रुद्राक्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
रुद्राक्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

रुद्राक्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि  

प्रमोद कुमार सिन्हा
व्यूस : 8443 | मई 2014

रुद्राक्ष, आम के वृक्ष के समान दिखने वाले एक वृक्ष का फल है। ये वृक्ष दक्षिण एशिया में प्रमुखतः जावा, मलेशिया, ताइवान, भारत और नेपाल में पाए जाते हैं। भारत में ये मुख्य रूप से असम, अरुणाचल प्रदेश और देहरादून में पाए जाते हैं। रुद्राक्ष के फल से छिलका निकालकर उसके बीज को जल में गलाकर साफ किया जाता है। इसके बीज ही वस्तुतः रुद्राक्ष के रूप में माला आदि बनाने के काम में आते हैं। स्पष्ट है कि इन्हीं बीजों के उपयोग से माला का गठन होता है। सिद्ध मुहूर्त में योग्य विद्वानों के मार्ग-दर्शन में जन-साधारण इसी को धारण कर धन्य हो जाता है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि रुद्राक्ष के भीतर प्राकृतिक छिद्र होते हैं और संतरे की तरह फांकें बनी रहती हैं, जो ‘मुख’ कहलाती हैं। ‘रुद्राक्ष’ नाम की महिमा शाब्दिक व्युत्पत्ति और पौराणिक सदंर्भ ‘रुद्राक्ष’ नाम की महिमा अद्भुत है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार, इस शब्द की उत्पत्ति इस तरह होती है:- रुद्र’$‘अक्ष’्, अर्थात् रुद्र की आंख। भगवान् शिव से रुद्राक्ष का संबंध ‘शिव पुराण’ के अनुसार रुद्राक्ष का संबंध भगवान् शिव के अश्रुकणों से है। ऐसी मान्यता है कि जब सती के वियोग से शिव का हृदय द्रवित हुआ, तो उनके नेत्रों से अश्रु निकलने लगे जो अनेक स्थानों पर गिरे और इन्हीं से रुद्राक्ष वृक्ष की उत्पत्ति हुई। अतः जो जातक ‘रुद्राक्ष’ धारण करता है, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। ‘पद्मपुराण’ के अनुसार सतयुग में त्रिपुर नाम का दैत्य, ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर, कुछ ज्यादा ही क्रूर हो चला था।

सभी लोकों में उसने उत्पात मचा रखा था। तब समस्त देवी-देवताओं ने देवाधिदेव भगवान् शिव की शरण ली। प्रभु ने अपनी दिव्य दृष्टि का उपयोग किया तथा एक शक्तिशाली बाण से उसे मार गिराया। इस लोकोद्धारक कार्य के संपादन से, अत्यंत श्रम के कारण, भगवान् शिवजी के शरीर से जो बंूदें (पसीने की बूंदें) निकलीं, वे भूमि पर गिरीं तथा उन्हीं से रुद्राक्ष वृक्ष की उत्पत्ति हुई। श्रीमद्देवी भागवत में यह कहा गया है कि त्रिपुर नामक राक्षस को मारने हेतु भगवान् शिव की आंखें सहस्त्र वर्षों तक खुली रहीं तथा थकान के कारण उनके नेत्रों से अश्रु बह निकले, जिनसे रुद्राक्ष का वृक्ष उत्पन्न हुआ। रुद्राक्ष के जन्मदाता भगवान् शिव ही हैं। ऊपर वर्णित सभी कथाओं और पौराणिक संदर्भों से इसी निष्कर्ष की पुष्टि होती है कि रुद्राक्ष के जन्मदाता भगवान् शिव ही हैं।

रुद्राक्ष का उपयोग तथा महत्व- ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि के संदर्भ में यह सर्वविदित है कि भगवान् शिव के दिव्य भाल पर चंद्रमा सदा विराजमान रहता है, हमेशा ही चंद्र की शीतल किरणें उनके तेजस्वी कपाल से निकलती रहती हैं और यही कारण है कि चंद्र ग्रह उत्पन्न कोई भी कष्ट हो, तो रुद्राक्ष धारण से वह समूल नष्ट हो जाता है। यह भी एक अनुभूत सत्य है कि शनि के द्वारा पीड़ित चंद्र अर्थात् साढे़साती से मुक्ति दिलाने में रुद्राक्ष अत्यधिक उपयोगी होता है। इसी प्रकार से, किसी भी तरह की मानसिक पीड़ा, उद्विग्नता तथा रोग से मुक्ति रुद्राक्ष धारण से संभव है। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि भगवान् शिव सर्प की माला गले में धारण करते हैं, अतः काल-सर्प से उत्पन्न कष्टों से मुक्ति में भी रुद्राक्ष धारण करने से लाभ होता है। यह विशेषतः उपयोगी और असरकारक होता है, अनुभवी शिव भक्तों ने भी इसकी पुष्टि की है।

