ज्योतिष में राशियों का अपना महत्व है, परंतु हमारे वैदिक ज्योतिष में राशियों से कहीं अधिक महत्ता नक्षत्रों की बताई गई है। पुरानी परिपाटी के ज्योतिर्विद प्रायः राशियों तथा ग्रहों की स्थिति के आधार पर ही फलित का विचार करते हैं, परंतु ऐसा करने से फलित के केवल स्थूल रूप पर ही पहुंचा जा सकता है। यदि हमें किसी भाव अथवा ग्रह विशेष के विषय में सटीक भविष्य जानने का प्रयास करना है तो उसके नक्षत्रों से संबंध की छान-बीन करनी होगी तथा और भी अधिक गहराई में जाने के लिए नक्षत्रों के स्वामियों के साथ-साथ उनके उप स्वामियों का विचार करना भी होगा। यह चिंता का विषय है कि फलित निर्धारण में ग्रहों के नक्षत्रों से संबंध पर विचार किए बिना अनेक ज्योतिर्विद फलित बता रहे हैं और इसमें व्यावसायिक दृष्टि से सफल भी हैं।
नक्षत्रों पर विचार करने की पहल ज्योतिष के महान विद्वान श्री के. कृष्णमूर्ति ने की थी और आज उनके नाम पर एक पद्धति प्रचलित है जिसे कृष्णमूर्ति पद्धति कहा जाता है। बहुत से ज्योतिर्विद इसे अपना कर ज्योतिष की सेवा कर रहे हैं। आप भी नक्षत्रों व उनके स्वामी और उप स्वामी के अनुसार ग्रहों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए फलित पर विचार कर सकते हैं परंतु आवश्यकता है इन सब को स्मरण रखने की। ज्योतिष में सिद्धांतों, योगों और ग्रहों की स्थितियों से संबंधित अंशों के नक्षत्रों के साथ नक्षत्रों के स्वामियों और उप स्वामियों को एक साथ याद रखना वास्तव में साधारण प्रतिभा के लोगों के लिए कठिन अवश्य है परंतु असंभव नहीं है। यदि हम इस नक्षत्र प्रणाली से फलित करने का निरंतर अभ्यास करें तो कुछ समय बाद यह सब सहज ही स्मरण रहने लगेंगे। यहां एक सारणी प्रस्तुत है
जिसकी सहायता से वांछित जानकारी सेकेंडों में प्राप्त की जा सकती है। इसके आधार पर ग्रह स्पष्ट से नक्षत्र और उसके स्वामी तथा उपस्वामी को जान सकते हैं और फलित को पूर्णता प्रदान कर सकते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है। उदाहरण: 1. मान लें कि सूर्य स्पष्ट 0त् 17° 02श् 03ष् है। अतः सूर्य मेष राशि में 17° 02श् 03ष् का है। अब सारणी में मेष राशि के काॅलम में देखने पर सूर्य 26° 40श् 00ष् तक शुक्र के नक्षत्र में है तथा चंद्रमा का उप स्वामित्व है। मेष लग्न में सूर्य पंचमेश होकर लग्न में उच्च राशि में है। राशि के फलित के अनुसार जातक महान ज्ञानी, तेजस्वी व हठी होगा तथा उसकी संतान भी उत्तम होगी।
अब नक्षत्र के स्वामी और उपस्वामी पर विचार करें। सूर्य, शुक्र के नक्षत्र अर्थात द्वितीयेश और सप्तमेश के नक्षत्र में तथा चंद्रमा के उप स्वामित्व में है जो चतुर्थेश है। इसके अनुसार जातक में उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त यह गुण भी होगा कि वह केवल अपने कुटुंब और धन (द्वितीय भाव) तथा पत्नी (सप्तम भाव) के साथ ही अपने घर तथा वैभव के सुख का अपनी माता के साथ भोग करेगा। इस सारणी का उपयोग जन्म के चंद्र स्पष्ट से उसकी महादशा व अंतर्दशा बताने के लिए भी कर सकते हैं।
यदि उपरोक्त सूर्य स्पष्ट को चंद्र स्पष्ट मान लें तो हमें यह तुरंत ज्ञात हो जाएगा कि जन्म के समय जातक की शुक्र की महादशा में चंद्रमा की अंतर्दशा चल रही थी। इस तरह ग्रहों के नक्षत्रों से संबंध के आधार पर नक्षत्रों के स्वामियों तथा उप स्वामियों का विचार कर फलित में परिशुद्धता लाई जा सकती है। इससे और भी तथ्य सामने आएंगे जिनसे फलित की गहराई का ज्ञान प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।