वट सावित्री व्रत
वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 11013 | मई 2014

भारतीय संस्कृति में वट सावित्री एक ऐसा दिव्य व्रत है, जिसको संपन्न करके एक भारतीय नारी ने यमराज पर भी विजय प्राप्त कर संपूर्ण नारी जाति को गौरवान्वित किया है। यह व्रत, स्कंद और भविष्योत्तर के अनुसार, ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को और निर्णयामृतादि के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को किया जाता है। भारत देश में यह व्रत प्रायः अमावस्या को ही होता है। इस वर्ष यह व्रत 28 मई 2014 को मनाया जाएगा। ह्म वैवर्त पुराण का मत है। माधव मत से जब अट्ठारह घड़ी चतुर्दशी तिथि हो, तो परा ग्रहण करनी चाहिए।

अट्ठारह घड़ी से कम होने पर तो पूर्व विद्धा ही ग्रहण करें। संसार की सभी स्त्रियों में ऐसी शायद ही कोई हुई होगी, जो सावित्री के समान अपने अखंड पतिव्रता धर्म और दृढ़ प्रतिज्ञा के प्रभाव से यम द्वारा सयमनी पुरी में गये हुए पति को सदेह लौटा लायी हो। अतः सधवा, विधवा, वृद्धा, बालक, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को सावित्री का व्रत अवश्य ही करना चाहिए। नारी वा विधवा वापि पुत्री पुत्रविवर्जिता। सभर्तृका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतमिदं शुभम्।।

जयसिंह कल्पद्रुम में लिखित विधि यह है कि ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी को प्रातः स्नानादि के पश्चात् ‘‘मम वैधव्यादि-सकलदोषपरिहार्थं सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्री व्रतमहं करिष्ये।’’ में नाम, गोत्र, वंश आदि के उच्चारण सहित संकल्प कर तीन दिन उपवास करें। यदि सामथ्र्य न हो, तो त्रयोदशी को रात्रि भोजन, चतुर्दशी को अयाचित और अमावस्या को उपवास करके शुक्ल प्रतिपदा को व्रत समाप्त करें।

अमावस्या को वट वृक्ष के समीप बैठ कर बांस के एक पात्र में सप्त धान्य भर कर उसे दो वस्त्रों से ढंक दें और दूसरे पात्र में सुवर्ण की ब्रह्म सावित्री तथा सत्य सावित्री की प्रतिमा स्थापन करके गंधाक्षतादि से पूजन करें। तत्पश्चात् वट वृक्ष को कच्चे सूत से लपेट कर उस वट का यथाविधि पूजन करके परिक्रमा करें। पुनः ‘‘अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणाघ्र्यं नमोऽस्तु ते।।’’

इस श्लोक को पढ़कर सावित्री को अघ्र्य दें और ’वटसि×चामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः। यथा शाखा- प्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले। तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा।।’ इस श्लोक को पढ़कर वट वृक्ष से प्रार्थना करें। देश-देशांतर में मत-मतांतर से पूजा पद्धति में विभिन्नता हो सकती है। परंतु भाव सबका एक ही रहता है, जो यमराज द्वारा सावित्री को प्रदत्त वरदान या आशीर्वाद है। इसमें भैंसे पर सवार यमराज की मूर्ति बना कर भी पूजा का विधान है। सावित्री कथा को भी श्रवण करें। यह कथा इस प्रकार है: मद्र देश के नरेश अश्वपति धर्म के प्राण थे। धर्मानुकूल पवित्र आचरण एवं इंद्रिय संयमपूर्वक भगव˜जन ही उनके जीवन के आधार थे। अट्ठारह वर्षों तक सावित्री देवी की आराधना कर के इन्होंने संतति प्राप्ति का आशीर्वाद पाया था। सावित्री ने इन्हीं की सौभाग्यवती पत्नी (जो मालव नरेश की कन्या थी) के गर्भ से जन्म लिया था। सावित्री अपूर्व गुणी और शीलवती थी।

