अवतारों में श्रीराम एवं श्रीकृष्ण का नाम पूरे हिंदू समाज में बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था के साथ लिया जाता है। यद्यपि ये दोनों भगवान के अवतार माने जाते हैं, किंतु इन दोनों के स्वभाव एवं चरित्र में एक दूसरे से नितांत भिन्नता दिखलाई देती है इनमें से श्रीराम ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ हैं, तो श्रीकृष्ण ‘लीला पुरुषोत्तम’ हैं।
श्रीराम को किसी ने कभी भी हंसते नहीं देखा तो श्रीकृष्ण को किसी ने कभी रोते नहीं देखा। इनमें से एक ने आजन्म एक ही धीर एवं गंभीर रूप धारण किया, तो दूसरे ने क्षण-क्षण में नई भूमिकाएं धारण कर नित नई लीलाएं दिखाईं। एक ने जीवन भर मानवीय रूप ही बनाए रखा, तो दूसरे ने कभी यशोदा को और कभी अर्जुन को अपना विराट रूप दिखलाया। वस्तुतः श्रीकृष्ण का अवतार षोडश कला परिपूर्ण है।
अतः उनके स्वरूप एवं चरित्र में भी समग्रता है। कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्् श्र ी कृ ष् ण् ा क े च िर त्र म े ं ‘‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तु’’ का सामत्श्र्य ही नहीं, अपितु उनमें भगवत्तत्व दिखलाई देता है। तात्पर्य यह कि वे गोकुल की गलियों में ग्वालबालों के साथ हमारी तरह खेलते कूदते हैं - यह उनका ‘कर्तुम्’’ सामथ्र्य है। वे पूतना का स्तनपान करते हुए उसका प्राणांत कर देते हैं या ऊखल से बंधने पर उसे खींचकर अर्जुन के वृक्षों को गिरा देते हैं, जैसा कि हम नहीं कर सकते - यह उनका ‘‘अकर्तुम् ‘‘सामथ्र्य है। और वे हाथ की कनिष्ठिका उंगली पर गिरि राज पर्वत को धारण कर लेते हैं या कालिय नाग के सहस्र फनों पर नाचते हैं अथवा महारास के समय प्रत्येक गोपी के साथ अपना रूप बनाकर रासलीला रचते हैं, जैसा कि हम सोच भी नहीं सकते, वैसा करना - यह उनका ‘अन्यथा कर्तुम्’’ सामथ्र्य है।
वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण की अलौकिक शक्तियों और उनकी अद्भुत लीलाओं का आविर्भाव उनके जन्म से ही हो गया था। पढ़ने-लिखने या शस्त्रास्त्रों की विद्या के अभ्यास के लिए महर्षि सान्दीपनि के आश्रम जाने से पहले उन्होंने गोकुल में पूतना, शकटासुर एवं तृणावर्त का वध किया। ब्रज में लीलाएं करते हुए वत्सासुर व्रकासुर, अघासुर एवं धेनकासुर को धूल चटाई। मथुरा में केशी, कुवलयापीड़, चाणूर, शल- तुशल एवं कंस का वध किया।
उनका यमलार्जुन का उद्धार करना, कालीनाग को नाथना, उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाना और महारास में प्रत्येक गोपी के साथ रास करना आदि सभी लीलाएं अद्भुत एवं अलौकिक शक्ति की द्योतक हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में ही भगवत्तत्व के छह गुण - ऐश्वर्य, धर्म, यश, शोभा, ज्ञान एवं वैराग्य - बार-बार और लगातार दिखलाई पड़ते हैं। अतः श्री कृष्ण को भगवान माना जाता है।
समकालीन लोगों की दृष्टि में श्रीकृष्ण भगवान श्री कृष्ण की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि उनके समकालीन बड़े से बड़े ज्ञानी, तपस्वी, मनस्वी, धर्मात्मा, महर्षि, शूर-वीर एवं प्रतापी योद्धा भी उनके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति रखते थे और उनकी अलौकिक एवं अद्भुत शक्ति के कायल थे।
व्यास जैसे महर्षि, युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा, भीष्म पितामह जैसे शूर-वीर एवं प्र तापी, विदुर जैसे नीतिज्ञ, अर्जुन एवं भीम जैसे योद्धा, सहदेव जैसे ज्ञानी, सान्दीपनि जैसे ऋषि, द्रौपदी एवं कुंती जैसी कुलांगनाएं आदि ईश्वर बुद्धि से उनके चरणों में नतमस्तक होकर स्वयं को धन्य मानते थे।
