनता है। गौतम बुध की कुंडली में बनने वाले इस योग के प्रभाववश ही वे उत्तम राजकुल में उत्पन्न हुए। शुक्र भोग प्रदाता ग्रह है। षड्बल में सर्वाधिक बली है। अष्टमेश शनि के नक्षत्र में और केतु के उपनक्षत्र में स्थित है।
यह सर्वविदित है कि गौतम बुद्ध के पिता ने उन्हें इतनी अधिक विलासी सुख-सुविधाएं प्रदान की हुई थीं कि उनका पुत्र कहीं संन्यासी न बन जाए। किंतु उनकी कुंडली में ग्रहीय स्थितियां इतनी विलक्षण हैं कि जहां उन्होंने भोग विलास का सुख उठाया वहीं भोग विलास से उपजी ऊब से मुक्ति का मार्ग भी दिखाया। गौतम बुध की कुंडली में बुध, बृहस्पति, सूर्य व शनि चार ग्रहों की युति द्वादश भाव में है। ये चारांे ग्रह कुंडली के द्वादश भावों में से सात भावों का स्वामित्व रखते हैं। क्रमशः बुध लग्नेश व चतुर्थेश (सुखेश) हैं, बृहस्पति सप्तमेश व कर्मेश हैं, सूर्य पराक्रमेश हैं, शनि अष्टमेश व भाग्येश हैं। चारों ग्रहों पर उच्च कोटि का नीचभंग राजयोग बनाने वाले चंद्रमा जो कि पूर्णमासी का होने के कारण अपनी उज्ज्वल कांति से युक्त हैं, कि पूर्ण दृष्टि है। उपर्युक्त विश्लेषण में हमने देखा किस प्रकार लग्न के अधिकांश भावों के स्वामी राजयोग से प्रभावित होने के कारण सुख व वैभव प्रदान कर रहे थे।
अब हम चर्चा करेंगे कि इतना वैभव, भोग-विलास कैसे क्षण भर में समाप्त हो गया। लग्नेश द्वादश भाव में अष्टमेश शनि से युत है, पराक्रमेश सूर्य द्वादश भाव में अष्टमेश शनि से युत और षष्ठ भाव में स्थित चंद्रमा से दृष्ट है, बृहस्पति जो कि पत्नी भाव व कर्म भाव के स्वामी हैं द्वादश भाव में अष्टमेश शनि से युत हैं। ‘‘दीर्घायुष्मान दृढ़र्मातरभयः श्रीमान्विधासुतधन सहितः। सिद्धारम्भो जिर्तारपुरमलो विख्यातारूपः प्रमर्वात सरले।। (सरल योग) फलदीपिका छठा अध्याय, 65-2 श्लोक यदि अष्टमेश द्वादश भाव में स्थित हो तो सरल योग होता है। ऐसे योग में उत्पन्न जातक दीर्घायु, दृढ़मति, निर्भय, लक्ष्मीरस, विद्या, पुत्र और धन से युत, अपने उद्योग में सफलता प्राप्त करने वाला निर्मल और शत्रुओं को जीतने वाला विख्यात पुरुष होता है। यह सब कुछ गौतम बुद्ध के जीवन में घटित हुआ। अष्टम भाव नवम अर्थात भाग्य का व्यय भाव होता है।
मिथुन लग्न की कुंडली में शनि अष्टमेश होने के साथ-साथ भाग्येश भी है। भाग्येश पितृ कारक भी होते हैं। भाग्येश की लग्नेश से युति है। भाग्येश और लग्नेश पर धनेश कुटुम्बेश चंद्रमा की पूर्ण दृष्टि है। गौतम बुद्ध के पिता ही उनकी विरक्ति का कारण बने। उनके पिता ने भरसक प्रयत्न किया कि उनका पुत्र राज-काज की ओर प्रवृत्त हो किंतु वे निष्फल हुए क्योंकि नवमेश शनि को अष्टम भाव के स्वामी का फल भी प्रदान करना था। लग्नेश बुध, अष्टमेश व भाग्येश शनि द्वादश मोक्ष भाव में बृहस्पति से युत होकर बैठे हैं। द्वादश भाव में बने चतुर्ग्रही योग जिसमें शनि और बृहस्पति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है, ने गौतम बुध को भोग-विलास के बीच भी जीवन की सच्चाई, दुखों के कारण उनसे निवृत्ति आदि प्रश्नों के उत्तर पाने की अदम्य लालसा को जागृत किया। शनि की पूर्ण दृष्टि भोग कारक शुक्र, मन के कारक चंद्रमा तथा नवम भाव पर है जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने ऐश्वर्य का भोग तो किया साथ ही उस ऐश्वर्य व भोग विलास से उत्पन्न होने वाले वैराग्य की भी प्राप्ति की।