वह क्रमशः बढ़ती हुई विवाह के योग्य हुई। उस समय वह बाह्याभ्यंतर सौंदर्य की जीवित प्रतिमा सी प्रतीत होती थी। अनुपम रूप लावण्य के साथ उसमें अतुलनीय तेज भी उ˜ासित हो रहा था, जिसके कारण लोग उसे देव कन्या समझ लेते थे और इसी कारण कोई भी राजकुमार उसका पति बनने का साहस नहीं कर सका। सावित्री को पूर्णवयस्का देख कर चिंतित अश्वपति ने उसे स्वयं वर ढूंढ़ने का आदेश दिया। अत्यंत लज्जा और संकोच से माता-पिता के चरणों का स्पर्श कर वह वृद्ध मंत्रियों के साथ रथारूढ़ हो कर रमणीय तपोवन की ओर चली। कुछ दिनों के बाद जब वह लौटी, तब देवर्षि नारद उसके पिता के समीप बैठे हुए मिले। चरण स्पर्श करने पर अश्वपति के साथ श्री नारद जी ने भी उसे प्रेमपूर्वक आशीष दी।

अश्वपति ने सावित्री को वरान्वेषण के लिए भेजा था, यह संवाद श्री नारद जी को पहले ही बतला दिया गया था। उन्होंने सावित्री से धीरे से कहाः ‘बेटी, तुमने किसे पति चुना है, देवर्षि को बता दो। सावित्री ने नतमुख हो अत्यंत संक्षेप मंे कहा: ‘शाल्व देश के धर्मपरायण नरेश द्युमत्सेन के पुत्र का नाम सत्यवान् है। सत्यवान ने जन्म तो नगर में लिया था, पर उनका लालन-पालन तपोवन में हुआ है।

मैंने उन्हीं के चरणों में अपने को समर्पित करने का निश्चय किया है। द्युमत्सेन नेत्रहीन हो गये हैं और उनके एक शत्रु राजा ने उनका राज्य भी छीन लिया है। वह अपनी पतिव्रता पत्नी और शीलवान तथा धर्मज्ञ सुपुत्र के साथ तपोवन में निवास कर रहे हैं। इस प्रकार सत्यवान का जीवन ऋषि कुमारों सा हो गया है।‘ उदास हो कर श्री नारद जी ने कहा ः राजन्, यह अत्यंत खेद की बात है। निश्चय ही सत्यवान् रूप, शील और गुणों में अद्वितीय है; किंतु एक वर्ष के बाद ही उनकी आयु समाप्त हो जाएगी। वह इस लोक में नहीं रह सकंेगे।

अश्वपति बोलना ही चाहते थे कि धर्मज्ञा सावित्री ने तुरंत कहा: पिताजी, सत्यवान् दीर्घायु हों अथवा अल्पायु, गुणवान् हों अथवा निर्गुण, मैंने एक बार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। अब दूसरे पुरुष को मैं नहीं वर सकती। दीर्घायुरथवाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा। सकृद्वृत्तो मया भत्र्ता न द्वितीयं वृणोम्यहम्।। (महा0 वन0 294/27) सावित्री का निश्चय सुन लेने पर देवर्षि नारद जी ने अश्वपति से कहा: राजन, सावित्री बुद्धिमति और धर्माश्रया है।

आप इसे सत्यवान् के हाथों सौप दें।’ देवर्षि चले गये। अश्वपति समस्त वैवाहिक सामग्रियों के साथ द्युमत्सेन के आश्रम पर पहुंचे। द्युमत्सेन ने इनका यथोचित सत्कार किया। वह सावित्री के गुणों पर मुग्ध हो कर अश्वपति का आग्रह नहीं टाल सके। उसी तपोवन में सावित्री का परिणय सत्यवान् के साथ विधिपूर्वक हो गया। अत्यधिक वस्त्राभूषण दे कर अश्वपति विदा हुए। पिता के जाते ही सावित्री ने आभूषणादि उतार कर वनोचित वस्त्र धारण कर लिये।