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि सबसे पहले किसका पूजन किया जाए तब युधिष्ठिर ने ज्ञाववृद्ध, पराक्रमवृद्ध व वयोवृद्ध मानकर भीष्म पितामह से इसका निर्णय करने का निवेदन किया।
भीष्म ने भली भांति सोच समझकर कहा - ‘‘कि जो सब राजाओं के तेज, बल एवं पराक्रम का अभिभाव करते हुए नक्षत्रों में सूर्य के समान विराजमान हैं, वही भगवान श्री कृष्ण सर्वप्रथम पूजनीय है। श्रीकृष्ण के जीवन की विभिन्न घटनाओं से यही सिद्ध होता है कि उनके समकालीन छोटे और बड़े सभी लोग उनकी अलौकिक शक्तिया ंे स े प्रभावित हाके र उन्हें ईश्वर या भगवान मानने लगे थे।
श्रीकृष्ण के प्रति बहुजन की इसी आस्था के कारण बाद में उनके भक्तों की संख्या का विस्तार हुआ है, जो आज तक चला आ रहा है। हिंदुओं के देवताओं और अवतारों में श्रीकृष्ण अकेले ऐसे हैं, जिन्होंने अपने स्वभाव एवं स्वरूप को स्वयं बतलाया है।
कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते समय अपने विराट रूप का दर्शन कराते हुए श्रीकृष्ण अपने बारे में कहते हैं- ‘हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदि कारण मैं ही हूं। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो मुझसे रहित हो। जगत में वैभव, तेज एवं लक्ष्मी को मेरी विभूति का अंश समझो। अथवा बहुत अधिक जानने से क्या मतलब, तुम संक्षेप में केवल इतना समझ लो कि इस समस्त ब्रह्मांड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है।’’
यथा- ‘‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदर्जितमेव ना।
तत्तदेवानगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।। -गीता
श्री कृष्णः शरणम् स्वभाव से श्रीकृष्ण दीनदयालु एवं भक्त वत्सल हैं। अपने इसी स्व. भाव के बारे में बतलाते हुए श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं- ‘‘हे अर्जुन, तुम सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, तुम दुखी मत होओ।’’ यथा
‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।।
श्रीकृष्ण के इसी स्वभाव से प्रभावित होकर श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया।
‘‘सर्वसाधन हीनस्य पराधीनस्य सर्वतः।
पापयीनस्य दीनस्य श्रीकृष्णः शरणं मम।।
जन्माष्टमी एवं द्वादशाक्षर मंत्र कौरवों की सभा में द्रौपदी की लाज बचाने वाले और सुदामा के चावल खाकर उसे तीनों लोकों का वैभव देने वाले करुणावरुणा लय, आनंदकंद भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिण् ाी नक्षत्र में मध्य रात्रि की वेला में चंद्रोदय के समय मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था।
यह दिन जन्माष्टमी के नाम से विख्यात है। इस दिन व्रत रखकर दिन में द्व ादशाक्षर मंत्र का 12 हजार जप करने और रात्रि में भगवान के जन्मोत्सव के बाद उनका पंचामृत एवं प्रसाद लेकर पारण करने वाले भक्त को न केवल भक्ति एवं मुक्ति मिलती है अपितु उसकी समस्त मनोकामनाएं परू ी हा े जाती हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का मूलमंत्र, जिसे द्वादशाक्षर मंत्र कहते हैं, इस प्रकार हैं
‘‘¬ नमो भगवते वासुदेवाय।’’
विनियोग: अस्य श्रीद्वादशाक्षर श्रीकृष्णमंत्रस्य नारद ऋषि गायत्रीछंदः श्रीकृष्णोदेवता, ¬ बीजं नमः शक्ति, सर्वार्थसिद्धये जपे विनियोगः ध्यान: ‘‘चिन्ताश्म युक्त निजदोः परिरब्ध कान्तमालिंगितं सजलजेन करेण पत्न्या। ऋष्यादि न्यास पंचांग न्यास नारदाय ऋषभे नमः शिरसि।
¬ हृदयाय नमः।
गायत्रीछन्दसे नमः, मुखे ।
नमो शिरसे स्वाहा।
श्री कृष्ण देवतायै नमः,
हृदि भगवते शिखायै वषट्।
बीजाय नमः गुह्ये।
वासुदेवाय कवचाय हुम्।
नमः शक्तये नमः, पादयोः।
¬ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्राय फट्।।
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