ग्रहों की कहानी ग्रहों की जुबानी श्री श्री रविशंकर जी पं. शरद त्रिपाठी आज के इस आधुनिक युग में श्री श्री रविशंकर जी को कौन नहीं जानता। ऑर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक एवं अध्यात्म गुरु श्री श्री रवि शंकर जी की खयाति देश एवं विदेश हर जगह है। ग्रहों की कहानी और ग्रहों की जुबानी स्तंभ में हम उनके जीवन के दिव्य पक्ष को ज्योतिषीय आइने में देखने का प्रयास करते हैं। आदरणीय श्री श्री रविशंकर जी का जन्म 13 मई 1956 को प्रातः 05:45 बजे तमिलनाडु के पापनाशम नामक कस्बे में हुआ। कहते हैं इस पवित्र स्थान पर स्नान करने से श्री रामचंद्र के ब्रह्म हत्या दोष का निवारण व उनके पापों का नाश हुआ। इसी कारण इस स्थान का नाम पापनाशम पड़ा। श्री श्री रवि शंकर वैदिक विद्वान आर. वी. एसरत्नम व मां विशाल लक्ष्मी की संतान थे। श्री श्री रवि शंकर का नाम रखने के पीछे एक कहानी है। इनका जन्म रविवार के दिन प्रातः वेला में हुआ था तथा उस दिन अक्षय तृतीया का पर्व था। इस पर्व के तीन दिन बाद परिवार के पुरोहित ने उनके नामकरण के दिन आदि शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य की जयंती होने के कारण, इनके नाम में शंकर और नारायण को भी जोड़ दिया।
सो इस बालक का पूरा नाम रवि शंकर नारायण हुआ। इस बालक को सभी प्यार से रवि बुलाते थे और यही श्री रवि ऑर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक श्री रवि शंकर जी हैं जिन्हें लोग गुरुजी या श्री श्री भी कहते हैं। आपकी नर्सरी की पढ़ाई बैंगलोर के एक स्कूल में हुई। पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने सेंट जोसैफ कालेज बेंगलोर से मार्डन फिजिक्स से बी.एस.सी. की डिग्री ली और वैदिक साहित्य में भी पारंगत हुए। नौकरी तो उन्हें करनी नहीं थी। एक बार वे मां की जिद्द पर बैंक में इंटरव्यू देने गये। इंटरव्यू बोर्ड में 3 लोग थे। इन्होंने उनका ही इंटरव्यू ले लिया। दरअसल बोर्ड में एक सदस्य ने उनसे पूछा कि आप क्या करते हैं तो इन्होंने बताया कि ध्यान सिखाता हूं। बस फिर क्या था, देर तक उनसे साधना का व्याखयान चल पड़ा। एक बार बैंगलोर में सेमीनार हो रहा था। हर क्षेत्र के खयाति प्राप्त विद्वान जुटे थे। विषय था, वैदिक ज्ञान व विज्ञान। जब इनकी बारी आई तब इन्होंने अपनी अद्भुत शैली में मंद मुस्कान-मधुर आवाज की बेहतर प्रस्तुति की व एक बार भी पानी नहीं पिया। उस सेमीनार में एक और भी ज्ञानी, महान व्यक्ति था जो इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। उन्होंने अपने पास बुलाया और बात की। अपने साथ आने का न्यौता दिया। वह व्यक्ति महर्षि महेश योगी थे। उस समय श्री श्री की उम्र मात्र 19 वर्ष की थी।
यह बात सन् 1975 की है। आईये, अब उनकी इन घटनाओं को ज्योतिष के नजरिये से देखते हैं- उनकी जन्म कुंडली देखने मात्र से ही पता चलता है कि यह कुंडली किसी महान व्यक्ति की है। जन्मकुंडली का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें मूल त्रिकोण के स्वामी अर्थात लग्नेश मंगल अपनी उच्च राशि मकर में दिग्बली होकर 10वें स्थान में तथा पंचमेश सूर्य उच्च का होकर लग्न में बैठा है। नवमेश बृहस्पति अपनी उच्च कर्क राशि में चतुर्थ में स्थित है। इस योग की पूर्णता यहीं समाप्त नहीं होती। अगर हम नवांश कुंडली का बारीकी से अध्ययन करें तो ये तीनों ही ग्रह सूर्य, मंगल और बृहस्पति नवांश कुंडली में अपनी राशि या एक-दूसरे की राशि में बैठे हैं। यह एक संपूर्ण ज्ञानी व योगी होने के ज्योतिषीय लक्षण हैं। अब बात करते हैं योगी से महान साधक बनाने वाले ग्रहों की। ज्योतिष में गहराई और महान साधना का भाव है, अष्टम भाव। मेष लग्न में लग्नेश और अष्टमेश एक ही ग्रह मंगल होता है अर्थात अष्टमेश भी उच्च का है। अतः अष्टम भाव में स्थित राहू व शनि ग्रह के बारे में अगर हम विचार करते हैं तो शनि आयु का प्रदाता ग्रह है तथा अपने सबसे अच्छे भाव अष्टम में स्थित भी है और लग्नेश मंगल की राशि में बैठकर लग्नेश मंगल को अपनी तीसरी दृष्टि से देख भी रहा है तथा वृश्चिक राशि में 06:49 अर्थात अपने ही नक्षत्र अनुराधा में वक्री होकर स्थित है जो कि इस कुंडली में शनि की विशालता का परिचायक है।