रुद्राक्ष के प्रकार शिवपुराण और पद्मपुराण आदि ग्रंथों के अनुसार रुद्राक्ष एकमुखी से चैदहमुखी-चैदह प्रकार के पाए जाते हैं। फिर भी यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि सामान्यतः पंचमुखी रुद्राक्ष ही व्यवहार में पाए जाते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष वस्तुतः अत्यंत दुर्लभ होता है। सच तो यह है कि शुद्ध एकमुखी रुद्राक्ष तो देखने में आता ही नहीं। इसी प्रकार से नेपाल का गोलाकार एकमुखी रुद्राक्ष की प्राप्ति भी अत्यधिक कठिन है। यही कारण है कि दक्षिण भारत में पाया जाने वाला एकमुखी काजू दाना अत्यधिक प्रचलित है और इसी प्रकार से असम में पाया जाने वाला गोल दाने का रुद्राक्ष भी व्यवहार में बहुत प्रचलित है तथा उपयोग में भी आता है। यूं तो अट्ठाईस मुख वाले रुद्राक्ष मिल जाते हैं, किंतु इक्कीसमुखी रुद्राक्ष के ऊपर के रुद्राक्ष भी बहुत कठिनाई से मिल पाते हैं। रुद्राक्ष के कुछ और रूप भी देखने में आते हैं, जैसे, गौरी शंकर, गौरी गणेश और त्रिजुटी आदि।

गौरी-शंकर-रुद्राक्ष में दो रुद्राक्ष प्राकृतिक रूप से एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। ये दोनों रुद्राक्ष गौरी और शंकर के प्रतीक हैं। गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करने से दांपत्य जीवन में मधुरता तथा सरसता बनी रहती है। गौरी-गणेश रुद्राक्ष में भी दो रुद्राक्ष जुड़े रहते हैं, एक बड़ा-गौरी का प्रतीक और दूसरा छोटा, गणेश का प्रतीक, मानो, पार्वती जी- गौरी जी की गोद में बाल गणेश बैठे हों। रुद्राक्ष की पहचान रुद्राक्ष के मुख की पहचान, उसे बीच से दो टुकड़ों में काटकर आसानी से की जा सकती है। जितने मुख होते हैं, उतनी ही फांकें नज़र आती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्येक रुद्राक्ष किसी न किसी ग्रह का प्रतिनिधित्व करता ही है। विभिन्न प्रकार के रुद्राक्षों का उपयोग कई रोगों के उपचार हेतु किया जाता है।

रुद्राक्ष का स्वरूप बहुआयामी है शास्त्रकारों ने विस्तार से रुद्राक्ष के बहुआयामी स्वरूप पर प्रकाश डाला है। चिकित्सा, व्यवसाय, लोक एवम् परलोक की सभी समस्याओं का निदान एकमेव रुद्राक्ष से ही संभव है। रुद्राक्ष धारण विधि सोमवार को प्रातः काल की शुभ वेला में, स्नान के पश्चात, आसन पर बैठकर, पहले कच्चे दूध से एवं फिर गंगा जल से धोकर और अष्टगंध से सुवासित कर, ‘‘ऊँ नमः शिवाय,’’ मंत्र का जप कर रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। कुछ सुझाव रुद्राक्ष से पूर्ण लाभ प्राप्ति हेतु उसे रात को उतारकर तथा प्रातः स्नानादि के बाद मंत्र जपकर धारण करना चाहिए। यह सभी जानते हैं कि शिव, सदैव शक्ति युक्त ही होते हैं, अतः स्त्रियां भी रुद्राक्ष अवश्यमेव धारण कर सकती हैं।

गौरी-शंकर रुद्राक्ष तथा गौरी-गणेश रूद्राक्ष तो विशेषतः स्त्रियों के लिए ही होते हैं। प्रथम से वैवाहिक सुख एवं द्वितीय से संतान-सुख की प्राप्ति होती है। विशेष शुचिता की दृष्टि से रजो दर्शन के तीन दिनों की अवधि में रुद्राक्ष न धारण करें, तो उत्तम है। असली रुद्राक्ष कहां से प्राप्त हो? असली रुद्राक्ष की प्राप्ति कैसे संभव है? यह प्रश्न भी, इस प्रसंग में विचारणीय है। रुद्राक्ष के बारे में कई प्रकार की भ्रांतियां भी पाई जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में, किसी विश्वसनीय प्रतिष्ठान से ही महंगे एवं असली रुद्राक्ष खरीदना चाहिए।



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