‘संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह कर के जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहे जाते हैं’ पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता है। यहां तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर है और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जाय तो भी नहीं होना चाहिए। गोत्र नाम है कुल, संतति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार ‘अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्’ 4-1-162, पौत्र आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत है। इसी प्रकार यद्यपि वंश या संतति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार है वह भी सांकेतिक ही है और सिर्फ विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा है।
जैसा कि बोधायन के महाप्रवराध्याय में लिखा है:
।। विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः। अत्रिवर्सष्ठिः कश्यपइत्येतेसप्तर्षयः ।। सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते।।
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत हैं। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में हैं। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता है ही नहीं। प्रायः 80 या 100 गोत्र मिलते हैं। जिस गोत्र के नाम से ऋषि आए हैं वही प्रवर भी कहलाते हैं। ऋषि का अर्थ है वेदों के मंत्रों को समाधि द्वारा जानने वाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम लेकर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पांच तक होते हैं। न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पांच से अधिक। यही परम्परा चली आ रही है। पर मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों है? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं।
जैसा कि कहा गया है:
।। त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृण् ाीते।। 7।। अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न पंचातिवृणीते।। 8 ।।
जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताए गए हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चल कर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गई वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता है और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता है। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गए हैं और साधारणतया यह नियम है कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता है और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता है क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही है। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हों । प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलाएगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए।
जैसा कि बोधायन ने लिखा है:
।। द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रया र्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाहः प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाहः ।।
इसीलिए बोधायन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया है उसमें भृगु और अंगिरा को न कह कर आठ ही को गिनाया है, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहां तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवरवाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता है क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए है, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी।
।। एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते। तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगा।।
भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण हैं उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गए हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गए हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्षित्सेन ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गए। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहलाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही हैं। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गए। इससे स्पष्ट है कि भारद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गाग्र्य के साथ विवाह नहीं हो सकता क्योंकि उनका गण एक ही है।