इसी के साथ बैठा हुआ दूसरा ग्रह राहू भी वक्री अवस्था में होते हुए 14:54 कला का होकर शनि के ही अनुराधा नक्षत्र में स्थित है। शनि इस कुंडली में कर्मेश और लाभेश भी है जो कि इनके कार्य क्षेत्र और उससे मिलने वाले लाभ की महानता को दर्शाता है। सन् 1992 से शनि की 19 वर्ष की महादशा भी चल रही है। इसी शनि की महादशा में इन्होंने फाउंडेशन को एक विशालकाय रूप देने में मदद की है। 150 देशों में ऑर्ट ऑफ लिविंग की शाखाएं हैं, जहां कार्य चल रहा है। सारे कार्य ट्रस्ट के माध्यम से होते हैं। आर्ट ऑफ लिविंग संस्था प्राकृतिक विपदा में सहायता का कार्य करती है। इसका मुखयालय जिनेवा में है। श्रीलंका के जाफना और व्यक्ति कलोवा में शांति मिशन के तहत कार्य हो रहा है। 1999 में इसकी शुरुआत हुई। पुनः इनकी जन्मपत्री का अध्ययन करते हैं तो इनमें कई स्थान परिवर्तन भी दिखाई देते हैं। पहला स्थान परिवर्तन अष्टमेश मंगल व दशमेश शनि का है। दूसरा स्थान - परिवर्तन द्वितीयेश शुक्र व तृतीयेश बुध का है। यह स्थान परिवर्तन जिस व्यक्ति की कुंडली में होता है, वह व्यक्ति अपने सुंदर और सूक्ष्म ज्ञान के पराक्रम से धन अर्जित करने में जीवन में सफल होता है तथा अपने कार्य की गहराई से अपने कार्य क्षेत्र को एक विशालतम रूप देने में सक्षम होता है। अब हम बात करते हैं कि इनकी कुंडली में कौन सा ऐसा योग है जिसकी वजह से इन्होंने अपने देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपनी संस्था को यहां से ज्यादा आगे बढ़ाया।
ज्योतिष में विदेश का भाव है 3, 9 और 12वां। यहां पर 12वां भाव विदेश में जीवन को दर्शाता है तथा तीसरे भाव की महत्ता दो कारणों से होती है। पहला कारण यह है किं 3, 4 का द्वादश भाव होता है अर्थात् चतुर्थ का व्यय और तीसरा भाव 12वें का चौथा भाव भी होता है अर्थात विदेश का घर। अब बात करते हैं 9वें भाव की। विदेश के लिए 9वें भाव के दो कारण माने जाते हैं पहला नौवां भाव, 12वें भाव से 10वें भाव में भी पड़ता है। अर्थात विदेश (12वां) कर्म क्षेत्र (10वां) भाव भी नवम् भाव होता है। इनकी जन्मपत्री में 12वें का स्वामी बृहस्पति अपनी पूर्ण दृष्टि से 12वें भाव को देख रहा है तथा साथ ही साथ अपनी 5वीं व 7वीं दृष्टि से दशमेश शनि और लग्नेश मंगल को भी देख रहा है। विदेश यात्राओं का प्रतिनिधित्व करने वाला अन्य ग्रह राहू भी अष्टम भाव में बैठकर द्वादश भाव को तथा द्वादशेश बृहस्पति को भी देख रहा है। नवांश कुंडली में भी चंद्रमा नवमेश होकर द्वादश में स्थित है। इनकी जन्म पत्री में स्थित ग्रहों के इन्हीं योगों के कारण देश में ही नहीं वरन विदेश में भी ज्यादा खयाति प्राप्त हुई। आईये, अब देखते हैं इनकी जन्म पत्रिका के कुछ महत्वपूर्ण योग।
हंस योग : यदि जन्म पत्रिका में स्वराशि अथवा उच्च का होकर बृहस्पति केंद्र में स्थित हो, तो ऐसा योग बनता है। राजकुल में उत्पन्न राजयोग : यदि जन्मांग में 3 या उससे अधिक ग्रह अपनी उच्च राशि में हों, तो ऐसा व्यक्ति राजकुल में उत्पन्न होकर राजा होता है। महादानी योग : यदि जन्म पत्रिका में लग्नेश या लग्न पर नवमेश की दृष्टि हो और नवमेश भी केंद्र या त्रिकोण में हो तो जातक महादानी होता है। निष्कपट योग : यदि जन्मपत्री में चतुर्थ स्थान में शुभ ग्रह अपने उच्च या मित्र की राशि में हों अथवा शुभ ग्रह की राशि में हों, तो जातक निष्कपट होता है। उपरोक्त विशेषताओं के अलावा श्री श्री रविशंकर जी ने योग की एक नई विधि निकाली जिसे सुदर्शन क्रिया कहा जाता है। सुदर्शन क्रिया एक उपयोगी अभ्यास है तथा वे अपने साधकों से अपेक्षा करते हैं कि वे इसको प्रकट नहीं करेंगे। श्री श्री रविशंकर के अष्टम भाव में पड़े शनि तथा राहू ग्रह के कारण तथा अष्टमेश से अष्टम अर्थात् तृतीयेश बुध की दृष्टि भी अष्टम भाव पर पड़ने की वजह से तथा सुदर्शनधारी भगवान विष्णु जो कि ग्रहों में बृहस्पति का स्थान रखते हैं उसकी दृष्टि भी अष्टम भाव तथा लग्नेश के ऊपर पड़ने की वजह से श्री श्री रवि शंकर जी इस सुदर्शन क्रिया का विकास विश्व में प्रमुख रूप से कर पाये। कुल मिलाकर ज्योतिष के माध्यम से यह नव ग्रह ही हमें किसी महान व्यक्ति के जीवन की जुबानी बता सकते हैं।