आधुनिक युग में जहां मानव शरीर में होने वाले रोगों के कारणों को जानने के लिए आधुनिक उपकरणों की सहायता लेते हैं वहीं वैदिक काल में वैद्य, हकीम, ज्योतिष की सहायता ले रोगों के कारणों की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर उपचार करते थे और यह भी जान लेते थे कि उपचार से सफलता प्राप्त होगी या नहीं। ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति होना, ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों पर निर्भर करता है क्योंकि जन्मकुंडली उस आकाशीय पिंडों का चित्रण है जो जन्म के समय जातक के शरीर को प्रभावित करते हैं।
इसमें जातक के समस्त जीवन की रूप रेखा निश्चित हो जाती है और ग्रह नक्षत्रों के प्रतिदिन के बदलते प्रभाव से जातक का शरीर प्रभावित होकर रोगी या स्वस्थ होता है। ज्योतिष का आधार ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं काल पुरूष की कुंडली में द्वादश भाव है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव मानव शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करता है।
रोग भी उसी अंग से संबंधित होगा जिस अंग का प्रतिनिधित्व ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव कर रहा होता है।
कालपुरूष की कुंडली में बारह भाव, मानव शरीर के अंगों और रोगों का प्रतिनिधित्व इस प्रकार है:
नौ ग्रह एवं अंग सूर्य - हड्डियाँ, चंद्र - खून, तरल पदार्थ; मंगल- मज्जा, बुध - त्वचा, नसें, गुरु-वसा, शुक्र - शुक्राणु, प्रजनन क्षमता, शनि- स्नायु, राहु-स्नायु प्रणाली, केतु-गैस, वायु द्वादश राशियां एवं अंग मेष - सिर, वृष- चेहरा, मिथुन- कंधे, गर्दन और छाती का ऊपरी भाग, कर्क-दिल, फेफड़े, सिंह- पेट, कलेजा, कन्या- आंतें (बड़ी एवं छोटी), तुला- कमर, कुल्हा, पेट का निचला भाग, वृश्चिक- गुप्त अंग, गुदा; धनु-जंघा, मकर- घुटने, कुंभ टांगें (पिंडलियां), मीन - पैर। द्वादश भाव एवं अंग और रोग प्रथम भाव: सिर, दिमाग, बाल, चमड़ी, शारीरिक कार्य क्षमता, साधारण स्वास्थ्य। द्वितीय भाव: चेहरा, दायीं आंख, दांत, जिह्वा, नाक, आवाज, नाखून, दिमागी स्थिति। तृतीय भाव: कान, गला, कंठ, कंधे, श्वांस नली, भोजन नली, स्वप्न, दिमागी अस्थिरता, शारीरिक विकास। चतुर्थ भाव: छाती, दिल, फेफड़े, रक्त चाप, स्त्रियों के स्तन। पंचम भाव: पेट का ऊपरी भाग, कलेजा, पित्ताशय, जीवन शक्ति, आंतें, बुद्धि, सोच, शुक्राणु, गर्भ। षष्ठ भाव: उदर, बड़ी आंत, गुर्दे, साधारण रोग, मूत्र, कफ, बलगम, दमा, चेचक, आंखों का दुखना। सप्तम भाव: गर्भाशय, अंडाशय और अंडग्रंथि, शुक्राणु, प्रोस्टेट ग्रंथि। अष्टम भाव: बाहरी जननेंद्रिय, अंग-भंग, लंबी बीमारी, दुर्घटना, लिंग, योनि, आयु। नवम भाव: कुल्हे, जांघें, धमनियां, आहार, पोषण। दशम भाव: घुटने, घुटनों के रोग, जोड़, चपली, शरीर के सभी जोड़ एवं आर्थराइटिस। एकादश भाव: टांगें, पिंडलियां, बायां कान, रोग से छुटकारा। द्वादश भाव: पांव, बायीं आंख, अनिद्रा, दिमागी संतुलन, अपंगता, मृत्यु, शारीरिक सुख-दुख। नक्षत्र एवं अंग: अश्विनी - घुटने, भरणी- सिर, कृत्तिका- आंखें, रोहिणी- टांगंे, मृगशिरा- आंखें, आद्र्रा- बाल, पुनर्वसु- उंगलियां, पुष्य- मुख, अश्लेषा- नाखून, मघा- नाक, पू. फाल्गुनी- गुप्त अंग, उ. फाल्गुनी- गुदा, लिंग, गर्भाशय, हस्त- हाथ, चित्रा-माथा, स्वाति-दांत, विशाखा-बाजू, अनुराधा- दिल, ज्येष्ठा-जिह्वा, मूल-पैर, पू.आषाढ़ा-जांघ एवं कूल्हे, उ.आषाढा़-जंघाएं एवं कूल्हे, श्रवण-कान, धनिष्ठा-कमर, शतभिषा-ठुड्डी, रीढ़ की हड्डी, पू. भाद्रपद-फेफड़े, छाती, उ. भाद्रपद, छाती की अस्थियां, रेवती-बगलें। ज्योतिषीय दृष्टि से आयुर्वेद के तीन विकारों के प्रतिनिधि ग्रह आयुर्वेद का मूल आधार तीन विकार अर्थात् त्रिदोष हंै- वात, पित्त और कफ। जब इन तीन विकारों में असंतुलन आ जाता है तब मानव शरीर रोगी होता है। वैद्य, हकीम नाड़ी देखकर इन तीन विकारों के अनुपात का अध्ययन कर रोग का उपचार करते हैं।
