उतम मुहूर्त से उच्च चरित्र का निर्माण
उतम मुहूर्त से उच्च चरित्र का निर्माण

उतम मुहूर्त से उच्च चरित्र का निर्माण  

शरद त्रिपाठी
व्यूस : 6971 | जनवरी 2007

हमारे लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपनी मूल संस्कृति से इतने दूर जा रहे हैं कि हमारे समाज में पति-पत्नी जैसे पवित्र संबंधं का भी महत्व नहीं रह गया है। प्रिंट मीडिया के कई सर्वेक्षणों से यह बात उभरकर सामने आई है कि आज हमारे समाज में चाहे वह कोई स्त्री हो या पुरुष, शादी से पहले या शादी के बाद कई-कई संबंध बेहिचक बनाने लगे हुए हैं। बात सिर्फ गुप्त रूप से बने संबंधों की नहीं है बल्कि लोग तो आज आधुनिकता की दौड़ में खुलकर बहु विवाह भी कर रहें हैं। इसमें उन्हें कोई भी शर्म या हिचक महसूस नहीं होती है।

इन बहु विवाहों और बहु संबंधों के बारे में ज्योतिषीगण किसी जातक या जातका की जन्म पत्रिका देखकर उसके इन संबंधों के बारे में सटीक भविष्यवाणी करके बता भी देते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या एक सच्चे ज्योतिषी का कर्तव्य यहीं समाप्त हो जाता है? शायद नहीं, मुहूर्त की मदद से एक मां इस समस्या को शायद ज्योतिषीय विधि से कहीं न कहीं कम कर सकती है। जीवन का प्रारंभ मां से होता है और यदि मुहूर्त और मातृत्व में सामंजस्य बन जाए तो जातक चरित्रवान, भाग्यवान, स्वस्थ एवं दीर्घायु हो सकता है। मातृत्व एवं मुहूर्त के विषय में ज्योतिष के अनेक विद्वानों ने दिग्दर्शन कर यश कमाया है। इनमें ‘मुहत्तर्त-मार्तंड’ के रचयिता आचार्य नारायण प्रमुख हैं।

जीवन के बहु आयामों के अनुरूप अनेकानेक मुहूर्त निर्धारित किए जाते हैं, किंतु सर्व प्रथम मुहूर्त कन्या के प्रथम रजो दर्शन से ही प्रारंभ होते हैं; किंतु भारतीय परिवेश में लज्जा, संकोच एवं मुहूर्त को अनुपयुक्त समझकर इस अति महत्वपूर्ण तथ्य को नगण्य कर दिया जाता है और जातक के जन्म के बाद माता-पिता जीवन भर एक से दूसरे ज्योतिषी एवं एक उपाय से दूसरे उपाय तक भटकता फिरते हैं। अस्तु, आवश्यक है कि एक श्रेष्ठतर राष्ट्र निर्माण हेतु श्रेष्ठ नागरिक तैयार किए जाएं। प्राचीन काल में मुहूर्त का उपयोग राजवंशों में ही प्रचलित था। परिणामतः राजाओं की संतति अधिक स्वस्थ होती थी एवं उनका भाग्य बलशाली होता था। किंतु आज बदले हुए परिवेश में सर्वसाधारण भी मुहूर्त का उपयोग करने लगे हैं, क्योंकि यह उनके लिए भी उतना ही जरूरी है।


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इस कार्य में माताओं को ही अग्रणी भूमिका अदा करनी होगी। तभी पुत्री के इस प्रथम मातृ सोपान पर शुभाशुभ निर्णयकर जीवन को सहज एवं सफल अस्तित्व प्रदान किया जा सकेगा। कन्या की 12 से 14 वर्षों की आयु के अंतराल में यदि रजोदर्शन शुभ मुहूर्त में हो, तो निश्ंिचत रहें अन्यथा यदि मुहूर्त अशुभ हो, तो कुछ उपाय, दान आदि से अशुभता का निवारण करें। प्रथम रज दर्शन के शुभ मुहूर्त मास: माघ, अगहन, वैशाख, आश्विन, फाल्गुन, ज्येष्ठ, श्रावण। पक्ष: उपर्युक्त महीनों के शुल्क पक्ष तिथि: 1,2,3,5,7,10,11,13 और पूर्णिमा। वार: सोवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार। नक्षत्र: श्रवण, धनिष्ठा,शतभिषा, मृगशिरा, अश्विनी, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, तनों उत्तरा, रोहिणी, पुनर्वसु, मूल, पुष्य शुभ लग्न: वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मीन शुभवस्त्र: श्वेत प्रथम रज दर्शन के अशुभ काल एवं उपाय यदि रजोदर्शन में पूर्वोक्त शुभ समय नहीं रहा हो, तो अशुभता निवारण हेतु उपाय सहज एवं सुलभ है।