वह तपस्विनी हो गयी। उसने अपने सद्गुण, विनय और सेवा के द्वारा सास-ससुर के मन पर अधिकार कर लिया। सावित्री से पूरा परिवार संतुष्ट था। वह स्वयं संतुष्ट और अत्यंत सुखी दीखती थी, परंतु उसे श्रीनारद जी की बात याद थी। उसका हृदय प्रतिक्षण अशांत रहता था। पति की मृत्यु की स्मृति से उसका कलेजा कांप जाता था। धीरे-धीरे वह समय भी आ गया, जब सत्यवान की मृत्यु के चार दिन शेष रह गये थे। पतिप्राणा सावित्री अधीर हो गयी थी। उसने तीन रात्रि का निराहार व्रत धारण किया। चैथे दिन उसने प्रातः काल ही सूर्य देव को अघ्र्य दान कर सास-ससुर तथा ब्राह्मणों का शुभ आशीर्वाद प्राप्त किया।

सत्यवान् समिधा लेने चले, तब सास-ससुर की आज्ञा ले कर सावित्री उस दिन उनके साथ हो गयी। वन में थोड़ी लकड़ी भी वह नहीं ले पाये थे कि उनका सिर चकराने लगा। सिर की असह्य पीड़ा के कारण सत्यवान् सावित्री की गोद में लेट गये। फूल-सी कोमल सावित्री का हृदय हाहाकार कर उठा। उसने देखा, सामने लाल वस्त्र पहने श्यामकाय एक देव पुरुष खड़े हैं। चकित हो कर उसने प्रणाम किया, तो उत्तर मिला: सावित्री, मैं यम हूं। तुमने अपने कर्तव्य का पालन किया है। अब मैं सत्यवान् को ले जाऊंगा। इनकी आयु पूरी हो गयी है।

यम सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को लेकर आकाश मार्ग से चल पडे़। अधीरा सावित्री भी उनके पीछे लग गयी। यमराज ने उसे लौटने के लिए कहा, तो वह बोली: ‘भगवन् , पतिदेव का साथ मुझे अत्यंत प्रिय है। मेरी गति कहीं नहीं रुकेगी। मैं इनके साथ ही चलूंगी।’ सावित्री की धर्मयुक्त वाणी सुन कर यम ने उससे सत्यवान् को छोड़ कर अन्य वर मांगने के लिए कहा, तो सावित्री ने अपने ससुर की नेत्र ज्योति मांग ली। पर फिर भी उनके साथ चलती रही।

यम ने उसके कष्ट को देख कर कहा: अब तुम लौट जाओ। पर उसने उत्तर में कहा, ‘पति के साथ आपका दुर्लभ संग छोड़ कर मैं नहीं जा सकूंगी। यम ने पुनः उससे सत्यवान् के अतिरिक्त वरदान मांगने के लिए कहा। सावित्री ने अपने ससुर का खोया राज्य मांग लिया। यम ने देखा वह अब भी पीछे चली आ रही है और रह-रह कर प्रार्थना करती हुई सत्संग महिमा तथा धर्म युक्त बातेें कहती जाती है। प्रसन्न हो - कर यमराज ने फिर वैसे ही वरदान मांगने के लिए कहा, तो उसने अपने निःसंतान पिता के लिए सौ पुत्र मांग लिये।

चैथी बार यमराज शर्त लगाना भूल गये, तब उसने अपने लिए भी, सत्यवान् के वीर्य से, सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त कर लिया। इतने पर भी उसने यम का साथ नहीं छोड़ा। सतीत्व के कारण उसकी गति अबाध थी। उसने यम की स्तुति करते हुए कहाः भगवन्, अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिए। इससे आपके ही सत्य और धर्म की रक्षा होगी। पति के बिना सौ पुत्रों का आपका वरदान सत्य नहीं हो सकेगा। मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग, लक्ष्मी और जीवन की भी इच्छा नहीं रखती। अत्यंत संतुष्ट होकर यम ने सत्यवान् को अपने पाश से मुक्त कर दिया और अपनी ओर से चार सौ वर्ष की नवीन आयु दे दी। सतीत्व के प्रभाव से नवीन प्रारब्ध बन गया।

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