ज्योतिषीय दृष्टि से इन तीनों विकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रह इस प्रकार हैं:
सूर्य-पित्त, चंद्र-कफ, वात और मंगल-पित्त, बुध- तीनों विकार, गुरु-कफ, शुक्र-वात और कफ, शनि वात, राहु-केतु वात और कफ। जन्मकुंडली मंे जो ग्रह कमजोर होगा उस ग्रह से संबंधित विकार होगा। रोग का कारण विकार है, इसलिए यदि इस विकार से संबंधित ग्रह का उपचार किया जाए तो रोगी के स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। जन्मकुंडली से रोग विश्लेषण: काल पुरूष की कुंडली में षष्ठ भाव रोग भाव कहलाता है। इसलिए षष्ठेश को रोगेश भी कहते हैं। षष्ठ भाव पर काल पुरूष का पेट, आंतें (बड़ी-छोटी) और गुर्दे आदि आते हैं।
इससे सीधा अभिप्राय यही है कि जातक का खाना-पीना ही उसके रोग का कारण है क्योंकि खाया-पीया पेट की आंतों से होता हुआ बाहर जाएगा। यदि वह किसी कारण पेट से बाहर पूरी तरह नहीं जा पाये तो जो मल आतों में रहेगा, सड़ेगा और रोग उत्पन्न करेगा। इसलिए षष्ठ भाव और षष्ठेश को रोग का कारक माना जाता है।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण लग्न अर्थात प्रथम भाव है। प्रथम भाव जातक के पूरे शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। यदि किन्हीं कारणों से लग्न, लग्नेश-पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हुए तो जातक को जीवन भर रोगों का सामना करना पड़ेगा। जन्मकुंडली में रोगों का विश्लेषण करते समय लग्न-लग्नेश, षष्ठ भाव और षष्ठेश की स्थितियों को भली भांति जानना चाहिए, लग्न क्या है, इसमें क्या राशि है, नक्षत्र है और वह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करता है।
षष्ठ भाव में क्या राशि है, नक्षत्र है और यह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करते हैं इसी तरह इनके स्वामी ग्रहों की स्थिति अर्थात किस भाव में किस राशि व नक्षत्र में है यह पूर्ण जानकारी आपको जातक के रोग का विश्लेषण करने में सहयोग देगी। रोग की अवधि: जन्मकुंडली में ग्रहों की पूर्ण स्थिति की जानकारी के बाद दशा-अंतर्दशा और गोचर का विचार करने से रोग के समय की जानकारी मिल जाती है। लग्नेश और षष्ठेश की दशा में जातक को रोग होने की संभावना रहती है। यदि लग्न कमजोर है, पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट है तो जातक को लग्नेश की दशा में रोग हो सकता है।
जब गोचर में भी लग्नेश पाप ग्रहांे से युक्त या दृष्ट होता है तो इस समय रोग अपनी चरम सीमा पर रहता है। गोचर में जब तक लग्नेश पाप ग्रहों के घेरे में रहता है और जब इस घेरे से युक्त होता है उतने समय जातक को रोग का सामना करना पड़ता है। इसी तरह षष्ठेश की दशा में भी जातक के रोग होने की संभावना रहती है। दशा, अंतर्दशा और गोचर का विचार वैसे ही करना होगा, जैसे लग्नेश के बारे में वर्णन किया गया है।
इस प्रकार भावों की राशि एवं नक्षत्र स्वामियों की दशा में भी जातक को रोग हो सकता है। यदि इनके स्वामियों की स्थिति पाप युक्त या दृष्ट होगी और गोचर भी प्रतिकूल रहेगा तो रोग होता है। लग्नेश जब षष्ठ भाव के स्वामी या षष्ठ भाव के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है। स्वामी और उसकी अवधि भी उतनी ही रहती है जितनी गोचर की अवधि होती है। इसके उपरांत रोग से छुटकारा मिल जाता है।
इसके साथ ही दशा, अंतर्दशा के स्वामी का गोचर भी इसी प्रकार देखना होगा अर्थात् दशा/अंतर्दशा स्वामी यदि षष्ठेश या षष्ठेश के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है और रोग उसी भाव से संबंधित होता है जिस भाव में ग्रह गोचर कर रहा होता है।