निषिद्ध योग उपाय भद्रा- स्वस्ति-वाचन, गणेशपूजन निद्रा- शिव संकल्प सूक्त के 11 पाठ संक्राति अमावस्या- सूर्याघ्र्य एवं दान रिक्ता तिथि- अन्न से भरा कलश दान संध्या- बहते जल में दीप दान षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी- गौरी पूजन वैधृति योग- शिव लिंग पर दुग्ध, दूर्बा एवं विल्वपत्र समर्पण रोगावस्था- पीली सरसों की अग्नि में आहुति चंद्र सूर्य ग्रहण- काले उड़द का दान पात योग- राहु-केतु का दान अशुभ नक्षत्र- पार्थिव पूजन अशुभ लग्न- नव ग्रह पूजन पूर्वोक्त उपाय, कन्या के शुद्ध होने पर कन्या द्वारा ही कराएं। इन उपायों द्वारा अमंगल निवारण हो जाता है और भावी जीवन कल्याणकारी होता है।

उपाय की उपयुक्तता: अगर जीवन में कुछ छोटी-छोटी बातों जैसे छिपकली या गिरगिट का गिरना, बिल्ली का रास्ता काटना आदि को शुभाशुभ मान कर उपाय करते हैं तो इस शारीरिक परिवर्तनारंभ का भी ज्योतिषीय उपाय एवं विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि यह आवश्यक एवं तर्कसंगत है। आज के वैज्ञानिक युग में यौन-संबंध के बिना भी जीवन उत्पत्ति (परखनली शिशु) होती देखी जा रही है। वैज्ञानिक उस जैव उत्पत्ति स्थान-परिसर में वातानुकूलन को अनिवार्य मानते हैं। मातृत्व हेतु मुहूर्त भी ग्रह-नक्षत्रों के अनुकूलन की प्रक्रिया है। दूसरा मातृत्व सोपान गर्भाधान होता है। भारतीय विद्वानों ने अपनी अलौकिक ज्ञान साधना द्वारा इस विषय पर सर्व सम्मति से निर्णय दिया है। भद्रा पर्व के दिन षष्ठी, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या पूर्णिमा, संक्रांति, रिक्ता, संध्याकाल, मंगलवार, रविवार, शनिवार और रजोदर्शन से 4 रात्रि छोड़कर शेष समय में तीनों उŸारा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्र में गर्भाधान शुभ होता है।

गर्भाधान के पश्चात गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक होती है, जितनी अंकुरित होते हुए बीज एवं विकसित होते हुए पौधों की। इस संबंध में मुहूर्त चिंतामणिकार ने गर्भकालीन दस मास तक के स्वामी ग्रहों की स्थिति का निर्धारण किया है। इन ग्रहों के दान-पूजन से उत्पन्न होने वाले जातक का जीवन एवं भाग्य सुदृढ़ होते है। मास ग्रह पूजन एवं उपाय प्रथम शुक्र गणेश स्मरण, मिष्टान्न एवं सुगंधि दान। द्वितीय मंगल गाय को मसूर की दाल खिलाएं। तृतीय गुरु परिवार के श्रेष्ठों को हल्दी का तिलक लगाकर आशीर्वाद लें। चतुर्थ सूर्य सूर्याघ्र्य दान पंचम चंद्र चंद्राघ्र्य दान षष्ठ शनि सायंकाल शनिवार को दीपदान सप्तम बुध हरी सब्जियों का उपयोग एवं दान अष्टम लग्नेश विष्णु पूजन करें, तुलसी को जल दें।

नवम चंद्र चंद्राघ्र्य दान दशम सूर्य सूर्य को प्रणाम करें, गणेश का स्मरण करें। ज्योतिष मुहूर्त की अंक प्रक्रिया इसे पूर्ण वैज्ञानिक बनाती है। उदाहरण: एक शिशु की पूर्ण संरचना में 9 मास लगते हैं। भारतीय ज्योतिष में अधिष्ठित ग्रहों की संख्या 9 है। जल चक्र की तरह जीवन चक्र भी अनुलोम प्रतिलोम विधि से चलता रहता है। इसी प्रकार किसी भी संख्या का प्रतिलोम उस संख्या से घटाने पर लब्ध अंकों का योग 9 ही होता है। अंक 7, 2, 5 प्रतिलोम 5, 2, 7 अंतर 1, 9, 8 लब्ध अंकों का योग 1$9$8 = 18 एकल योग 1$8 = 9 इस प्रकार जीवन के अनुलोम एवं प्रतिलोम चक्रांतरण में नए जीवन (शिशु) की संरचना में 9 मास या 280 दिन और 8 घंटे (2$8$0$8=18=1$8=9) लगते हैं।

इससे ग्रह पिंडों व बिंबों की संख्या का अनुकूलन सिद्ध हो जाता है। अतः माता को अपनी पुत्री एवं पुत्रवधू के शुभ मातृत्व हेतु आवश्यक ज्येातिषीय परामर्श अवश्य लेना चाहिए। ु


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