गौतम बुद्ध का जन्म लग्नेश बुध की महादशा में हुआ था। बुध के बाद 7 वर्ष की केतु की दशा के बाद आई भोग कारक शुक्र की महादशा जो कि षड्बल में सर्वाधिक बली ग्रह है, धनभाव में बैठकर अष्टम भाव को दृष्टि दे रहे हैं। शुक्र पुरूष की कुंडली में पत्नी कारक होते हैं। गौतम बुद्ध की कुंडली में शुक्र पंचमेश भी है। उन्हें सुंदर व सुशील पत्नी का सुख मिला तथा राहुल नामक सुयोग्य पुत्र भी प्राप्त हुआ। गौतम बुद्ध शांति और सत्य की खोज में न तो हिमलाय गए, न ही कठोर तपश्चर्या का समर्थन किया। वे अपने परिवार व प्रियजनों से इतनी दूरी बनाते थे कि जब चाहते तब उनसे मिल सकते थे। उनके पिता जो कि अपने पुत्र को माया-मोह में लिप्त रखना चाहते थे उन्होंने भी अपने पुत्र को पुत्र भाव से मुक्त कर दिया, चेतना के रूप में स्वीकार किया। अंत में जब महाराज शुद्धोदन को पता चला कि बुद्ध का पुत्र राहुल भी संघ में प्रविष्ट हो गया है तो उनकी अंतिम सांस भी चली गई।
बुद्ध का पालन-पोषण करने वाली उनकी मौसी गौतमी तथा पत्नी यशोधरा भी बुद्ध से दीक्षित हो संघ में प्रविष्ट हो गईं। शुक्र ने बुद्ध को संपूर्ण वैभव प्रदान किया और द्वादशेश होने के फलस्वरूप सभी का व्यय भी कर दिया। बुद्ध ने अपने परिवार को त्याग दिया किंतु धीरे-धीरे करके पूरा परिवार संघ में प्रविष्ट हो गया लेकिन सबका स्वरूप बदल चुका था। पूरा राजपरिवार अब संघ की शरण में था। 35 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ को 4 सप्ताह के गहन ध्यान के बाद स्वयं बोध हो गया। बोधिसत्व सिद्धार्थ ! सम्यक संबुद्ध ! उनकी भाषा अव्यक्त चेतना में जा छिपी, न कुछ पाने को न कुछ देने को। बुद्ध ने जो कुछ भी पाया उस अनुभव को जब बांटना प्रारंभ किया तब राजकुल से लेकर भिखारी तक सब तृप्त हो गए। सबके सब बस बुद्ध की शरण पाना चाहते थे। शुक्र की महादशा समाप्त होने पर आई सू. चं. मं. रा. की महादशाएं जिसमें लगभग 41 वर्ष तक उन्होंने जो अंतर्मन की चेतना से प्राप्त किया उसे इस संसार तक पहुंचाया।
इसी अवधि में ही उन्होंने अंगुलिमाल डाकू का भी हृदय परिवर्तन कर यह सिद्ध किया कि मनुष्य जब तक चाहे तब तक अपने पाप और कुमार्ग से मुक्त हो सकता है। अब तक बुद्ध की आयु लगभग 80 वर्ष की हो चुकी थी। दशा प्रारंभ हुई बृहस्पति की जो कि दशमेश और सप्तमेश होकर व्यय भाव में सू. शबु. के साथ मिलकर चतुर्गही योग बना रहे हैं। द्वादश भाव में स्थित बृहस्पति मोक्ष प्रदाता हैं। बुद्ध ने अपने प्रारब्ध और वर्तमान जीवन से जो कुछ भी प्राप्त किया उससे इस संसार के अंधकार को दूर किया। जीवन की शुरूआत हुई बुध लग्नेश की महादशा से और परिनिर्वाण हुआ द्वादश भाव में बैठे बृहस्पति की दशा में अष्टमेश शनि के द्वादश भाव में बैठने से, उन्हें 80 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त हुई। बृहस्पति मारकेश भी है। गौतम बुद्ध की कुंडली विलक्षण है उसी भांति उनके जीवन में घटनाएं भी घटित हुईं। उनका जन्म वैशाख पूर्णिमा को हुआ- उन्हें बोधत्व प्राप्ति भी वैशाख पूर्णिमा को हुई। उनका परिनिर्वाण भी वैशाख पूर्णिमा को ही हुआ।